'लघुकथा के आयाम ' पुस्तक का लोकार्पण अखिल भारतीय साहित्य परिषद(गुड़गाँव इकाई ) के तत्वावधान में आज दिनांक ७ जनवरी ,२०१५ को संपन्न हुआ। स्थान था गुड़गाँव (हरयाणा )का एससीईआरटी। कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ नन्द लाल मेहता वागीश (अध्यक्ष ,अखिल भारतीय साहित्य परिषद )जी ने की।
रचनाकार थे श्री मुकेश शर्मा। समीक्षक मंडल में थे डॉ योगेश वशिष्ठ , डॉ सविता उपाध्याय ,श्रीमती कृष्ण लता यादव। निवेदित सहभागी थे देहरादून से पधारे कवि एवं समीक्षक श्री असीम शुक्ल। इकाई अध्यक्ष के बतौर डॉ मोहन लाल ने टिप्पणी की। कार्यक्रम अध्यक्ष के बतौर वागीश मेहता जी ने बेहद सार्थक टिप्पणी की।
वागीश जी से उनके घर पर लघुकथा क्या है इस विषय पर मेरी उनसे अनौपचारिक बातचीत भी हुई। प्रस्तुत है सार रूप टिप्पणियों का :
पद्य में जो स्थान दोहे का है गद्य में वही लघुकथा का है।
कथा का संबंध 'धी ' से है जो जीवन का सकारात्मक मूल्य बोध संबंधी पक्ष प्रस्तुत करती है। कहानी में एक साथ सब अच्छा बुरा ,विविधता लिए रहता है। लघुकथाकार लगातार एक पीड़ा में जीता है।
अपनी अध्यक्षीय टिप्पणी में वागीश जी ने कहा यहां लघुकथा के उपकरणों की बात न होकर परम्परित बात ही हुई है। रचना का मर्म ,रचनात्मकता किसी भी समीक्षक से बड़ी होती है। रचना का पहला समीक्षक खुद रचनाकार ही होता है। लघुकथा कथा का संक्षिप्ततर कथात्मक रूप माना जाता है। साहित्य में एक विधा के बतौर हाइकु एवं क्षणिकाओं को अभी वह मुकाम हासिल न हो सका है जो लघुकथा का है।
रचना सदैव ही रचनाकार से बड़ी होती है। वागीश ने कहा -लघु कथा में कथ्य (essence of statement )होता है कथानक नहीं। सर्प जब दन्त मारता है तो पलट जाता है। लघुकथा वही करती है। जैसे तकुए की चुभन देर तक दर्द देती है वैसे ही लघु कथा भी अपना दंश छोड़ती है।
१९७५ में लघुकथा उन लोगों के लिए जो कहानी नहीं लिख पाते थे कहानी के रूपतंत्र को नहीं जानते थे , साहित्य प्रवेश का सहज द्वार बनी। इस दौर में साहित्य के विकल्प का सहज रूप बनी लघुकथा कुछ ऐसा नहीं कर सकी जो समीक्षा के योग्य हो। इसीलिए समीक्षकों ने इस विधा की अनदेखी की। अपनी अनुभूत विसंगतियों को कथा का रूप दे दो। क्योंकि कहानी का रचना विधान थोड़ा कठिन होता है ,जो लोग कहानी लिख नहीं सकते थे वे लघुकथा में चले ज़रूर आये लेकिन कोई प्रतिमान नहीं खड़े कर सके। इसीलिए आलोचकों पर ये आरोप लगा कि वे लघुकथा की अनदेखी कर रहें हैं। जबकि वस्तुस्थिति ये नहीं थी।
रचनाकार थे श्री मुकेश शर्मा। समीक्षक मंडल में थे डॉ योगेश वशिष्ठ , डॉ सविता उपाध्याय ,श्रीमती कृष्ण लता यादव। निवेदित सहभागी थे देहरादून से पधारे कवि एवं समीक्षक श्री असीम शुक्ल। इकाई अध्यक्ष के बतौर डॉ मोहन लाल ने टिप्पणी की। कार्यक्रम अध्यक्ष के बतौर वागीश मेहता जी ने बेहद सार्थक टिप्पणी की।
वागीश जी से उनके घर पर लघुकथा क्या है इस विषय पर मेरी उनसे अनौपचारिक बातचीत भी हुई। प्रस्तुत है सार रूप टिप्पणियों का :
पद्य में जो स्थान दोहे का है गद्य में वही लघुकथा का है।
कथा का संबंध 'धी ' से है जो जीवन का सकारात्मक मूल्य बोध संबंधी पक्ष प्रस्तुत करती है। कहानी में एक साथ सब अच्छा बुरा ,विविधता लिए रहता है। लघुकथाकार लगातार एक पीड़ा में जीता है।
अपनी अध्यक्षीय टिप्पणी में वागीश जी ने कहा यहां लघुकथा के उपकरणों की बात न होकर परम्परित बात ही हुई है। रचना का मर्म ,रचनात्मकता किसी भी समीक्षक से बड़ी होती है। रचना का पहला समीक्षक खुद रचनाकार ही होता है। लघुकथा कथा का संक्षिप्ततर कथात्मक रूप माना जाता है। साहित्य में एक विधा के बतौर हाइकु एवं क्षणिकाओं को अभी वह मुकाम हासिल न हो सका है जो लघुकथा का है।
रचना सदैव ही रचनाकार से बड़ी होती है। वागीश ने कहा -लघु कथा में कथ्य (essence of statement )होता है कथानक नहीं। सर्प जब दन्त मारता है तो पलट जाता है। लघुकथा वही करती है। जैसे तकुए की चुभन देर तक दर्द देती है वैसे ही लघु कथा भी अपना दंश छोड़ती है।
१९७५ में लघुकथा उन लोगों के लिए जो कहानी नहीं लिख पाते थे कहानी के रूपतंत्र को नहीं जानते थे , साहित्य प्रवेश का सहज द्वार बनी। इस दौर में साहित्य के विकल्प का सहज रूप बनी लघुकथा कुछ ऐसा नहीं कर सकी जो समीक्षा के योग्य हो। इसीलिए समीक्षकों ने इस विधा की अनदेखी की। अपनी अनुभूत विसंगतियों को कथा का रूप दे दो। क्योंकि कहानी का रचना विधान थोड़ा कठिन होता है ,जो लोग कहानी लिख नहीं सकते थे वे लघुकथा में चले ज़रूर आये लेकिन कोई प्रतिमान नहीं खड़े कर सके। इसीलिए आलोचकों पर ये आरोप लगा कि वे लघुकथा की अनदेखी कर रहें हैं। जबकि वस्तुस्थिति ये नहीं थी।
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