बुधवार, 29 जुलाई 2015

आत्मन को न तो कोई मारता है(और न ही वह किसी को मारता है ) और न ही वह किसी के द्वारा मारा जाता है


फांसी महज एक दृष्टांत है समान मानसिकता वालों को सचेत करने के लिए. इसमें व्यक्ति गौण है.
                                          ------------------------------डॉ अरविन्द मिश्र 
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जो आत्म हत्या  करते हैं उनके कर्म नष्ट नहीं होते आगे की यात्रा वहीँ से शुरू होती है जहां पहुंचकर अदबदाकर आत्मन को मन के कहे  शरीर से जबरिया विमुक्त कर दिया गया मायिक (माया से बने ,मटीरियल से बने )मन द्वारा। 

तमाम आतताइयों को मारना धर्म है। गीता में वह सभी मारे गए जो अधर्म के साथ खड़े थे। समाज को चलाये रखने के लिए दंड का विधान ज़रूरी है। ये सदा से रहा आया है रहेगा। वरना समजा एक मिनिट भी नहीं चल सकता। 

धर्म की रक्षा के लिए दहशदगर्दों को फांसी दी जा सकती है। जो इनकी फांसी का विरोध करते हैं वे अधर्म के साथ खड़े हैं। 

फांसी देने वाले ने अपने कर्तव्य कर्म (धर्म )का  पालन ही  किया है।ईद पर जब कसाई बकरा हलाल करता   है (उसके कान में यही 

कहता है भैया मैं तो अपना कर्म कर रहा हूँ। कटवाने वाला कोई और है।  )


कर्म और पुनर्-जन्म  का सिद्धांत कुरआन की दो आयतों में भी मिलता है (सूरा ३०. ४० )-अल्लाह वह है ,जिसने तुम्हें पैदा किया और  फिर तुम्हारा पोषण किया ,तुम्हें मारा और जो तुम्हें फिर जीवन देता है (सूरा 30 .40 ).वह  उन्हें जो अच्छे कर्म करते हैं और जिनमें आस्था है ,पुरस्कृत करता है। उसके कर्म फल के विधान से कोई बच नहीं सकता। (सूरा 30.45).लोग अपने कर्म के परिणाम से बच नहीं सकते ,क्योंकि जैसा तुम बोवोगे ,वैसा काटोगे। कारणों और परिणामों को अलग नहीं किया जा सकता। कार्य (परिणाम )कारण में ही छिपा (निहित )रहता है। जैसे फल बीज में विद्यमान रहता है। अच्छे और बुरे कर्म हमारी छाया के समान हमारा पीछा करते हैं। 

ये ओवैसी है या ओबीसी या एबीसी जो भी हैं ये किसे  बहका रहे हैं और ये चैनलिये इन्हें क्यों तूल दे रहे हैं।इन्हीं लोगों ने इस्लाम को बदनाम किया है। 

हमारा आदर्श सेकुलर कलाम हैं जो मज़हबी भेद का अतिक्रमण करते हैं।  

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