टूटत ही धनु हुओ विवाहु
वैसे तो विवाह पुष्प वाटिका में ही हो चुका ,अब तो धनुष भी टूट गया ऐसा करो इस महोत्सव में दशरथ जी भी गाजे बाजे के साथ बरात लेकर आएं ,इसीलिए इस उत्सव की शोभा बढ़ाने के लिए विवाह निमंत्रण अयोध्या भी राजा दशरथ के पास भेजो -ऐसा कहा गुरु विश्वामित्र ने जनक जी।
यहां जनकपुर से दो सेवक चले हैं जब राजमहल में पहुंचे हैं तो ऐसा समाचार राजा दशरथ के पास भेजा गया -जनकपुर से दो दूत आएं हैं भगवान् राम के विवाह का सन्देश पत्रिका (न्योंता )लेकर।
दशरथ जी ने कहा तुरंत बुलाइये-
"मुदित महीप आप उठ लिए "-
राजा दशरथ सचिव से बोले जो सेवकों का सन्देश पढ़कर राजा को सुनाने के लिए उठे थे -
" मुझे दो सन्देश -पत्र मैं स्वयं पढूंगा। "
"भगवान् का सन्देश तो स्वयं ही पढ़ा जाता है किसी नौकर सचिव से नहीं पढ़वाया जाता यही सन्देश देती है कथा यहां पर। "
"चक्रवर्ती नरेश स्वयं खड़े हुए -प्रेम पत्र स्वयं ही पढ़ा जाता है सोचते हुए "
"वारि विलोचन बाँचत पाती
तुलसी दास भर आईं छाती। "
"चिठ्ठी पढ़ रहें हैं मतलब भगवान् का पाठ पढ़ रहे हैं "
पूजा -पाठ अपना स्वयं ही किया जाता है किसी और से नहीं करवाया जाता।
केवल बैठने मात्र से प्रभु को संतोष हो जाता है पाठ पढ़ो उनका खुद बैठकर।
"पहिचानत तब कहहु सुभाउ ,
प्रेम विवश पुनि -पुनि महि कहहु राउ। "
जनकपुर से आये दोनों सेवकों से राजा दशरथ बार -बार पूछते हैं क्या तुमने मेरे दोनों पुत्रों को देखा है ,उन्हें पहचानते हो यदि हाँ तो मुझे बताओ उनका स्वभाव कैसा है।
(स्वभाव से ही व्यक्ति पहचाना जाता है ,राम का स्वभाव सदैव ही मृदु और कोमल रहता है सब के साथ )-
राजा का औत्सुक्य अपने शिखर को छू रहा है बार -बार दोनों सेवकों से कहते हैं मुझे सब कुछ बतलाओ ,मेरे बेटे कितने बड़े हो गए हैं अब ,और कैसे हैं ?
मैं जानहुँ निज सुभाऊ ,
बोलन मिलन विनय मन हरनी ,
पहचानु तब कहउ सुभाऊ।
विनय शील -करुणा अतिसागर।
रानियां बार -बार छाती से पत्र लगातीं हैं ,भगवान का पत्र -अवतार हो गया है मानो राजमहल में ।
सरितन जनक बनाये सेतु ....
भगवान् का जन्म दो राज्यों में सेतु बनाने के लिए ही होता है।
जनक जी ने मिथिला से लेकर अयोध्या तक सेतु बाँध दिए। बरात आनी है उसे कोई असुविधा न हो।
जानि सिया बरात पुर आई ........
हृदय सिमिर कर सब सिद्धि बुलाई।
जानकी जी ने समस्त सिद्धियों को बुला लिया है ताकि ब्रह्म परिवार की आवभगत में कोई कमी न रह जाए। त्रिदेव बरात में भेष बदल के आये हैं।ये शादी जगत के माता पिता की हो रही है। भगवान् की हो रही है। कोई मामूली विवाह नहीं है।
ये सिया रघुवीर विवाह ......
सम -समधी हम देखे आज -
सारे बाराती कहने लगे -ब्रह्म के पिता युगल आपस में मिल रहे हैं दो समधियों के रूप में -जनक और दशरथ । समान स्तर के ब्रह्म ग्यानी हैं ये दोनों सम -धी-दशरथ जी और जनक जी।
राम और भरत में साम्य देख के पूरे जनकपुर में असमंजस पैदा हो गया इन चारों वरों में भरत कौन है राम कौन है।
मिथिला नगरिआ निहाल सखी रे ,
चारो दुल्हा में बड़का कमाल सखी रे !
जिनके साथ जोगी ,मुनि, जप, तप, कईन,
जेहि हमरा मिथिलाके मेहमान भइय्यन (भैयन) .
सांवरे सलोने सारे दुल्हा कमाल छवि रे ,
हाँ ,कमाल !सखी रे ....
अपने चंचल मन के घोड़े का तार भगवान् के साथ जोड़ो फिर उनका घोड़ा जिधर भी ले जाए चलो यह पहला सूत्र है भगवान् के साथ विवाह का।
भगवान् दूल्हे के रूप में जिस घोड़े पर बैठे हैं वह इतना तेज़ चलता है के गरुण भी शर्माने लगा।
राघव धीरे चलो ससुराल गलियां -.......
मिथिला की नारियां गाने लगीं हैं।
ये भक्ति का मार्ग है भक्ति की नगरी है भक्ति और भजन धीरे -धीरे ही चलता है। सीता जी को भी यही कहा गया था -
धीरे चलो सुकुमार सिया प्यारी .....
सखियाँ जानकी जी को तैयार करके लाईं हैं ,देवता लोग जगत जननी को मन ही मन प्रणाम करते हैं।
वशिष्ट जी ने कहा राजन कन्या
दान करो।
सुनैना भगवान् की आरती उतारतीं हैं।जनक जी रोते -रोते कन्यादान करते हैं कन्या दान का मतलब होता हैँ निष्काम भक्ति। भाँवरें पड़ने लगीं हैं :
छायो चहुँ दिश प्रेम को रंग ,
परन लागि भाँवरियाँ ,सिया रघुवर जी के संग ,
परड़ लागि भाँवरिया .....
तीनों बेटियों को भी इसी मंडप में ब्याह दिया जनक जी ने , मांडवी जी को भरत के साथ ,उर्मिला जी को लक्ष्मण जी के साथ , सुकीर्तिजी को शत्रुघ्न के साथ।
चारों दम्पति जब दसरथ जी को प्रणाम करने आये दशरथ जी भावावेश में एक शब्द नहीं बोल पाये ,इतने भाव -विभोर हो गए -जैसे चारों पुरुषार्थ धर्म -अर्थ -काम -मोक्ष एक साथ पा गए हों।
हल्का फुल्का हंसी मज़ाक व्यग्य विनोद बाण जानकी जी की सखियाँ चलाती हैं फेरों के वक्त -कहतीं हैं लक्ष्मण जी से तुम बहुत बड़बक करते हो माफ़ी मांग लो हम से नहीं हम पोल खोल देंगी अयोध्या की ,अयोध्या वालों को आता ही क्या है -खीर खा खा के तो महिलायें बच्चे पैदा करतीं हैं ,पुरुष तो बच्चे भी पैदा नहीं कर सकते -तुम चारों भाई तो यज्ञ का प्रसाद पाकर ही रानियों ने पैदा किये थे।
लक्ष्मण जी कब चूकने वाले थे बोले -हमारे यहां तो खीर से ही काम चल जाता है तुम्हारे यहां जनकपुर में तो बच्चे धरती में से खोद -खोद के निकाले जातें हैं। जानकी जी धरती में से ही प्रकट हुईं थीं।
"भक्ति में देह का भान नहीं रहता वही भक्ति निष्काम होती है -ये क्या हुआ जानकी जी की सखियाँ जनकपुर पक्ष के लोगों के नाम ले लेकर ही गाली गाने लगीं ,जनक जी बोले ये क्या करती हो। "
-हुआ ये था सकुचाते राम पर व्यंग्य कस रहीं थीं सखियाँ -तुमने तो अपनी बहन को भी सींगों वाले के साथ ब्याह दिया था। भगवान् नज़र उठाकर ऊपर देखते हैं सखियाँ सम्मोहित हो जातीं हैं भगवान् की इस अप्रतिम मोहिनी छवि को देख कर और और मोहित होकर अपने पक्ष के लोगों को ही गाली गाने लगतीं हैं।
विदा का समय भी आ पहुंचा है पूरी जनकपुर नगरी अश्रुपूरित है सुनैना जी जानकी जी से लिपट कर रो रहीं हैं।सखियाँ अन्य स्त्रियां जनकपुर की सुनैना जी को समझा रहीं हैं -ये क्षण तो हरेक बेटी के जीवन में आता ही है आपके जीवन में भी आया था जब आप अपने पिता को बिलखता रोता छोड़ आईं थी राजमहल में। परमज्ञानी ब्रह्मज्ञानी जनक नहीं पिता जनक भी रो कलप रहे हैं।
"पति जिस व्यवहार से प्रसन्न हों वैसा ही आचरण करना बेटी -दोनों परिवारों की लाज होती है बेटी -अब ये तुम्हारे हाथों में है -ये हिदायत देती हैं सुनैना जी जानजी को विदा वेला में। "
और जानकी जी इस स्थिति का पालन तब भी करती हैं जब उन्हें अयोध्या छोड़कर जाना पड़ता है वह भी तब जब वह आठ माह की गर्भवती होतीं हैं। क्योंकि रामराज्य की शासन मर्यादा का सवाल था जहां एक धोभी भी मायने रखता है।तोता मैना भी बिलख रहें हैं -
शुक सारिका जाई ,
व्याकुल तहाँ है वैदेहि।
शुक और सारिका भी विदा वेला में आशीर्वाद गाने लगते हैं।
तेरो सुहाग मनाऊँ ,इतर फुलैल लगाऊँ
कलियाँ चुन चुन सेज़ बिछाऊँ ,
पीया प्यारी को उढाऊ ,मनाऊँ
रसीली बैन सुनाुऊं मनाऊँ .
मुझे कोई सुविधा नहीं चाहिए। तेरा जूठा खालूंगी . ....मुझे भी अपने साथ ले चलो।
मुझे कुछ नहीं चाहिए।
(आज की कथा का विराम आता हैं यहां पर ..... आगे की कथा अगले अंक में ...)
सन्दर्भ -सामिग्री :
(१ )
वैसे तो विवाह पुष्प वाटिका में ही हो चुका ,अब तो धनुष भी टूट गया ऐसा करो इस महोत्सव में दशरथ जी भी गाजे बाजे के साथ बरात लेकर आएं ,इसीलिए इस उत्सव की शोभा बढ़ाने के लिए विवाह निमंत्रण अयोध्या भी राजा दशरथ के पास भेजो -ऐसा कहा गुरु विश्वामित्र ने जनक जी।
यहां जनकपुर से दो सेवक चले हैं जब राजमहल में पहुंचे हैं तो ऐसा समाचार राजा दशरथ के पास भेजा गया -जनकपुर से दो दूत आएं हैं भगवान् राम के विवाह का सन्देश पत्रिका (न्योंता )लेकर।
दशरथ जी ने कहा तुरंत बुलाइये-
"मुदित महीप आप उठ लिए "-
राजा दशरथ सचिव से बोले जो सेवकों का सन्देश पढ़कर राजा को सुनाने के लिए उठे थे -
" मुझे दो सन्देश -पत्र मैं स्वयं पढूंगा। "
"भगवान् का सन्देश तो स्वयं ही पढ़ा जाता है किसी नौकर सचिव से नहीं पढ़वाया जाता यही सन्देश देती है कथा यहां पर। "
"चक्रवर्ती नरेश स्वयं खड़े हुए -प्रेम पत्र स्वयं ही पढ़ा जाता है सोचते हुए "
"वारि विलोचन बाँचत पाती
तुलसी दास भर आईं छाती। "
"चिठ्ठी पढ़ रहें हैं मतलब भगवान् का पाठ पढ़ रहे हैं "
पूजा -पाठ अपना स्वयं ही किया जाता है किसी और से नहीं करवाया जाता।
केवल बैठने मात्र से प्रभु को संतोष हो जाता है पाठ पढ़ो उनका खुद बैठकर।
"पहिचानत तब कहहु सुभाउ ,
प्रेम विवश पुनि -पुनि महि कहहु राउ। "
जनकपुर से आये दोनों सेवकों से राजा दशरथ बार -बार पूछते हैं क्या तुमने मेरे दोनों पुत्रों को देखा है ,उन्हें पहचानते हो यदि हाँ तो मुझे बताओ उनका स्वभाव कैसा है।
(स्वभाव से ही व्यक्ति पहचाना जाता है ,राम का स्वभाव सदैव ही मृदु और कोमल रहता है सब के साथ )-
राजा का औत्सुक्य अपने शिखर को छू रहा है बार -बार दोनों सेवकों से कहते हैं मुझे सब कुछ बतलाओ ,मेरे बेटे कितने बड़े हो गए हैं अब ,और कैसे हैं ?
मैं जानहुँ निज सुभाऊ ,
बोलन मिलन विनय मन हरनी ,
पहचानु तब कहउ सुभाऊ।
विनय शील -करुणा अतिसागर।
रानियां बार -बार छाती से पत्र लगातीं हैं ,भगवान का पत्र -अवतार हो गया है मानो राजमहल में ।
सरितन जनक बनाये सेतु ....
भगवान् का जन्म दो राज्यों में सेतु बनाने के लिए ही होता है।
जनक जी ने मिथिला से लेकर अयोध्या तक सेतु बाँध दिए। बरात आनी है उसे कोई असुविधा न हो।
जानि सिया बरात पुर आई ........
हृदय सिमिर कर सब सिद्धि बुलाई।
जानकी जी ने समस्त सिद्धियों को बुला लिया है ताकि ब्रह्म परिवार की आवभगत में कोई कमी न रह जाए। त्रिदेव बरात में भेष बदल के आये हैं।ये शादी जगत के माता पिता की हो रही है। भगवान् की हो रही है। कोई मामूली विवाह नहीं है।
ये सिया रघुवीर विवाह ......
सम -समधी हम देखे आज -
सारे बाराती कहने लगे -ब्रह्म के पिता युगल आपस में मिल रहे हैं दो समधियों के रूप में -जनक और दशरथ । समान स्तर के ब्रह्म ग्यानी हैं ये दोनों सम -धी-दशरथ जी और जनक जी।
राम और भरत में साम्य देख के पूरे जनकपुर में असमंजस पैदा हो गया इन चारों वरों में भरत कौन है राम कौन है।
मिथिला नगरिआ निहाल सखी रे ,
चारो दुल्हा में बड़का कमाल सखी रे !
जिनके साथ जोगी ,मुनि, जप, तप, कईन,
जेहि हमरा मिथिलाके मेहमान भइय्यन (भैयन) .
सांवरे सलोने सारे दुल्हा कमाल छवि रे ,
हाँ ,कमाल !सखी रे ....
अपने चंचल मन के घोड़े का तार भगवान् के साथ जोड़ो फिर उनका घोड़ा जिधर भी ले जाए चलो यह पहला सूत्र है भगवान् के साथ विवाह का।
भगवान् दूल्हे के रूप में जिस घोड़े पर बैठे हैं वह इतना तेज़ चलता है के गरुण भी शर्माने लगा।
राघव धीरे चलो ससुराल गलियां -.......
मिथिला की नारियां गाने लगीं हैं।
ये भक्ति का मार्ग है भक्ति की नगरी है भक्ति और भजन धीरे -धीरे ही चलता है। सीता जी को भी यही कहा गया था -
धीरे चलो सुकुमार सिया प्यारी .....
सखियाँ जानकी जी को तैयार करके लाईं हैं ,देवता लोग जगत जननी को मन ही मन प्रणाम करते हैं।
वशिष्ट जी ने कहा राजन कन्या
दान करो।
सुनैना भगवान् की आरती उतारतीं हैं।जनक जी रोते -रोते कन्यादान करते हैं कन्या दान का मतलब होता हैँ निष्काम भक्ति। भाँवरें पड़ने लगीं हैं :
छायो चहुँ दिश प्रेम को रंग ,
परन लागि भाँवरियाँ ,सिया रघुवर जी के संग ,
परड़ लागि भाँवरिया .....
तीनों बेटियों को भी इसी मंडप में ब्याह दिया जनक जी ने , मांडवी जी को भरत के साथ ,उर्मिला जी को लक्ष्मण जी के साथ , सुकीर्तिजी को शत्रुघ्न के साथ।
चारों दम्पति जब दसरथ जी को प्रणाम करने आये दशरथ जी भावावेश में एक शब्द नहीं बोल पाये ,इतने भाव -विभोर हो गए -जैसे चारों पुरुषार्थ धर्म -अर्थ -काम -मोक्ष एक साथ पा गए हों।
हल्का फुल्का हंसी मज़ाक व्यग्य विनोद बाण जानकी जी की सखियाँ चलाती हैं फेरों के वक्त -कहतीं हैं लक्ष्मण जी से तुम बहुत बड़बक करते हो माफ़ी मांग लो हम से नहीं हम पोल खोल देंगी अयोध्या की ,अयोध्या वालों को आता ही क्या है -खीर खा खा के तो महिलायें बच्चे पैदा करतीं हैं ,पुरुष तो बच्चे भी पैदा नहीं कर सकते -तुम चारों भाई तो यज्ञ का प्रसाद पाकर ही रानियों ने पैदा किये थे।
लक्ष्मण जी कब चूकने वाले थे बोले -हमारे यहां तो खीर से ही काम चल जाता है तुम्हारे यहां जनकपुर में तो बच्चे धरती में से खोद -खोद के निकाले जातें हैं। जानकी जी धरती में से ही प्रकट हुईं थीं।
"भक्ति में देह का भान नहीं रहता वही भक्ति निष्काम होती है -ये क्या हुआ जानकी जी की सखियाँ जनकपुर पक्ष के लोगों के नाम ले लेकर ही गाली गाने लगीं ,जनक जी बोले ये क्या करती हो। "
-हुआ ये था सकुचाते राम पर व्यंग्य कस रहीं थीं सखियाँ -तुमने तो अपनी बहन को भी सींगों वाले के साथ ब्याह दिया था। भगवान् नज़र उठाकर ऊपर देखते हैं सखियाँ सम्मोहित हो जातीं हैं भगवान् की इस अप्रतिम मोहिनी छवि को देख कर और और मोहित होकर अपने पक्ष के लोगों को ही गाली गाने लगतीं हैं।
विदा का समय भी आ पहुंचा है पूरी जनकपुर नगरी अश्रुपूरित है सुनैना जी जानकी जी से लिपट कर रो रहीं हैं।सखियाँ अन्य स्त्रियां जनकपुर की सुनैना जी को समझा रहीं हैं -ये क्षण तो हरेक बेटी के जीवन में आता ही है आपके जीवन में भी आया था जब आप अपने पिता को बिलखता रोता छोड़ आईं थी राजमहल में। परमज्ञानी ब्रह्मज्ञानी जनक नहीं पिता जनक भी रो कलप रहे हैं।
"पति जिस व्यवहार से प्रसन्न हों वैसा ही आचरण करना बेटी -दोनों परिवारों की लाज होती है बेटी -अब ये तुम्हारे हाथों में है -ये हिदायत देती हैं सुनैना जी जानजी को विदा वेला में। "
और जानकी जी इस स्थिति का पालन तब भी करती हैं जब उन्हें अयोध्या छोड़कर जाना पड़ता है वह भी तब जब वह आठ माह की गर्भवती होतीं हैं। क्योंकि रामराज्य की शासन मर्यादा का सवाल था जहां एक धोभी भी मायने रखता है।तोता मैना भी बिलख रहें हैं -
शुक सारिका जाई ,
व्याकुल तहाँ है वैदेहि।
शुक और सारिका भी विदा वेला में आशीर्वाद गाने लगते हैं।
तेरो सुहाग मनाऊँ ,इतर फुलैल लगाऊँ
कलियाँ चुन चुन सेज़ बिछाऊँ ,
पीया प्यारी को उढाऊ ,मनाऊँ
रसीली बैन सुनाुऊं मनाऊँ .
मुझे कोई सुविधा नहीं चाहिए। तेरा जूठा खालूंगी . ....मुझे भी अपने साथ ले चलो।
मुझे कुछ नहीं चाहिए।
(आज की कथा का विराम आता हैं यहां पर ..... आगे की कथा अगले अंक में ...)
सन्दर्भ -सामिग्री :
(१ )
Vijay Kaushal Ji Maharaj | Shree Ram Katha Ujjain Day 13 Part 2
(२ )
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