भक्ति सीखनी है तो संतों के पास जाना पड़ेगा
सतसंग भी संक्रामक होता है ,शुभ भी संक्रामक होता है ,अशुभ भी। आज कथा से पूर्व हम मीरा जी का थोड़ी देर दर्शन करेंगे ,उनकी चर्चा करेंगे।भक्तिमती मीरा जी को किसी ने भक्ति की मानसरोवर कहा है तो किसी ने -
मीरा जी को भक्ति की गंगोत्री ,भाव की सागर कहा है। किसी ने विरह का महासागर ,भक्ति प्राप्त करनी है तो संतों के पास जाना ही पड़ेगा। मीरा को गाया जा सकता है ,नांचा जा सकता है,बखान नहीं किया जा सकता।
सिर्फ संतों से कृष्ण कथा सुन -सुन कर मीरा कृष्ण की दीवानी हो गईं थीं । कृष्ण के प्रेम में मीरा बालवत रोती और बिलखती हैं ।
तुम्हें जो कहना है कहो मुझे जो करना है वह मैं करूंगी।
"लोग कहें मीरा भई बावरी ,
सास कहे कुलनाशी रे
पग घुंघरू बाँध मीरा नांची रे "
-प्रेमियों को लोग बावरा ही कहते हैं।
द्वापर की एक गोपी होतीं हैं मीरा जी जब भगवान् कृष्ण का अवतार हुआ था लेकिन उस समय फूल ,पूरा खिल नहीं सका था।अधूरा रह गया था । जिस समय गोवर्धन लीला भगवान् ने की उस समय पूरा ब्रिज (ब्रज )मंडल गिरीराज जी में आता है इनकी सास इनको जाने नहीं देती। कहती है मीरा -तुम घर की हिफाज़त करो।यहीं घर पर रहो। तुम वहां नहीं जाओगी।
मीरा के जन्म की कथा भी -बड़ी मार्मिक है जिसका उल्लेख ऊपर हुआ है। आगे की कथा इस प्रकार है। भगवान् ने इनकी विरह अग्नि देख स्वप्न में इनसे बात की ,मैं तुमसे वायदा करता हूँ तुम्हें पूरा अवसर दूंगा जो तुम चाहोगी वही होगा।
"हाँ तुम नांच सकोगी रो सकोगी मुझे लेकर मेरे विरह में "-मीरा इसी भाव से वह चोला (शरीर )छोड़ देती हैं भगवान् के आश्वाशन के साथ ।
"प्रभु बंधन मुक्त जन्म देना" -कहते हुए
-जहां मैं नांच सकूं आपके प्रेम में।आपके गीत बिना लोक लाज के गा सकूँ वहां जान देना । और मीरा जी ने यह कहते हुए प्राण छोड़ दिए इसी भाव को लिए।
मेड़ता (जोधपुर )में इनका जन्म हो गया। कंटीले रेतीले प्रदेश (राजस्थान )में। एक बार एक संत इनके घर आये। भगवान् कृष्ण की एक सुंदर छोटी सी प्रतिमा ये संत अपने साथ रखते थे।मीरा जी इनके कमरे में खेलते -खेलते आ गईं। तब इनकी उम्र केवल पांच बरस थी।मीरा की छोटी सी बेहद खूबसूरत श्याम की मूरत पर नज़र पड़ी।
बालिका मीरा ने ज़िद पकड़ ली ये मूर्ती मुझे दो मेरे श्याम की है। मीरा के अवचेतन मन से साढ़े चार हज़ार बरस की स्मृतियाँ निकल कर उनकी चेतना में तैरने लगीं।
संत ने वह गिरधर गोपाल की मूर्ती मात्र बाल हठ मानकर देने से साफ़ इंकार कर दिया और अपने निवास स्थान को लौट गए। इधर मीरा बालिका ने तीन रोज़ तक अन्न ग्रहण नहीं किया। रोती बिलखती ही रही बालिका। चौथे दिन संत जी को स्वप्न में भगवान् ने आकर कहा। यह मूर्ती जिसकी है उसे दे दो। तुम्हारा संग साथ इस मूर्ती के साथ पूरा हुआ। तुम्हारा रोल पूरा हुआ इतना ही था। संत हड़बड़ाकर उठे और प्रात : की वेला का इंतज़ार करने लगे।
पौ फटते ही मेंड़ता के लिए चल पड़े मीरा जी से क्षमा मांगी आशीर्वचन भी कहा -बेटी भजन हमने किया ,लेकिन फल तुम्हें प्राप्त हुआ। बीज हमने बोया लेकिन फूल तुम्हारे घर खिला।
मीरा के बचपन की ही एक और घटना है जिसने बालिका मीरा के जीवन की दिशा ही बदल दी। एक बार एक बरात इनके घर के आगे से जा रही थी। दादी के साथ ये बरात देखने घर के दरवाज़े पर आ गईं। सहज भाव दादी से पूछने लगीं दादी मेरा ब्याह (विवाह )किससे होगा।दादी ने बालिका को बहकाते हुए कह दिया लाड़ में -तेरा विवाह इस घनश्याम से होगा जिसकी प्रतिमा तू सीने से लगाए घूमती है।
अब मीरा की "प्रेमा- भाव" की भक्ति जागृत हुई मीरा सचमुच कृष्ण को अपना पति मानने बूझने लगीं ।मीरा का विवाह मेवाड़ के राणा भोजराज जी से हुआ (जिन्हें सिर्फ राणा जी भी कहा जाता था। भांवरों के वक्त भी इन्होने भगवान् की मूर्ती अपने पास छिपाई हुई थी अपने सीने से लगाई हुई थी।
राणा जी इनका बहुत आदर करते थे। जल्दी ही उन्हें पता चल गया यह कोई दिव्यअवतार हैं इस लोक से इनका कोई लेना देना नहीं हैं।मीरा गाते गाते हवेली से बाहर निकल आतीं ,संतों में चलीं आतीं ,गाँव के मंदिर में कीर्तन करने लगतीं। यह सब कुछ सुसराल वालों को बड़ा अटपटा लगा। लेकिन भोजराज जी सब समझ गए थे। एक दिन उन्होंने मीरा जी से कहा -हम को भी भगवान् के दर्शन कराओ -मीरा जी कहने लगीं ऐसा हो तो सकता है लेकिन फिर हमारा आपका पति पत्नी का यह लौकिक सम्बन्ध समाप्त हो जाएगा। राणा जी सोचने लगे ये शरीर तो जाएगा ही जाएगा, आज नहीं कल ,भगवान् के दर्शन कर लो और राणा जी ने हामी भर दी.
भगवान को राणा जी ने जैसे ही देखा शरीर छोड़ दिया।
अब मीरा के ऊपर राणा विक्रम सिंह ने कहर बरपा -ये जो बहुत ही क्रूर शासक थे और मीरा जी से बेहद खफा रहते थे तरह तरह से इन्हें सताने के लिए बाकी परिवारियों और अन्य कर्मियों से कहा।
मीरा ने मौन व्रत ले लिया।
रहिमन चुप घर बैठिये देख दिनन के फेर
एक बार चरणामृत है कहकर पुजारियों की मिलीभगत से इन्हें विष का प्याला पीने के लिए दिया गया। मीरा जानतीं थी ये विष है लेकिन उन्होंने कहा घनश्याम आज इस रूप में इस प्याले में आ गए। और सचमुच उस कथित चरणामृत के प्याले में इन्हें कृष्ण का श्याम रूप उनके सांवले सलोने नेत्र दिखलाई दिए।
जहर पीया मीरा ने यहां और वहां द्वारका में झाग कृष्ण के मुख से आने लगे। मीरा के पास जो श्याम सुंदर की मूर्ती थी वह थोड़ी और काली पड़ गई।मीरा ज़िंदा रहीं मरी नहीं।
अब विक्रम सिंह ने नित्य नै नै युक्तियाँ सोचनी शुरू कीं । एक षड्यंत्र के तहत काला नाग (कोबरा )दिवाली की भेंट स्वरूप मीरा तक पहुंचाने का सोच लिया।
भक्त को देख कर जहरीले जंतु भी अपना स्वभाव बदल लेते हैं। कोबरा भेंट किया गया था मीरा जी को राणा विक्रम द्वारा दिवाली पर छल छद्म से ,पूर्व में जहर का प्याला चरणामृत बतलाकार दिया गया था। मीरा फिर बच गईं।सांप संतों से कुछ नहीं कहते वे जानते हैं ये तो प्रेम के पात्र हैं। सांप छोटे बच्चे को भी कभी नहीं डसते।सर्प आदमी की तरह खतरनाक नहीं होते , शंकर जी इसी लिए भोले नाथ कहलाते हैं जिनके गले में सर्प मालाएं झूलतीं हैं ,जो हँसते -हँसते विषपान कर गए थे और अमृत देवताओं तक पहुंचा था।
विष भी अमृत बन जाता है असाधारण पात्र में आकर। और अमृत भी विष बन जाता है विकार युक्त पात्र में आ कर ,यही मीरा जी के जीवन का सन्देश है।
नींद आनी बंद हो गई मीरा जी को गिरधर के विरह में -
नींद नसानी होय मेरी ,
सखी री मेरी नींद न सानी हो।
ज्यों चातक घन कू रटै ,
मछली बिन पानी हो ,सखी री मेरी ,
सखी री मेरी नींद न सानी हो।
अंतर- वेदन विरह की, पीड़ न जानी कोय ।
अंग अंग व्याकुल भई,
दासी मीरा विरह की सुध बुध बिसरानी हो ,
सखी री मेरी नींद न सानी हो।
तीन दिन से मीरा सोयी नहीं हैं प्रेम - विरह की ज्वाला में ,सखी को अपनी व्याकुलता बतलाती हैं -अब उनको कोई गफलत नहीं है -सब कुछ स्पष्ट हो गया है नींद इन अर्थों में उड़ी है। मीरा जाग गईं हैं।
ये वेदना वह है जिससे जीवन में ज्ञान का जन्म होता है धर्म का जन्म होता है वेद का जन्म होता है। वेद का मतलब ज्ञान ही तो होता है।
दोनों सखियाँ बात कर रहीं थी। (वास्तव में मीरा कृष्ण की मूर्ती से अपने कक्ष में बातें करतीं थीं। किसी ने राणा विक्रम सिंह जी से शिकायत की राणा आधी रात को उठकर तलवार लेकर मीरा के कक्ष में आ गए -पूछा कौन पुरुष था तुम्हारे कक्ष में ?
मीरा ने कहा मैं किसी पुरुष से नहीं परमपुरुष से बात करती हूँ राणा जी क्रोध में थे ठाकुर जी को उठाया और झील में फेंक दिया। पीछे -पीछे मीरा ने भी झील में छलांग लगा दी कहते हैं इसके बाद मीरा जी और गिरधर गोपाल की वह मूरत ,दोनों मथुरा -वृन्दावन की यमुना में प्रकट हुए। साढ़े चार हज़ार वर्ष पुरानी लीलाएं मीरा को याद आने लगीं। ललिता जी (राधा जी की ख़ास सखी )सब कुछ पूछने लगीं -ये गोवर्धन तुम्हें याद है ये वंशीवट तुम्हें अभी भी याद है ,ये निधि वन तुम्हें याद है ?
मीरा मन ही मन सोचने लगीं जब उन्हें सेवकों ने निधिवन में आने से रोका :
ब्रज में केवल एक पुरुष है कृष्ण -ये दूसरा कहाँ से आ गया जो मेरा प्रवेश निधि वन में रोक रहा है ?रूपगोस्वामी रहते थे उन दिनों निधि वन में, जिनका आदेश था निधिवन में किसी महिला को प्रवेश न करने दिया जाए।
राणा ने यहां वृन्दावन में भी अपने लोगों को भेजकर मीरा को बहुत सताया आखिर में मीरा वृन्दावन भी छोड़कर द्वारिका चली गईं। इसी बीच विक्रम राणा की मृत्यु हो गई।
अब राणा उदय सिंह जी ,जो पूजा पाठ की वृत्ति वाले महात्मा थे, और सबसे बड़े भी थे लेकिन विक्रम सिंह के आगे उनकी एक नहीं चलती थी सब कुछ काम संभालने लगे। सारा राज कारज सम्भाला।
मीरा को मेवाड़ वापस लाने के लिए राणा उदय सिंह कहते हैं हम लोग तो इस काबिल भी नहीं रहे उन्हें वापस आने के लिए कहें हमारे विक्रम राणा और उनके साथियों ने मिलकर उन्हें इतना सताया है हम उन्हें किस मुंह से वापस आने के लिए कहें। हम लोग तो मेड़ता वासी मुंह दिखाने लायक भी न बचे।
सब लोग द्वारका पहुँचते हैं.वहां पहुंचकर अन्न जल लेना भी छोड़ देते हैं समस्त मेड़ता वासी -प्रायश्चित स्वरूप ,के बस किसी प्रकार मीरा जी वापस लौट आएं।मेवाड़ अपनी सुसराल।
मीरा जी कहतीं हैं मैं वहां वापस नहीं आ सकती अब, जहां अधर्म हो ,साधु संतों का अपमान हो ,उदय सिंह जी के हृदय के भाव से किया गया प्रायश्चित मीरा बाई नज़रअंदाज़ नहीं कर पातीं कहने लगी है ठीक है में द्वारकाधीश जी से पूछती हूँ :
बनवारी रे जीने का सहारा तेरा नाम रे ,
मुझे दुनिया वालों से क्या काम रे ।
गाते हुए मीरा जी मंदिर के गर्भ गृह में पहुँच गईं हैं। और जैसे ही मीरा जी ने हाथ उठाकर कहा -
मेरी बांह पकड़ लो श्याम रे ......
अगर आपने नहीं पकड़ीं तो ये दुनिया वाले मुझे खींच के ले जायेंगे। मूर्ती का हाथ आगे बढ़ता है और मीरा मूर्ती में समा जातीं हैं।
मीरा कृष्ण में से ही प्रकट हुईं थीं ,उन्हीं के लिए जीवित रहीं और अंततया उन्हीं में समा गईं।उदय सिंह राणा फूट -फूट कर रोते हैं जब मंदिर के पुजारी बतलातें हैं मीरा तो कृष्ण में समा गईं।
इसे विज्ञान के नज़रिये से मत परखिये भाव की दृष्टि से देखिये मीरा का विलोपन अप्रकटन ,अव्यक्त होना। आत्मा का परमात्मा में लीन होना है।
आइये अब राम कथा के ज़ारी प्रसंग में प्रवेश करते हैं :
इधर राम के अभिषेक की तैयारी ज़ोरशोर से चल रहीं हैं उधर देवताओं में सुगबुगाहट के साथ एक षड्यंत्र चल रहा है।
देवता सरस्वती को बुलाकर कहते हैं किसी भी हालत में यह राज्याभिषेक नहीं होना चाहिए ,परमार्थ के लिए थोड़ा अपयश भी लेना पड़े तो कोई हर्ज़ नहीं तुम विघ्न पैदा करो अयोध्या में जाकर।
सरस्वती सोचतीं हैं किसकी बुद्धि बिगाड़ू ये तो धर्म नगरी है अंत में दृष्टि मंथरा पर जाती है जो कैकई के दहेज में आई थी।
मंथरा स्त्री नहीं है कुसंग है। अयोध्या नगरी में कुसंग भी घुसा हुआ है वह भी उसके घर में जिसके घर में स्वयं भक्ति रानी सीता जी हैं भगवान बेटा बन के आते हैं ,भरत जी जैसे तपस्वी मौजूद हैं ,लक्ष्मण जी जैसा काल रूप अनंत शेष मौजूद है। कथा का सन्देश यह है कुसंग किसी भी घर को नहीं छोड़ता है जब अयोध्या के दशरथ परिवार को नहीं छोड़ता तो हमारे आपके परिवारों को कैसे छोड़ सकता है।
अयोध्या को अनाथ करवा दिया इसी मंथरा ने और इसका कोई बालबाँका भी न कर सका। एक बार अगर जीवन में कुसंग प्रवेश कर गया फिर जाता नहीं है। जिसके हाथ में एक बार रंगीन बोतल आ गई पत्नी रो रोके बर्बाद हो जायेगी बोतल नहीं छुड़वा सकती।
सतसंग न करो चलेगा लेकिन कुसंग मत करिये -भगवान् श्री राम इस बात को बोल रहे हैं विभीषण को :
बरु बलवात नरक करि भ्राता,
दुष्ट संग जेहि देहि विधाता।
जिस कार्य को करते समय जिस आचरण को ,क्रियाको ,व्यवहार को करते समय मन के किसी कौने में यह बात आने लगे कोई देख लेगा तो क्या कहेगा -ये ही कुसंग है ,लाल बत्ती है इसका आदर करिये। लाल बत्ती बोलती है इसकी अनदेखी करोगे तो मरोगे।
कैकई मामूली स्त्री नहीं है जिसके गर्भ से भरत जैसे महा -तपस्वी पैदा हुए जो चारों युगों में केवल एक बार ही आता है केवल त्रेता में ही आता है ऐसा तपस्वी और किसी युग में एक बार भी नहीं आता है ।
भगवान् श्री राम ने कभी कौशल्या जी का दूध नहीं पीया कैकई का ही पीया है ,बचपन में ये दोनों बालक राम और भरत रूप साम्य होने की वजह से ही बदल जाते थे। इसीलिए भरत ने हमेशा कौशल्या जी का और राम ने कैकई का ही दूध ज्यादा पीया है।
जिसके हृदय से भगवान् लगे रहे उसकी भी बुद्धि बिगाड़ी जा सकती है ये कुसंग ऐसा है।
"मुझे प्रमाण दीजिये कैकई से कहतीं है मंथरा बारबार "-मुझे प्रमाण दीजिये कौशलया माँ चतुर चालाक कुटिल नहीं है।
कैकई एक झाँपड़ रसीद करतीं हैं कहते हुए प्रमाण मांगती है जिसकी कोख से भगवान् राम प्रकट हुए हैं वह कौशल्या माँ तुझे कुटिल दिखाई देतीं हैं।
लेकिन थप्पड़ खाकर भी मंथरा हार नहीं मानती कहती है आपका नमक खाया है मैंने और मार लो बेशक और अपनी खुद की कुटिलता को वजन देने के लिए और भी ज्यादा जी जान से जुट जाती है।
सौत (कौशल्या )की सेवा करने से अच्छा है अलग रहो भरत के साथ ,राम के लिए वनवास की मांग करो।भरत के लिए राज्याभिषेक।
कुसंग कैकई को 'कनक -भवन' से 'कोप -भवन' में भेज देता है।
कुसंग यही करता है।
"कोप भवन सुनी सकुचै राऊ " .........
तुलसीदास कहते हैं 'काम' का प्रभाव देखिये राम राज्य अभिषेक से पहले जाना चाहिए था दशरथ जी को कौशल्या के पास आ गए कैकई के पास जो कोप भवन में पड़ी हुई है।
एक बे -अदबी दशरथ जी ने वशिष्ठ जी को राजमहल में बुलाकर की थी राम को सन्देश भिजवाने के लिए के जाओ राम को उपदेश करके आओ।बतलाओ -कल तुम्हारा राज्याभिषेक है आज की रात संयम से रहना।
भेजना तो राम को गुरु के पास था के जाओ गुरु का आशीर्वाद लेकर आओ -कल तुम्हारा राज्याभिषेक है। काम उलटा ही किया गुरु वशिष्ठ को ही बुला भेजा राम के भवन में संदेशा लेकर जाने के लिए।
रघुकुल रीति सदा चली आई ,
प्राण जाए पर वचन न जाई। .......
मांगों क्या मांगती हो रानी- कोप भवन से निकल के-दशरथ मनुहार करते हुए बोलते हैं। हम रघुवंशी हैं राम की कसम खाकर कहते हैं जो तुम मांगोगी वही वर दे देंगे।
ठीक उसी समय कौशल्या जी आरती का थाल लेकर पूजा घर की ओर जाती हैं के आरती का थाल उनके हाथ से गिर गया यह एक बड़ा अपशकुन था। महल के द्वार तिरछे होने लगे।अयोध्या का भाग्य उससे रूठने लगा।
मेरा पहला वरदान भरत को अयोध्या का राज्य।दूसरा वरदान राजन मेरा ध्यान से सुनना -तपस्वी वेश में उदासीन व्रत लेकर राम को चौदह बरस का वनवास।
दशरथ जी भूमि पर गिर गये कहने लगे तुमने क्या कहा मैं ठीक से सुन नहीं पाया -दोबारा कहिये।
दशरथ पत्थर की मूर्तीवत हो गए कैकई का हाथ उनके हाथ से छूट गया। बोले रानी तुझे पाप लग जाएगा -ऐसा कठोर वर मत मांग। महाराज ने कैकई के मुख पे हाथ रख दिया -मुझे पहले वरदान में कोई दिक्कत नहीं है लेकिन दूसरा वरदान तुमने कैसे मांग लिया। राम से ऐसा क्या अपराध हो गया कल तो तुम कहती थी राम का अभिषेक करो हम दोनों वन में जाकर रहेंगे। मैं राम की तरफ से क्षमा मांग लूंगा। मुझे प्राण भीख में दे दो ,गऊ की हत्या मत करो मैं तुम्हारी काली गाय हूँ। कैकई धक्का दे देती है दशरथ जी को -
नहीं देना था वरदान तो क्यों महादानी बनने का नाटक कर रहे थे।
कटे पंख के पक्षी से महाराज चिल्ला रहे हैं हे महाकाल भगवान् ,हे शंकर भगवान् आज मुझे एक वरदान दे दीजिये मेरे बेटे से कह दो मेरी बात आज न माने।
प्रात : काल सुमंत आये हैं और सारा षड्यंत्र राम को बताते हैं। कैकई के भवन में जाकर राम कैकई से पूछते हैं मुझे बताइये हमारे पिता क्यों आज इतने व्यथित हैं जिसके चार चार बेटे हों वह आज इतना दुखी क्यों हैं मुझे बताओ पिता जी के दुःख का कारण क्या है। ऐसा कौन सा दुःख आ गया जिस ने इनकी ये हालत बना दी।
अगली सुबह सारी अयोध्या नगरी विलाप करने लगी। कौशल्या जी को कुछ पता नहीं है राम उनकी आज्ञा लेने जा रहे हैं वनवास की घटना बताने से पहले। सुमंत का लड़का राम जी के साथ था जिसने सारी घटना कौशल्या जी को बताई।
देखो राम अगर ये बात सिर्फ तुम्हारे पिता ने कही होती ,मैं इसे इतना वजन न देती ,कैकई तेरी माता हैं अगर ये बात दोनों माँ और पिता ने कही है तो तुम जाओ। उनकी आज्ञा का पालन करो।
अब जानकी जी चिंतित हो राम से पूछती हैं इस संकट के बारे में। राम कहते हैं मेरी माँ को जीवित रखना मेरे पीछे अपनी सेवा से।
जानकी जी बोलीं प्रभु आपको मालूम है मैं कौन हूँ ?
मैं आपकी छाया हूँ।
जिय बिनु देह नदी बिन वारि ,
तैसीहि नाथ पुरुष बिन नारी।
पति के बिना पत्नी वैसे ही अर्थहीन है जैसे नदी जल के बिना ,प्राण के बिना शरीर।इतने में ही लक्ष्मण जी भी आ गए -बोले भगवान् आप किसे समझा रहे हैं मेरे तो माता पिता सिर्फ आप ही हैं मैं किसी पिता दशरथ और माता सुमित्रा को नहीं जानता।
बड़ा रोचक प्रसंग है लक्ष्मण जी के जन्म के बारे में पैदा तो चारों बच्चे एक साथ ही लगभग लगभग हुए थे लेकिन पैदा होने के बाद लक्ष्मण जी ने कई दिनों तक न आँख खोली न दूध पीते थे ,बेहद रोते रहते थे न सोते थे न दूध पीते थे बस रोना ही रोना।
सुमित्रा जी चिंतित होकर लक्ष्मण जी को लेकर गुरु वशिष्ठ जी के पास गईं ,सारी बात बतलाई। गुरु ने लक्ष्मण जी को ध्यान से देखा और बोले अरे !ये तो शेषनाग है भगवान् राम की शैया है राम से अलग सोयेगा कैसे। इसे राम की शैया पर ही सुलाओ।उनका अंगूठा इनके मुंह में दो तभी ये सोयेगा बालक और दूध भी तभी पीयेगा ,और हुआ भी ऐसा ही।जब कभी अंगूठा मुंह से निकल जाता था लक्ष्मण जी रोने लगते थे। आज यही घटना लक्ष्मण जी भगवान् को याद दिला रहे हैं कहते हुए मैं आपके बिना जीवित नहीं रह सकूंगा। राम जी आखिर में कहते हैं अच्छा ठीक है माँ सुमित्रा जी से आज्ञा लेकर आओ वह आज्ञा दे देवें तो चलो तुम भी।
सुमित्रा बोलीं मैं तो तेरी देह की माँ हूँ
" तात! तुम्हारी मातु वैदेही ,
पिता राम ,सब भाँती स्नेही ,
अवध तहाँ जहां राम निवासु ,
तहिं दिवस जहां भानु परतापु। "
तेरी शाश्वत माँ वैदेही हैं जिनका न जन्म है न मृत्यु हैं जो शाश्वत हैं।यहां घर में तुम्हारा कोई काम नहीं है हमारे पास महल में , जाओ माँ जानकी और भगवान् के साथ उनकी सेवा करो। मैं तो तुम्हारी धरोहर की माँ हूँ क्योंकि तुम मेरे गर्भ में आये तुम्हारे शाश्वत माता पिता राम और वैदेही ही हैं। भगवान् कैकई जी की आज्ञा से वन नहीं जा रहे हैं :
तुमरै भाग राम वन जाई ,
दूसर हेतु तात कछु नाहिं ।
तुझे मालूम नहीं ,मुझे मालूम हैं बोली सुमित्रा जी लखन से ,तू शेष नाग का अवतार है धरती तेरे सिर पर है ,भगवान् तेरे सिर का ही भार कम करने जा रहे हैं,पृथ्वी पर पाप का बोझ बहुत बढ़ गया है ,उसे कम करने के लिए ही भगवान् वन जा रहे हैं। तुझे मेरे दूध की कसम हैं दोनों की सेवा में कोई विकार स्वप्न में भी न आये। लक्ष्मण जी बोले माँ में जागृत अवस्था का तो वचन देता हूँ सोते हुए व्यक्ति को कुछ इल्म नहीं रहता कोई विकार उससे हो सकता है इसलिए मैं सौगंध लेता हूँ जब तक भगवान् वन में रहेंगे मैं सोऊंगा नहीं।यहां से लक्ष्मण जी उर्मिला को मिलने जाते हैं वह प्रसंग अति मार्मिक है जिसका वर्रण कथा के अगले अंक में होगा।
जयश्रीराम !जयसियाराम !
"तापस वेश विशेष उदासी ,
चउदह बरस राम वनवासी। "
सन्दर्भ -सामिग्री :
(२ )
(१ )https://www.youtube.com/watch?v=AVs6_18RjIc
(२ )
सतसंग भी संक्रामक होता है ,शुभ भी संक्रामक होता है ,अशुभ भी। आज कथा से पूर्व हम मीरा जी का थोड़ी देर दर्शन करेंगे ,उनकी चर्चा करेंगे।भक्तिमती मीरा जी को किसी ने भक्ति की मानसरोवर कहा है तो किसी ने -
मीरा जी को भक्ति की गंगोत्री ,भाव की सागर कहा है। किसी ने विरह का महासागर ,भक्ति प्राप्त करनी है तो संतों के पास जाना ही पड़ेगा। मीरा को गाया जा सकता है ,नांचा जा सकता है,बखान नहीं किया जा सकता।
सिर्फ संतों से कृष्ण कथा सुन -सुन कर मीरा कृष्ण की दीवानी हो गईं थीं । कृष्ण के प्रेम में मीरा बालवत रोती और बिलखती हैं ।
तुम्हें जो कहना है कहो मुझे जो करना है वह मैं करूंगी।
"लोग कहें मीरा भई बावरी ,
सास कहे कुलनाशी रे
पग घुंघरू बाँध मीरा नांची रे "
-प्रेमियों को लोग बावरा ही कहते हैं।
द्वापर की एक गोपी होतीं हैं मीरा जी जब भगवान् कृष्ण का अवतार हुआ था लेकिन उस समय फूल ,पूरा खिल नहीं सका था।अधूरा रह गया था । जिस समय गोवर्धन लीला भगवान् ने की उस समय पूरा ब्रिज (ब्रज )मंडल गिरीराज जी में आता है इनकी सास इनको जाने नहीं देती। कहती है मीरा -तुम घर की हिफाज़त करो।यहीं घर पर रहो। तुम वहां नहीं जाओगी।
मीरा के जन्म की कथा भी -बड़ी मार्मिक है जिसका उल्लेख ऊपर हुआ है। आगे की कथा इस प्रकार है। भगवान् ने इनकी विरह अग्नि देख स्वप्न में इनसे बात की ,मैं तुमसे वायदा करता हूँ तुम्हें पूरा अवसर दूंगा जो तुम चाहोगी वही होगा।
"हाँ तुम नांच सकोगी रो सकोगी मुझे लेकर मेरे विरह में "-मीरा इसी भाव से वह चोला (शरीर )छोड़ देती हैं भगवान् के आश्वाशन के साथ ।
"प्रभु बंधन मुक्त जन्म देना" -कहते हुए
-जहां मैं नांच सकूं आपके प्रेम में।आपके गीत बिना लोक लाज के गा सकूँ वहां जान देना । और मीरा जी ने यह कहते हुए प्राण छोड़ दिए इसी भाव को लिए।
मेड़ता (जोधपुर )में इनका जन्म हो गया। कंटीले रेतीले प्रदेश (राजस्थान )में। एक बार एक संत इनके घर आये। भगवान् कृष्ण की एक सुंदर छोटी सी प्रतिमा ये संत अपने साथ रखते थे।मीरा जी इनके कमरे में खेलते -खेलते आ गईं। तब इनकी उम्र केवल पांच बरस थी।मीरा की छोटी सी बेहद खूबसूरत श्याम की मूरत पर नज़र पड़ी।
बालिका मीरा ने ज़िद पकड़ ली ये मूर्ती मुझे दो मेरे श्याम की है। मीरा के अवचेतन मन से साढ़े चार हज़ार बरस की स्मृतियाँ निकल कर उनकी चेतना में तैरने लगीं।
संत ने वह गिरधर गोपाल की मूर्ती मात्र बाल हठ मानकर देने से साफ़ इंकार कर दिया और अपने निवास स्थान को लौट गए। इधर मीरा बालिका ने तीन रोज़ तक अन्न ग्रहण नहीं किया। रोती बिलखती ही रही बालिका। चौथे दिन संत जी को स्वप्न में भगवान् ने आकर कहा। यह मूर्ती जिसकी है उसे दे दो। तुम्हारा संग साथ इस मूर्ती के साथ पूरा हुआ। तुम्हारा रोल पूरा हुआ इतना ही था। संत हड़बड़ाकर उठे और प्रात : की वेला का इंतज़ार करने लगे।
पौ फटते ही मेंड़ता के लिए चल पड़े मीरा जी से क्षमा मांगी आशीर्वचन भी कहा -बेटी भजन हमने किया ,लेकिन फल तुम्हें प्राप्त हुआ। बीज हमने बोया लेकिन फूल तुम्हारे घर खिला।
मीरा के बचपन की ही एक और घटना है जिसने बालिका मीरा के जीवन की दिशा ही बदल दी। एक बार एक बरात इनके घर के आगे से जा रही थी। दादी के साथ ये बरात देखने घर के दरवाज़े पर आ गईं। सहज भाव दादी से पूछने लगीं दादी मेरा ब्याह (विवाह )किससे होगा।दादी ने बालिका को बहकाते हुए कह दिया लाड़ में -तेरा विवाह इस घनश्याम से होगा जिसकी प्रतिमा तू सीने से लगाए घूमती है।
अब मीरा की "प्रेमा- भाव" की भक्ति जागृत हुई मीरा सचमुच कृष्ण को अपना पति मानने बूझने लगीं ।मीरा का विवाह मेवाड़ के राणा भोजराज जी से हुआ (जिन्हें सिर्फ राणा जी भी कहा जाता था। भांवरों के वक्त भी इन्होने भगवान् की मूर्ती अपने पास छिपाई हुई थी अपने सीने से लगाई हुई थी।
राणा जी इनका बहुत आदर करते थे। जल्दी ही उन्हें पता चल गया यह कोई दिव्यअवतार हैं इस लोक से इनका कोई लेना देना नहीं हैं।मीरा गाते गाते हवेली से बाहर निकल आतीं ,संतों में चलीं आतीं ,गाँव के मंदिर में कीर्तन करने लगतीं। यह सब कुछ सुसराल वालों को बड़ा अटपटा लगा। लेकिन भोजराज जी सब समझ गए थे। एक दिन उन्होंने मीरा जी से कहा -हम को भी भगवान् के दर्शन कराओ -मीरा जी कहने लगीं ऐसा हो तो सकता है लेकिन फिर हमारा आपका पति पत्नी का यह लौकिक सम्बन्ध समाप्त हो जाएगा। राणा जी सोचने लगे ये शरीर तो जाएगा ही जाएगा, आज नहीं कल ,भगवान् के दर्शन कर लो और राणा जी ने हामी भर दी.
भगवान को राणा जी ने जैसे ही देखा शरीर छोड़ दिया।
अब मीरा के ऊपर राणा विक्रम सिंह ने कहर बरपा -ये जो बहुत ही क्रूर शासक थे और मीरा जी से बेहद खफा रहते थे तरह तरह से इन्हें सताने के लिए बाकी परिवारियों और अन्य कर्मियों से कहा।
मीरा ने मौन व्रत ले लिया।
रहिमन चुप घर बैठिये देख दिनन के फेर
एक बार चरणामृत है कहकर पुजारियों की मिलीभगत से इन्हें विष का प्याला पीने के लिए दिया गया। मीरा जानतीं थी ये विष है लेकिन उन्होंने कहा घनश्याम आज इस रूप में इस प्याले में आ गए। और सचमुच उस कथित चरणामृत के प्याले में इन्हें कृष्ण का श्याम रूप उनके सांवले सलोने नेत्र दिखलाई दिए।
जहर पीया मीरा ने यहां और वहां द्वारका में झाग कृष्ण के मुख से आने लगे। मीरा के पास जो श्याम सुंदर की मूर्ती थी वह थोड़ी और काली पड़ गई।मीरा ज़िंदा रहीं मरी नहीं।
अब विक्रम सिंह ने नित्य नै नै युक्तियाँ सोचनी शुरू कीं । एक षड्यंत्र के तहत काला नाग (कोबरा )दिवाली की भेंट स्वरूप मीरा तक पहुंचाने का सोच लिया।
भक्त को देख कर जहरीले जंतु भी अपना स्वभाव बदल लेते हैं। कोबरा भेंट किया गया था मीरा जी को राणा विक्रम द्वारा दिवाली पर छल छद्म से ,पूर्व में जहर का प्याला चरणामृत बतलाकार दिया गया था। मीरा फिर बच गईं।सांप संतों से कुछ नहीं कहते वे जानते हैं ये तो प्रेम के पात्र हैं। सांप छोटे बच्चे को भी कभी नहीं डसते।सर्प आदमी की तरह खतरनाक नहीं होते , शंकर जी इसी लिए भोले नाथ कहलाते हैं जिनके गले में सर्प मालाएं झूलतीं हैं ,जो हँसते -हँसते विषपान कर गए थे और अमृत देवताओं तक पहुंचा था।
विष भी अमृत बन जाता है असाधारण पात्र में आकर। और अमृत भी विष बन जाता है विकार युक्त पात्र में आ कर ,यही मीरा जी के जीवन का सन्देश है।
नींद आनी बंद हो गई मीरा जी को गिरधर के विरह में -
नींद नसानी होय मेरी ,
सखी री मेरी नींद न सानी हो।
ज्यों चातक घन कू रटै ,
मछली बिन पानी हो ,सखी री मेरी ,
सखी री मेरी नींद न सानी हो।
अंतर- वेदन विरह की, पीड़ न जानी कोय ।
अंग अंग व्याकुल भई,
दासी मीरा विरह की सुध बुध बिसरानी हो ,
सखी री मेरी नींद न सानी हो।
तीन दिन से मीरा सोयी नहीं हैं प्रेम - विरह की ज्वाला में ,सखी को अपनी व्याकुलता बतलाती हैं -अब उनको कोई गफलत नहीं है -सब कुछ स्पष्ट हो गया है नींद इन अर्थों में उड़ी है। मीरा जाग गईं हैं।
ये वेदना वह है जिससे जीवन में ज्ञान का जन्म होता है धर्म का जन्म होता है वेद का जन्म होता है। वेद का मतलब ज्ञान ही तो होता है।
दोनों सखियाँ बात कर रहीं थी। (वास्तव में मीरा कृष्ण की मूर्ती से अपने कक्ष में बातें करतीं थीं। किसी ने राणा विक्रम सिंह जी से शिकायत की राणा आधी रात को उठकर तलवार लेकर मीरा के कक्ष में आ गए -पूछा कौन पुरुष था तुम्हारे कक्ष में ?
मीरा ने कहा मैं किसी पुरुष से नहीं परमपुरुष से बात करती हूँ राणा जी क्रोध में थे ठाकुर जी को उठाया और झील में फेंक दिया। पीछे -पीछे मीरा ने भी झील में छलांग लगा दी कहते हैं इसके बाद मीरा जी और गिरधर गोपाल की वह मूरत ,दोनों मथुरा -वृन्दावन की यमुना में प्रकट हुए। साढ़े चार हज़ार वर्ष पुरानी लीलाएं मीरा को याद आने लगीं। ललिता जी (राधा जी की ख़ास सखी )सब कुछ पूछने लगीं -ये गोवर्धन तुम्हें याद है ये वंशीवट तुम्हें अभी भी याद है ,ये निधि वन तुम्हें याद है ?
मीरा मन ही मन सोचने लगीं जब उन्हें सेवकों ने निधिवन में आने से रोका :
ब्रज में केवल एक पुरुष है कृष्ण -ये दूसरा कहाँ से आ गया जो मेरा प्रवेश निधि वन में रोक रहा है ?रूपगोस्वामी रहते थे उन दिनों निधि वन में, जिनका आदेश था निधिवन में किसी महिला को प्रवेश न करने दिया जाए।
राणा ने यहां वृन्दावन में भी अपने लोगों को भेजकर मीरा को बहुत सताया आखिर में मीरा वृन्दावन भी छोड़कर द्वारिका चली गईं। इसी बीच विक्रम राणा की मृत्यु हो गई।
अब राणा उदय सिंह जी ,जो पूजा पाठ की वृत्ति वाले महात्मा थे, और सबसे बड़े भी थे लेकिन विक्रम सिंह के आगे उनकी एक नहीं चलती थी सब कुछ काम संभालने लगे। सारा राज कारज सम्भाला।
मीरा को मेवाड़ वापस लाने के लिए राणा उदय सिंह कहते हैं हम लोग तो इस काबिल भी नहीं रहे उन्हें वापस आने के लिए कहें हमारे विक्रम राणा और उनके साथियों ने मिलकर उन्हें इतना सताया है हम उन्हें किस मुंह से वापस आने के लिए कहें। हम लोग तो मेड़ता वासी मुंह दिखाने लायक भी न बचे।
सब लोग द्वारका पहुँचते हैं.वहां पहुंचकर अन्न जल लेना भी छोड़ देते हैं समस्त मेड़ता वासी -प्रायश्चित स्वरूप ,के बस किसी प्रकार मीरा जी वापस लौट आएं।मेवाड़ अपनी सुसराल।
मीरा जी कहतीं हैं मैं वहां वापस नहीं आ सकती अब, जहां अधर्म हो ,साधु संतों का अपमान हो ,उदय सिंह जी के हृदय के भाव से किया गया प्रायश्चित मीरा बाई नज़रअंदाज़ नहीं कर पातीं कहने लगी है ठीक है में द्वारकाधीश जी से पूछती हूँ :
बनवारी रे जीने का सहारा तेरा नाम रे ,
मुझे दुनिया वालों से क्या काम रे ।
गाते हुए मीरा जी मंदिर के गर्भ गृह में पहुँच गईं हैं। और जैसे ही मीरा जी ने हाथ उठाकर कहा -
मेरी बांह पकड़ लो श्याम रे ......
अगर आपने नहीं पकड़ीं तो ये दुनिया वाले मुझे खींच के ले जायेंगे। मूर्ती का हाथ आगे बढ़ता है और मीरा मूर्ती में समा जातीं हैं।
मीरा कृष्ण में से ही प्रकट हुईं थीं ,उन्हीं के लिए जीवित रहीं और अंततया उन्हीं में समा गईं।उदय सिंह राणा फूट -फूट कर रोते हैं जब मंदिर के पुजारी बतलातें हैं मीरा तो कृष्ण में समा गईं।
इसे विज्ञान के नज़रिये से मत परखिये भाव की दृष्टि से देखिये मीरा का विलोपन अप्रकटन ,अव्यक्त होना। आत्मा का परमात्मा में लीन होना है।
आइये अब राम कथा के ज़ारी प्रसंग में प्रवेश करते हैं :
इधर राम के अभिषेक की तैयारी ज़ोरशोर से चल रहीं हैं उधर देवताओं में सुगबुगाहट के साथ एक षड्यंत्र चल रहा है।
देवता सरस्वती को बुलाकर कहते हैं किसी भी हालत में यह राज्याभिषेक नहीं होना चाहिए ,परमार्थ के लिए थोड़ा अपयश भी लेना पड़े तो कोई हर्ज़ नहीं तुम विघ्न पैदा करो अयोध्या में जाकर।
सरस्वती सोचतीं हैं किसकी बुद्धि बिगाड़ू ये तो धर्म नगरी है अंत में दृष्टि मंथरा पर जाती है जो कैकई के दहेज में आई थी।
मंथरा स्त्री नहीं है कुसंग है। अयोध्या नगरी में कुसंग भी घुसा हुआ है वह भी उसके घर में जिसके घर में स्वयं भक्ति रानी सीता जी हैं भगवान बेटा बन के आते हैं ,भरत जी जैसे तपस्वी मौजूद हैं ,लक्ष्मण जी जैसा काल रूप अनंत शेष मौजूद है। कथा का सन्देश यह है कुसंग किसी भी घर को नहीं छोड़ता है जब अयोध्या के दशरथ परिवार को नहीं छोड़ता तो हमारे आपके परिवारों को कैसे छोड़ सकता है।
अयोध्या को अनाथ करवा दिया इसी मंथरा ने और इसका कोई बालबाँका भी न कर सका। एक बार अगर जीवन में कुसंग प्रवेश कर गया फिर जाता नहीं है। जिसके हाथ में एक बार रंगीन बोतल आ गई पत्नी रो रोके बर्बाद हो जायेगी बोतल नहीं छुड़वा सकती।
सतसंग न करो चलेगा लेकिन कुसंग मत करिये -भगवान् श्री राम इस बात को बोल रहे हैं विभीषण को :
बरु बलवात नरक करि भ्राता,
दुष्ट संग जेहि देहि विधाता।
जिस कार्य को करते समय जिस आचरण को ,क्रियाको ,व्यवहार को करते समय मन के किसी कौने में यह बात आने लगे कोई देख लेगा तो क्या कहेगा -ये ही कुसंग है ,लाल बत्ती है इसका आदर करिये। लाल बत्ती बोलती है इसकी अनदेखी करोगे तो मरोगे।
कैकई मामूली स्त्री नहीं है जिसके गर्भ से भरत जैसे महा -तपस्वी पैदा हुए जो चारों युगों में केवल एक बार ही आता है केवल त्रेता में ही आता है ऐसा तपस्वी और किसी युग में एक बार भी नहीं आता है ।
भगवान् श्री राम ने कभी कौशल्या जी का दूध नहीं पीया कैकई का ही पीया है ,बचपन में ये दोनों बालक राम और भरत रूप साम्य होने की वजह से ही बदल जाते थे। इसीलिए भरत ने हमेशा कौशल्या जी का और राम ने कैकई का ही दूध ज्यादा पीया है।
जिसके हृदय से भगवान् लगे रहे उसकी भी बुद्धि बिगाड़ी जा सकती है ये कुसंग ऐसा है।
"मुझे प्रमाण दीजिये कैकई से कहतीं है मंथरा बारबार "-मुझे प्रमाण दीजिये कौशलया माँ चतुर चालाक कुटिल नहीं है।
कैकई एक झाँपड़ रसीद करतीं हैं कहते हुए प्रमाण मांगती है जिसकी कोख से भगवान् राम प्रकट हुए हैं वह कौशल्या माँ तुझे कुटिल दिखाई देतीं हैं।
लेकिन थप्पड़ खाकर भी मंथरा हार नहीं मानती कहती है आपका नमक खाया है मैंने और मार लो बेशक और अपनी खुद की कुटिलता को वजन देने के लिए और भी ज्यादा जी जान से जुट जाती है।
सौत (कौशल्या )की सेवा करने से अच्छा है अलग रहो भरत के साथ ,राम के लिए वनवास की मांग करो।भरत के लिए राज्याभिषेक।
कुसंग कैकई को 'कनक -भवन' से 'कोप -भवन' में भेज देता है।
कुसंग यही करता है।
"कोप भवन सुनी सकुचै राऊ " .........
तुलसीदास कहते हैं 'काम' का प्रभाव देखिये राम राज्य अभिषेक से पहले जाना चाहिए था दशरथ जी को कौशल्या के पास आ गए कैकई के पास जो कोप भवन में पड़ी हुई है।
एक बे -अदबी दशरथ जी ने वशिष्ठ जी को राजमहल में बुलाकर की थी राम को सन्देश भिजवाने के लिए के जाओ राम को उपदेश करके आओ।बतलाओ -कल तुम्हारा राज्याभिषेक है आज की रात संयम से रहना।
भेजना तो राम को गुरु के पास था के जाओ गुरु का आशीर्वाद लेकर आओ -कल तुम्हारा राज्याभिषेक है। काम उलटा ही किया गुरु वशिष्ठ को ही बुला भेजा राम के भवन में संदेशा लेकर जाने के लिए।
रघुकुल रीति सदा चली आई ,
प्राण जाए पर वचन न जाई। .......
मांगों क्या मांगती हो रानी- कोप भवन से निकल के-दशरथ मनुहार करते हुए बोलते हैं। हम रघुवंशी हैं राम की कसम खाकर कहते हैं जो तुम मांगोगी वही वर दे देंगे।
ठीक उसी समय कौशल्या जी आरती का थाल लेकर पूजा घर की ओर जाती हैं के आरती का थाल उनके हाथ से गिर गया यह एक बड़ा अपशकुन था। महल के द्वार तिरछे होने लगे।अयोध्या का भाग्य उससे रूठने लगा।
मेरा पहला वरदान भरत को अयोध्या का राज्य।दूसरा वरदान राजन मेरा ध्यान से सुनना -तपस्वी वेश में उदासीन व्रत लेकर राम को चौदह बरस का वनवास।
दशरथ जी भूमि पर गिर गये कहने लगे तुमने क्या कहा मैं ठीक से सुन नहीं पाया -दोबारा कहिये।
दशरथ पत्थर की मूर्तीवत हो गए कैकई का हाथ उनके हाथ से छूट गया। बोले रानी तुझे पाप लग जाएगा -ऐसा कठोर वर मत मांग। महाराज ने कैकई के मुख पे हाथ रख दिया -मुझे पहले वरदान में कोई दिक्कत नहीं है लेकिन दूसरा वरदान तुमने कैसे मांग लिया। राम से ऐसा क्या अपराध हो गया कल तो तुम कहती थी राम का अभिषेक करो हम दोनों वन में जाकर रहेंगे। मैं राम की तरफ से क्षमा मांग लूंगा। मुझे प्राण भीख में दे दो ,गऊ की हत्या मत करो मैं तुम्हारी काली गाय हूँ। कैकई धक्का दे देती है दशरथ जी को -
नहीं देना था वरदान तो क्यों महादानी बनने का नाटक कर रहे थे।
कटे पंख के पक्षी से महाराज चिल्ला रहे हैं हे महाकाल भगवान् ,हे शंकर भगवान् आज मुझे एक वरदान दे दीजिये मेरे बेटे से कह दो मेरी बात आज न माने।
प्रात : काल सुमंत आये हैं और सारा षड्यंत्र राम को बताते हैं। कैकई के भवन में जाकर राम कैकई से पूछते हैं मुझे बताइये हमारे पिता क्यों आज इतने व्यथित हैं जिसके चार चार बेटे हों वह आज इतना दुखी क्यों हैं मुझे बताओ पिता जी के दुःख का कारण क्या है। ऐसा कौन सा दुःख आ गया जिस ने इनकी ये हालत बना दी।
अगली सुबह सारी अयोध्या नगरी विलाप करने लगी। कौशल्या जी को कुछ पता नहीं है राम उनकी आज्ञा लेने जा रहे हैं वनवास की घटना बताने से पहले। सुमंत का लड़का राम जी के साथ था जिसने सारी घटना कौशल्या जी को बताई।
देखो राम अगर ये बात सिर्फ तुम्हारे पिता ने कही होती ,मैं इसे इतना वजन न देती ,कैकई तेरी माता हैं अगर ये बात दोनों माँ और पिता ने कही है तो तुम जाओ। उनकी आज्ञा का पालन करो।
अब जानकी जी चिंतित हो राम से पूछती हैं इस संकट के बारे में। राम कहते हैं मेरी माँ को जीवित रखना मेरे पीछे अपनी सेवा से।
जानकी जी बोलीं प्रभु आपको मालूम है मैं कौन हूँ ?
मैं आपकी छाया हूँ।
जिय बिनु देह नदी बिन वारि ,
तैसीहि नाथ पुरुष बिन नारी।
पति के बिना पत्नी वैसे ही अर्थहीन है जैसे नदी जल के बिना ,प्राण के बिना शरीर।इतने में ही लक्ष्मण जी भी आ गए -बोले भगवान् आप किसे समझा रहे हैं मेरे तो माता पिता सिर्फ आप ही हैं मैं किसी पिता दशरथ और माता सुमित्रा को नहीं जानता।
बड़ा रोचक प्रसंग है लक्ष्मण जी के जन्म के बारे में पैदा तो चारों बच्चे एक साथ ही लगभग लगभग हुए थे लेकिन पैदा होने के बाद लक्ष्मण जी ने कई दिनों तक न आँख खोली न दूध पीते थे ,बेहद रोते रहते थे न सोते थे न दूध पीते थे बस रोना ही रोना।
सुमित्रा जी चिंतित होकर लक्ष्मण जी को लेकर गुरु वशिष्ठ जी के पास गईं ,सारी बात बतलाई। गुरु ने लक्ष्मण जी को ध्यान से देखा और बोले अरे !ये तो शेषनाग है भगवान् राम की शैया है राम से अलग सोयेगा कैसे। इसे राम की शैया पर ही सुलाओ।उनका अंगूठा इनके मुंह में दो तभी ये सोयेगा बालक और दूध भी तभी पीयेगा ,और हुआ भी ऐसा ही।जब कभी अंगूठा मुंह से निकल जाता था लक्ष्मण जी रोने लगते थे। आज यही घटना लक्ष्मण जी भगवान् को याद दिला रहे हैं कहते हुए मैं आपके बिना जीवित नहीं रह सकूंगा। राम जी आखिर में कहते हैं अच्छा ठीक है माँ सुमित्रा जी से आज्ञा लेकर आओ वह आज्ञा दे देवें तो चलो तुम भी।
सुमित्रा बोलीं मैं तो तेरी देह की माँ हूँ
" तात! तुम्हारी मातु वैदेही ,
पिता राम ,सब भाँती स्नेही ,
अवध तहाँ जहां राम निवासु ,
तहिं दिवस जहां भानु परतापु। "
तेरी शाश्वत माँ वैदेही हैं जिनका न जन्म है न मृत्यु हैं जो शाश्वत हैं।यहां घर में तुम्हारा कोई काम नहीं है हमारे पास महल में , जाओ माँ जानकी और भगवान् के साथ उनकी सेवा करो। मैं तो तुम्हारी धरोहर की माँ हूँ क्योंकि तुम मेरे गर्भ में आये तुम्हारे शाश्वत माता पिता राम और वैदेही ही हैं। भगवान् कैकई जी की आज्ञा से वन नहीं जा रहे हैं :
तुमरै भाग राम वन जाई ,
दूसर हेतु तात कछु नाहिं ।
तुझे मालूम नहीं ,मुझे मालूम हैं बोली सुमित्रा जी लखन से ,तू शेष नाग का अवतार है धरती तेरे सिर पर है ,भगवान् तेरे सिर का ही भार कम करने जा रहे हैं,पृथ्वी पर पाप का बोझ बहुत बढ़ गया है ,उसे कम करने के लिए ही भगवान् वन जा रहे हैं। तुझे मेरे दूध की कसम हैं दोनों की सेवा में कोई विकार स्वप्न में भी न आये। लक्ष्मण जी बोले माँ में जागृत अवस्था का तो वचन देता हूँ सोते हुए व्यक्ति को कुछ इल्म नहीं रहता कोई विकार उससे हो सकता है इसलिए मैं सौगंध लेता हूँ जब तक भगवान् वन में रहेंगे मैं सोऊंगा नहीं।यहां से लक्ष्मण जी उर्मिला को मिलने जाते हैं वह प्रसंग अति मार्मिक है जिसका वर्रण कथा के अगले अंक में होगा।
जयश्रीराम !जयसियाराम !
"तापस वेश विशेष उदासी ,
चउदह बरस राम वनवासी। "
सन्दर्भ -सामिग्री :
(२ )
Vijay Kaushal Ji Maharaj | Shree Ram Katha Ujjain Day 15 Part 2
(१ )https://www.youtube.com/watch?v=AVs6_18RjIc
(२ )
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