बुधवार, 22 जुलाई 2015

जुआ ,मदिरापान ,अवैध यौनसंबंध और मांसाहार से मानवों में स्वाभाविक नकारात्मक प्रवृत्ति हो सकते हैं ,किन्तु इन चारों से निवृत्ति पाना सचमुच दिव्य है

यात्यामं गतरसं ,पूति पर्युषित च यत् ,

उच्छिष्टम् अपि चामेध्यं ,भोजनं तामसप्रियम् । ।

         (भगवद्गीता १७.  १० )

That which is cooked overnight ,tasteless ,putrid ,stale ,refuse and 

impure is dear to the Tamasikas.

i.e food prepared more than three hours before eaten ,food that is 

tasteless ,decomposed and putrid ,and food consisting of remnants 

and untouchable things is dear  to those in the mode of darkness .

अधपका ,रसरहित ,दुर्गन्धयुक्त ,बासी ,जूठा और (मांस ,मदिरा आदि )अपवित्र आहार तामसिक मनुष्य को प्रिय होता है। 

     मन की शुद्धि भोजन की पवित्रता से होती है। शुद्ध मन में ही सत्य का उद्घाटन होता है। सत्य के जानने के बाद व्यक्ति सब बंधनों से मुक्त हो जाता है (छान्दोग्य उपनिषद ७ . २ ६.  ०२ ). 

जुआ ,मदिरापान ,अवैध यौनसंबंध और मांसाहार से मानवों में स्वाभाविक नकारात्मक प्रवृत्ति हो सकते हैं ,किन्तु इन चारों से निवृत्ति पाना सचमुच दिव्य है। पाप के इन चार स्तम्भों से व्यक्ति को परहेज़ रखना चाहिए (भागवद्पुराण १. १ ७.३८ ). 

मांसाहार से परहेज़ करना एक सौ पावन यज्ञ करने के समान है (मनुस्मृति ५. ५३.५६ )

  ॐ तत् सत्  

 सत्त्वानुरूपा सर्वस्य ,श्रद्धा भवति भारत । 

श्रद्धा-मयो अयं पुरुषो यो यच्-छ्रद्धः स एव सह : । । 


0 son of Bharata ,according to one's existence under the various modes of nature ,one evolves a

particular kind of faith .The living being is  said to be under  a particular faith according to the

modes he has acquired .


(श्री भगवान बोले )हे अर्जुन ,सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके स्वभाव (तथा संस्कार )के अनुरूप होती है। मनुष्य

अपने स्वभाव से जाना जाता है। मनुष्य जैसा भी चाहे वैसा ही बन सकता है। (यदि वह श्रद्धापूर्वक अपने

इच्छित ध्येय का चिंतन करता रहे.

यदि मनुष्य उकताहट में न पड़कर दृढ एवं प्रबल निश्चय के साथ प्रयत्न करता रहे तो देवाधिदेव भगवान् शिव

के  प्रसाद से शीघ्र ही मनोवांछित फल पा लेता है (महाभारत १२। १५३। ११६ ). शुद्ध मन वाला  व्यक्ति जो भी

चाहता है ,उन पदार्थों की प्राप्ति उसे हो जाती है (मुण्डक उपनिषद ३.०१। १०  ).सत्कर्म करने वाला अच्छा बन

जाता है और दुष्कर्म करने वाला बुरा । पुण्य कर्मों से व्यक्ति पुण्यात्मा और पाप कर्मों से दुष्टात्मा बन जाता

है(बृहदारण्यक  उपनिषद  (४. ०४। ०५ )  . व्यक्ति वही हो जाता है जिसका वह सतत  रूप से गहन चिंतन

करता है ,कारण चाहे जो भी हो -श्रद्धा ,भय, ईर्ष्या प्यार या घृणा भी (भागवद पुराण ११. ०६। २२  ). जिसकी

तुम्हें तलाश है -जानबूझकर या अनजाने -सदा वही मिलेगा ,विचार से कर्म पैदा होता है ,शीघ्र ही कर्म स्वभाव

बन जाता है और स्वभाव किसी भी उद्यम में सफलता की ओर ले जाता है।

हम स्वयं अपने ही विचारों और कामनाओं की उपज हैं-अपने ही निर्माता। जहां चाह है वहां राह है। हमें उत्तम

विचारों को ही मन में स्थान देना चाहिए। क्योंकि विचार कर्म के पूर्वगामी हैं।

First there is thought then there is action .

विचार हमारे शारीरिक ,मानसिक ,आर्थिक और आध्यात्मिक कल्याण को भी नियंत्रण में रखते हैं। हमारे अपने

भीतर ही इतनी शक्ति है ,किन्तु विडंबना यह है कि हम उसका उपयोग करने में असमर्थ रहते हैं।यदि तुम्हारे

पास वह नहीं है ,जो तुम चाहते हो ,तो तुम उसके प्रति सौ फ़ीसदी निष्ठ नहीं हो। जीवन से सर्वश्रेष्ठ की कामना

नहीं करनी चाहिए ,यदि तुम उसे अपना सर्वश्रेष्ठ नहीं दे सकते। सफलता धीरे -धीरे लिए गए पगों की श्रृंखला

है। अपने भविष्य की भविष्यवाणी का ,प्रागुक्ति करने का सबसे अच्छा तरीका अपने भविष्य का निर्माण

करना ही है। हर महान उपलब्धि एक समय असम्भव ही समझी जाती है। मानवीय भावना और मन की शक्ति

और क्षमता को कभी कम मत समझो। गीता के इस अकेले मन्त्र की शक्ति को व्यवहार में लाने  के लिए

अनेक पुस्तकें लिखी गईं  हैं और प्रेरणादायक कार्यपद्धतियों का विकास किया गया है।














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