सत्संग के फूल :स्वामी नलिनानन्द हिन्दू टेम्पिल कैण्टन (मिशिगन )दो दिवसीय सत्संग (दूसरा दिन )
हम एक दूसरे को 'राम राम जी 'ऐसे ही नहीं कह देते हैं इसका सीधा अर्थ है तुझमें भी राम है मुझमें भी राम है । वासुदेव सर्वं इदं। " मैं आप सबको देख पा रहा हूँ क्योंकि आप सबकी छवि मेरी आँख के नेत्रपटल (परदे ,रेटिना )पर है ,आपका सम्मान मेरी आँखों में है आप सबकी आँखों में मेरा सम्मान है। मेरा बिम्ब बन रहा है "-आप मुझमें वासुदेव देख रहे हैं मैं आप में। कोई काला है कोई गोरा कोई नाटा तो कोई लंबा लेकिन प्राण सबमें एक ही है। वासुदेव सर्वं इति।
जब आपको यह अपने जीवन में महसूस होने लगे ,जब आपके जीवन में कोई रागद्वेष न रहे तो इसे भक्ति पथ की पहली सीढ़ी समझ लेना -तुझमें राम ,मुझमें राम ,सबमें राम समाया ,सबसे कर ले प्यार जगत में कोई नहीं पराया।
उद्धरण और कथानकों के माध्यम से स्वामीजी ने अपनी बात को समझाया -
एक बार की बात है द्रोणाचार्य ने एक एक सफ़ेद कागज और पेंसिल युधिष्ठिर और दुर्योधन को देकर ये कहा जाओ जो भी चीज़ (वस्तु या व्यक्ति )तुम्हें अपने आसपास दुनिया भर में कहीं भी बुरी दिखें उनके नाम इस कागज पे लिख के लाओ।
दुर्योधन देखता हुआ कई योजन चला गया ,हर चीज़ उसे बुरी दिखलाई दे। सोचने लगा दुर्योधन ये कागज़ तो बहुत छोटा है किसके किसके नाम लिखूं। सभी चीज़ तो बुरी हैं। कोरा कागज़ लेकर ही गुरु के पास लौट आया।
युधिष्ठिर आगे बढ़े ही थे कि मार्ग में पड़े एक पत्थर से टकरा गए। सोचने लगे इस पत्थर का नाम लिख लूँ ये बुरा है इसने मुझे गिरा दिया। फिर दिमाग के घोड़े खोले युधिठिर ने गहन विश्लेषण किया -इस निष्कर्ष पर पहुंचे इस पत्थर ने मुझे चैतन्य कर दिया कहीं बड़ा होता पत्थर जिससे मैं टकराया होता तो बेहोश हो जाता। ये पत्थर तो बुरा नहीं है।
आगे बढ़े तो देखा एक शूकर(सूअर ) विष्टा (गू )खा रहा है।सोचने लगे ये बुरा है इसका नाम लिख लूँ। मंथन के बाद पाया ये तो बेचारा सफाई कर रहा है उस गंदगी की जो हमने ही फैलाई है। ये बुरा कहाँ है।
और आगे बढ़े तो रास्ते में मल पड़ा था बुरी तरह गंधा भी रहा था बास मार रहा था ,बहुत ही बुरी गंध आ रही थी उसमें से।उस पर युधिष्ठिर का पैर पड़ा और वह गिर पड़े थे। सोचा इसका नाम लिख लूँ गहरे पानी पैठे देखा -फल फूल जो भी हम खाते हैं वह तो अच्छे भले होते हैं। गुड़गोबर तो हम कर देते हैं उनका चंद घंटों बाद इसमें इस बेचारे का क्या दोष है। हाँ एक दोष है ये बे -तरहां गंधा रहा है। गहरे उतर कर अपने ही भीतर सोचा तो पाया ये इसलिए गंधा रहा है कहीं आदमी से इसका दोबारा सम्पर्क न हो जाए एक बार के संसर्ग में तो ये हालत कर दी इसने। आखिरकार युधिष्ठिर भी कोरा कागज लिए लौटा। गुरु देव को बोला इसपे मैं अपना नाम लिख लेता हूँ मार्ग में तो मुझे कुछ बुरा दिखाई ही नहीं दिया।
बुरा जो देखन मैं चला ,बुरा न मिलिया कोय ,
जो मन खोजा आपुनो ,मुझसे बुरा न कोय।
दोनों के दृष्टि कौण अलग थे एक नितांत नेगेटिव दूसरा पॉजिटिव।
स्वामी जी ने एक के बाद एक और एक से बढ़कर एक वृत्तांत सुनाये -एक गुणनिधि नाम का युवक था करता धरता कुछ नहीं था ऊपर से आदतें तमाम बुरी पाले था। चोरी चकोरी गर्दी आवारा करता। पिता ने दुखी होकर एक दिन उसे घर से निकाल दिया। चलते चलते रात हो गई फिर थोड़ा और आगे जाकर उसके रास्ते में एक शिवमंदिर पड़ा। मंदिर में अन्धेरा था इसने अपने कपड़ों को आग लगा दी यह सोचते हुए कि मंदिर में जो भी कुछ प्रकाश होने पर दिखाई देगा उसे चुराकर बेच दूंगा और उन पैसों से अपनी क्षुधा शांत कर लूंगा।
वह भोले भंडारी जो शीघ्र ही खुश हो जाते हैं और इसीलिए आशुतोष (आशु -फ़ौरन ,तोष -तुष्ट ,संतुष्ट ,प्रसन्न हो जाना )कहाते हैं सोचने लगे -यह आधी रात को किसने मुझे प्रकाश का दान दे दिया। शिव ने उसे वरदान दे दिया जा अपने आखिरी जन्म में तू शिव लोक जाएगा पापमुक्त होकर। मृत्यु के बाद मिले -
पहले जन्म में यही बालक एक राजा के यहां पैदा हुआ जिसने इसका नाम रखा दम्भ। दम्भ की एक आदत थी यह जिस भी मंदिर में जाता दीप जलाता अनेकानेक। दीप जलाना इसकी आदत सी हो गई। संस्कार बन गया। अगले जन्म में यही बालक वैश्रवण हुआ। इसका दीप दान करने का संस्कार ,दीप से दीप जलाना जलाते चले जाना इसकी वृत्ति में आ गया इसका स्वभाव बन चला। अपने आखिरी जन्म में यही बालक कुबेर बना। रावण ने इसी कुबेर का जो रावण का बड़ा भाई था युद्ध में इसे परास्त कर पुष्पक विमान छीना था। दस हज़ार वर्षों की तपस्या के बाद इसे तीनों लोकों के खजांची का पद मिला था। आशुतोष इसकी तपश्चर्या से प्रसन्न हो इससे मिलने आये पारवती समेत। कुबेर सोचने लगा -इस देवी ने कितने बरस तपस्या की होगी ,मुझसे भी कहां ज्यादा जो इसे शिव का 24x7 का संग साथ मिला। थोड़ी सी ईर्ष्या भी हुई मन ही मन जिसे माँ पार्वती ने भांप लिया। इसकी तिरछी नज़र पार्वती से छिपी नहीं। उन्होंने शाप दिया जा तेरी वही आँख फूट जाए जिसे तिरछी करके तू मेरी ओर ईर्ष्या से भर कर देख रहा था। शिव ने हस्तक्षेप करते हुए कहा देवी ये बालक तो मन ही मन मलाल कर रहा था सोच रहा था काश मैं भी इतनी साधना कर पाता जितनी उमा ने की है। तुमने इस बेचारे को शाप दे दिया अब इसे कोई वरदान भी तो दो और देवी उमा ने कुबेर को तीनों लोकों का कैशियर बना दिया। एक अलग नगरी अलकापुरी शिवपुरी के ही पास बना दी जहां गन्धर्वों का राजा कुबेर आज भी रहता है।
हमारी वृत्तियाँ बन जाती हैं जो जन्म जन्मांतरों तक हमारे साथ ही यात्रा करती चलती है।
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा ,
जो जस करहिं तसि फल चाखा .
प्रश्नोत्तरी शैली में स्वामीजी ने एकानन ,पंचानन ,चतुरानन ,दसभुज धारी शब्दों की व्याख्या भी की। आरती के स्वरों को भी समझाया -तुम हो एक अगोचर सबके प्राणपति -तुम सबके प्राण हो ,सबमें प्राण हो ,वासुदेव हो ज्योति पिंड स्वरूप लेकिन इन चरम नेत्रों से दिखलाई नहीं देते हो अ -गोचर बने रहते हो। गो माने हमारी जड़ (चमड़े की बनी )इन्द्रियाँ।
एक वृतांत और भी बड़ा रोचक सुनाया -एक बार विंध्याचल ने बड़ी कठोर तपस्या की प्रसन्न हो शिव प्रकट हुए बोले वर मांगो। बोला विंध्याचल मेरा कद हिमाचल (हिमालय )से बड़ा (ऊंचा )कर दो। आशुतोष ने कहा तथास्तु। दो दिन बाद ही विंध्याचल के पीछे बसे लोग जहां सूर्यकी किरणें नहीं पहुँच रही थी त्राहि त्राहि करते शिव के पास पहुंचे।
शिव ने कहा देखता हूँ तुम जाओ मैं कुछ करता हूँ। शिव नीति का देवता है शिव ने युक्ति लगाईं। विंध्याचल के गुरु अगस्त्य के पास गए। उसे सारा वृतां सुनाया। आदेश दिया तुम दक्षिण की ओर निकल जाओ। रास्ते में विंध्याचल मिलेगा। चरण वंदना के लिए तुम्हारी झुकेगा। तुम उसे उठाना मत। कहना ऐसे ही झुके रहो जब तक मैं दक्षिण से न लौटूं। तब से विंध्याचल ऐसे ही झुका हुआ है और अगस्त्य उत्तर से प्रस्थान के बाद दक्षिण ही में बस गए थे।
बुद्धि और नीति का देवता है शिव। उससे नीति सीखो। उसका शिवत्व धारण करो जीवन में। एक ही वरदान मांगों शिव से -भगवन में सम्मान के साथ जिऊँ। सत्य आचरण पर बना रहूँ .
ब्रह्मा ने एक मर्तबा शिव के परीक्षा लेने पर झूठ बोला था पता लगाना था ये ज्योतिर्लिंगम् (शिव ज्योति ),सृष्टि में कहाँ जाकर समाप्त हो जाती है।विष्णु को भी इसी काम के लिए भेजा गया था। विष्णु ने सीधी सच्ची बात कह दी। भगवन मुझे इसका ओर छोर नहीं मिला। ब्रह्माजी दो झूठे गवाह भी अपने साथ ले आये। एक केतकी (एक पुष्प )और दूसरी गाय। देवों के देव महादेव ने ब्रह्मा जी को यह शाप दिया दुनियाभर में तुम्हारे मंदिर कहीं नहीं होंगे। पुष्कर जी (राजस्थान )को छोड़कर ब्रह्मा जी का मंदिर कहीं नहीं है। गाय को शाप दिया जब भी तुम कुछ खाओगी तुम्हारी ही लार उसे दूषित कर देगी , लार टपकेगी। गाय को हाथ में कुछ लेकर खिला कर देख लो आपका हाथ लार से सन जाएगा। केतकी को शाप दिया तुम्हें देवता को नहीं अर्पित किया जाएगा।
एक बार झूठ बोलने के बाद व्यक्ति उसका दंश आजीवन झेलता है। सृष्टि करता ब्रह्मा की क्या नियति ,गति और मन रहा होगा यह झूठ बोलने के बाद।आदमी खुद अपनी ही नज़र में गिर जाता है झूठ बोलकर।
सच सबसे बड़ा है सच पे रहो। सच्चे रहो। सम्मान से रहो। जो सत्य है वही तो शिव है सुन्दर भी वही है।
हरि व्यापक हरि कथा अनंता और यह भी तो -
हरि व्यापक सर्वत्र समाना ,
प्रेम ते प्रकट हीइहिही मैं जाना।
स्वामी जी ने प्रणव ओंकार (ओम )के बारे में बतलाया सभी मन्त्रों को चैतन्य यही ओम प्रदान करता है।
हम एक दूसरे को 'राम राम जी 'ऐसे ही नहीं कह देते हैं इसका सीधा अर्थ है तुझमें भी राम है मुझमें भी राम है । वासुदेव सर्वं इदं। " मैं आप सबको देख पा रहा हूँ क्योंकि आप सबकी छवि मेरी आँख के नेत्रपटल (परदे ,रेटिना )पर है ,आपका सम्मान मेरी आँखों में है आप सबकी आँखों में मेरा सम्मान है। मेरा बिम्ब बन रहा है "-आप मुझमें वासुदेव देख रहे हैं मैं आप में। कोई काला है कोई गोरा कोई नाटा तो कोई लंबा लेकिन प्राण सबमें एक ही है। वासुदेव सर्वं इति।
जब आपको यह अपने जीवन में महसूस होने लगे ,जब आपके जीवन में कोई रागद्वेष न रहे तो इसे भक्ति पथ की पहली सीढ़ी समझ लेना -तुझमें राम ,मुझमें राम ,सबमें राम समाया ,सबसे कर ले प्यार जगत में कोई नहीं पराया।
उद्धरण और कथानकों के माध्यम से स्वामीजी ने अपनी बात को समझाया -
एक बार की बात है द्रोणाचार्य ने एक एक सफ़ेद कागज और पेंसिल युधिष्ठिर और दुर्योधन को देकर ये कहा जाओ जो भी चीज़ (वस्तु या व्यक्ति )तुम्हें अपने आसपास दुनिया भर में कहीं भी बुरी दिखें उनके नाम इस कागज पे लिख के लाओ।
दुर्योधन देखता हुआ कई योजन चला गया ,हर चीज़ उसे बुरी दिखलाई दे। सोचने लगा दुर्योधन ये कागज़ तो बहुत छोटा है किसके किसके नाम लिखूं। सभी चीज़ तो बुरी हैं। कोरा कागज़ लेकर ही गुरु के पास लौट आया।
युधिष्ठिर आगे बढ़े ही थे कि मार्ग में पड़े एक पत्थर से टकरा गए। सोचने लगे इस पत्थर का नाम लिख लूँ ये बुरा है इसने मुझे गिरा दिया। फिर दिमाग के घोड़े खोले युधिठिर ने गहन विश्लेषण किया -इस निष्कर्ष पर पहुंचे इस पत्थर ने मुझे चैतन्य कर दिया कहीं बड़ा होता पत्थर जिससे मैं टकराया होता तो बेहोश हो जाता। ये पत्थर तो बुरा नहीं है।
आगे बढ़े तो देखा एक शूकर(सूअर ) विष्टा (गू )खा रहा है।सोचने लगे ये बुरा है इसका नाम लिख लूँ। मंथन के बाद पाया ये तो बेचारा सफाई कर रहा है उस गंदगी की जो हमने ही फैलाई है। ये बुरा कहाँ है।
और आगे बढ़े तो रास्ते में मल पड़ा था बुरी तरह गंधा भी रहा था बास मार रहा था ,बहुत ही बुरी गंध आ रही थी उसमें से।उस पर युधिष्ठिर का पैर पड़ा और वह गिर पड़े थे। सोचा इसका नाम लिख लूँ गहरे पानी पैठे देखा -फल फूल जो भी हम खाते हैं वह तो अच्छे भले होते हैं। गुड़गोबर तो हम कर देते हैं उनका चंद घंटों बाद इसमें इस बेचारे का क्या दोष है। हाँ एक दोष है ये बे -तरहां गंधा रहा है। गहरे उतर कर अपने ही भीतर सोचा तो पाया ये इसलिए गंधा रहा है कहीं आदमी से इसका दोबारा सम्पर्क न हो जाए एक बार के संसर्ग में तो ये हालत कर दी इसने। आखिरकार युधिष्ठिर भी कोरा कागज लिए लौटा। गुरु देव को बोला इसपे मैं अपना नाम लिख लेता हूँ मार्ग में तो मुझे कुछ बुरा दिखाई ही नहीं दिया।
बुरा जो देखन मैं चला ,बुरा न मिलिया कोय ,
जो मन खोजा आपुनो ,मुझसे बुरा न कोय।
दोनों के दृष्टि कौण अलग थे एक नितांत नेगेटिव दूसरा पॉजिटिव।
स्वामी जी ने एक के बाद एक और एक से बढ़कर एक वृत्तांत सुनाये -एक गुणनिधि नाम का युवक था करता धरता कुछ नहीं था ऊपर से आदतें तमाम बुरी पाले था। चोरी चकोरी गर्दी आवारा करता। पिता ने दुखी होकर एक दिन उसे घर से निकाल दिया। चलते चलते रात हो गई फिर थोड़ा और आगे जाकर उसके रास्ते में एक शिवमंदिर पड़ा। मंदिर में अन्धेरा था इसने अपने कपड़ों को आग लगा दी यह सोचते हुए कि मंदिर में जो भी कुछ प्रकाश होने पर दिखाई देगा उसे चुराकर बेच दूंगा और उन पैसों से अपनी क्षुधा शांत कर लूंगा।
वह भोले भंडारी जो शीघ्र ही खुश हो जाते हैं और इसीलिए आशुतोष (आशु -फ़ौरन ,तोष -तुष्ट ,संतुष्ट ,प्रसन्न हो जाना )कहाते हैं सोचने लगे -यह आधी रात को किसने मुझे प्रकाश का दान दे दिया। शिव ने उसे वरदान दे दिया जा अपने आखिरी जन्म में तू शिव लोक जाएगा पापमुक्त होकर। मृत्यु के बाद मिले -
पहले जन्म में यही बालक एक राजा के यहां पैदा हुआ जिसने इसका नाम रखा दम्भ। दम्भ की एक आदत थी यह जिस भी मंदिर में जाता दीप जलाता अनेकानेक। दीप जलाना इसकी आदत सी हो गई। संस्कार बन गया। अगले जन्म में यही बालक वैश्रवण हुआ। इसका दीप दान करने का संस्कार ,दीप से दीप जलाना जलाते चले जाना इसकी वृत्ति में आ गया इसका स्वभाव बन चला। अपने आखिरी जन्म में यही बालक कुबेर बना। रावण ने इसी कुबेर का जो रावण का बड़ा भाई था युद्ध में इसे परास्त कर पुष्पक विमान छीना था। दस हज़ार वर्षों की तपस्या के बाद इसे तीनों लोकों के खजांची का पद मिला था। आशुतोष इसकी तपश्चर्या से प्रसन्न हो इससे मिलने आये पारवती समेत। कुबेर सोचने लगा -इस देवी ने कितने बरस तपस्या की होगी ,मुझसे भी कहां ज्यादा जो इसे शिव का 24x7 का संग साथ मिला। थोड़ी सी ईर्ष्या भी हुई मन ही मन जिसे माँ पार्वती ने भांप लिया। इसकी तिरछी नज़र पार्वती से छिपी नहीं। उन्होंने शाप दिया जा तेरी वही आँख फूट जाए जिसे तिरछी करके तू मेरी ओर ईर्ष्या से भर कर देख रहा था। शिव ने हस्तक्षेप करते हुए कहा देवी ये बालक तो मन ही मन मलाल कर रहा था सोच रहा था काश मैं भी इतनी साधना कर पाता जितनी उमा ने की है। तुमने इस बेचारे को शाप दे दिया अब इसे कोई वरदान भी तो दो और देवी उमा ने कुबेर को तीनों लोकों का कैशियर बना दिया। एक अलग नगरी अलकापुरी शिवपुरी के ही पास बना दी जहां गन्धर्वों का राजा कुबेर आज भी रहता है।
हमारी वृत्तियाँ बन जाती हैं जो जन्म जन्मांतरों तक हमारे साथ ही यात्रा करती चलती है।
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा ,
जो जस करहिं तसि फल चाखा .
प्रश्नोत्तरी शैली में स्वामीजी ने एकानन ,पंचानन ,चतुरानन ,दसभुज धारी शब्दों की व्याख्या भी की। आरती के स्वरों को भी समझाया -तुम हो एक अगोचर सबके प्राणपति -तुम सबके प्राण हो ,सबमें प्राण हो ,वासुदेव हो ज्योति पिंड स्वरूप लेकिन इन चरम नेत्रों से दिखलाई नहीं देते हो अ -गोचर बने रहते हो। गो माने हमारी जड़ (चमड़े की बनी )इन्द्रियाँ।
एक वृतांत और भी बड़ा रोचक सुनाया -एक बार विंध्याचल ने बड़ी कठोर तपस्या की प्रसन्न हो शिव प्रकट हुए बोले वर मांगो। बोला विंध्याचल मेरा कद हिमाचल (हिमालय )से बड़ा (ऊंचा )कर दो। आशुतोष ने कहा तथास्तु। दो दिन बाद ही विंध्याचल के पीछे बसे लोग जहां सूर्यकी किरणें नहीं पहुँच रही थी त्राहि त्राहि करते शिव के पास पहुंचे।
शिव ने कहा देखता हूँ तुम जाओ मैं कुछ करता हूँ। शिव नीति का देवता है शिव ने युक्ति लगाईं। विंध्याचल के गुरु अगस्त्य के पास गए। उसे सारा वृतां सुनाया। आदेश दिया तुम दक्षिण की ओर निकल जाओ। रास्ते में विंध्याचल मिलेगा। चरण वंदना के लिए तुम्हारी झुकेगा। तुम उसे उठाना मत। कहना ऐसे ही झुके रहो जब तक मैं दक्षिण से न लौटूं। तब से विंध्याचल ऐसे ही झुका हुआ है और अगस्त्य उत्तर से प्रस्थान के बाद दक्षिण ही में बस गए थे।
बुद्धि और नीति का देवता है शिव। उससे नीति सीखो। उसका शिवत्व धारण करो जीवन में। एक ही वरदान मांगों शिव से -भगवन में सम्मान के साथ जिऊँ। सत्य आचरण पर बना रहूँ .
ब्रह्मा ने एक मर्तबा शिव के परीक्षा लेने पर झूठ बोला था पता लगाना था ये ज्योतिर्लिंगम् (शिव ज्योति ),सृष्टि में कहाँ जाकर समाप्त हो जाती है।विष्णु को भी इसी काम के लिए भेजा गया था। विष्णु ने सीधी सच्ची बात कह दी। भगवन मुझे इसका ओर छोर नहीं मिला। ब्रह्माजी दो झूठे गवाह भी अपने साथ ले आये। एक केतकी (एक पुष्प )और दूसरी गाय। देवों के देव महादेव ने ब्रह्मा जी को यह शाप दिया दुनियाभर में तुम्हारे मंदिर कहीं नहीं होंगे। पुष्कर जी (राजस्थान )को छोड़कर ब्रह्मा जी का मंदिर कहीं नहीं है। गाय को शाप दिया जब भी तुम कुछ खाओगी तुम्हारी ही लार उसे दूषित कर देगी , लार टपकेगी। गाय को हाथ में कुछ लेकर खिला कर देख लो आपका हाथ लार से सन जाएगा। केतकी को शाप दिया तुम्हें देवता को नहीं अर्पित किया जाएगा।
एक बार झूठ बोलने के बाद व्यक्ति उसका दंश आजीवन झेलता है। सृष्टि करता ब्रह्मा की क्या नियति ,गति और मन रहा होगा यह झूठ बोलने के बाद।आदमी खुद अपनी ही नज़र में गिर जाता है झूठ बोलकर।
सच सबसे बड़ा है सच पे रहो। सच्चे रहो। सम्मान से रहो। जो सत्य है वही तो शिव है सुन्दर भी वही है।
हरि व्यापक हरि कथा अनंता और यह भी तो -
हरि व्यापक सर्वत्र समाना ,
प्रेम ते प्रकट हीइहिही मैं जाना।
स्वामी जी ने प्रणव ओंकार (ओम )के बारे में बतलाया सभी मन्त्रों को चैतन्य यही ओम प्रदान करता है।
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