सत्संगति दुर्लभ संसारा ,
दुर्लभ सुलभ करा दे,ऐसा कोई संत मिले !
मेरा तार हरि संग जोड़े ,ऐसा कोई संत मिले।
कल भगवान् का अंशों समेत अवतार हुआ था कथा में।
घर -घर आनंद छायो उज्जैनी नगरी में ,
राम जन्म सुनि , पुर नर -नारी ,
नाँचहिं गावहिं ,दे दे तारी ,उज्जैनी नगरी में।
दुर्लभ सुलभ करा दे,ऐसा कोई संत मिले !
मेरा तार हरि संग जोड़े ,ऐसा कोई संत मिले।
कल भगवान् का अंशों समेत अवतार हुआ था कथा में।
घर -घर आनंद छायो उज्जैनी नगरी में ,
राम जन्म सुनि , पुर नर -नारी ,
नाँचहिं गावहिं ,दे दे तारी ,उज्जैनी नगरी में।
नेति नेति कहि महिमा गावे
वेदहु याको पार न पायो ,
वो बेटा बन आयो ,उज्जैनी नगरी में ,
उज्जैनी नगरी में।
वेदहु बन के आयो ,उज्जैनी नगरी में।
कौशल्या सुत जायो ,उज्जैनी नगरी में।
अरे घर घर बजत बढ़ायो ,उज्जैनी नगरी में।
नाँचहिं गावहिं दे दे तारी ,उज्जैनी नगरी में।
भगवान् राम का जन्म हो गया है अवध में जश्न का माहौल है :
जो जैसे बैठहि उठी धावा -
जैसे ही राजमहल के वाद्य यंत्र बजाये गये अटारियों से-जो जैसे भी स्थिति में था ,जहां भी बैठा था , जैसे भी था उठकर दौड़ा।
भगवान् से मिलने के लिए किसी तैयारी की आवश्यकता नहीं है। उपासना का सार तत्व है उल्लेखित चौपाई में।यही भगवान् से मिलने की आचार संहिता है।
भगवान् से मिलने के लिए सिर्फ अपनी स्थिति बदलिए कुछ छोड़ने की जरूरत नहीं है बस अच्छे लोगों का संग साथ कीजिये बुरे आपको छोड़के स्वत : ही चले जाएंगे।
संसार के काम में व्यवहार चाहिए भजन में स्वार्थ। भजन सबका अपना अपना जो कर ले सो तरे.भजन परमुखापेक्षी नहीं होता -तू करे तो मैं करूँ।
भजन को सबसे पहले नज़र लगती है ,कोई देखता है तो हँसता है लो जी देखो स्वामी जी को। इसीलिए कहा गया है भोजन और भजन एकांत में। कोई देख न ले छिपा कर करें भजन इसके प्रदर्शन की भी जरूरत नहीं है।
भक्त को सूरदास की तरह होना चाहिए -विरह दग्ध -गोपियों की तरह विरह अग्नि में जलते सुलगते हुए होना चाहिए। आद्र और आर्त पुकार से मिलते हैं भगवान्।
निसि दिन बरसत नैन हमारे ,
सदा रहत पावस ऋतु हम पर ,
जप ते श्याम सिधारे।
कहते हैं यमुना का पानी तो मीठा था ,कृष्ण द्वारका गए तो पूरे ब्रजमंडल का पानी खारा हो गया ब्रज वासियों के अश्रु -जल से।
ब्रज के बिरही लोग बिचारे ,
बिन गोपाल ठगे से सारे।
ऊपर से कृष्ण के सखा आ गए अपना ज्ञान बघारने। विरह अग्नि को उत्तप्त करने। नंदबाबा के घर का रास्ता पूछते हैं -गोपियाँ कहती हैं हम तभी समझ गए थे -ये कोई कृष्ण की उतरन पहनने वाला बहरूपिया है जिसे नंदबाबा का घर नहीं मालूम।
बोली इस नाली के संग -संग चला जा ,जहां जाकर ये खत्म हो वही नंद का घर है -वहीँ से निकलती है यह अश्रु -जल सिंचित धारा।
आते ही तुमने हमारा जख्म कुरेद दिया।
(उद्धव कृष्ण के पुराने )वस्त्र ही पहनते थे इतना प्रेम था उनको कृष्ण से।एक गोपी उन्हें दूर से देख बोली अपने कृष्ण आ रहे हैं दूसरी फ़ौरन उसकी बात काटते हुए बोली ,हमारे कृष्ण हमें देखवे के बाद रथ पे नहीं बैठे रहते रथ से उतर के दौड़े -दौड़े आते। ये कृष्ण नहीं हो सकते। कृष्ण लीलाएं गोपियाँ याद करती हैं :
अरे तेरो कुंवर कन्हैया मैया,
छेड़े मोहि डगरिया में ,
जल भरने यमुना तट जाऊँ ,
ये तो कंकर मारे गगरिया में।
तमाम लीलाएं कृष्ण की गोपियों को सताने आने लगीं उद्धव जी को देख के। वैसा सा ही रूप बनाये थे।
उपासना के सूत्र का प्रसंग देखिये -
महाराज दशरथ राजमहल में आये भोजन करने -भोजन तैयार है पूछते हैं कौशल्या जी से ?
हाँ तैयार है : महाराज फिर बोले राघव कहाँ है ?
गली में खेल रहा है।
सुमंत को भेजते हैं राघव को बुलाइये। दशरथ भगवान् को तो चाहते हैं आवाज़ नहीं लगाना चाहते। राया तो रथ पर जाते हैं ऐसे कैसे आवाज़ लगाते हुए भागें बच्चों के पीछे।
भोजन करति बोले जब राजा ,
नहीं आवत तजि बाल समाजा।
कौशल्या जब बोलन जाईं , ......
दशरथ जी धर्मात्मा राजा हैं। भोग को प्रसाद बनाइये -भक्त भोग नहीं प्रसाद पाता है।परमात्मा को भोग लगाने के बाद भोजन ही प्रसाद हो जाता है।
राम को गोद में बिठाकर खाना तो खाना चाहते हैं दशरथ।लेकिन खुद गली में जाकर आवाज़ लगाने में उन्हें संकोच है। आज गली में खेलते अपने बेटे राम को बुलाने के लिए दशरथ नौकर सुमंत को भेजते हैं।
"कल गुरु जी के सामने गिड़गिड़ाते थे जब मैं नहीं था।"- भगवान् नाराज़ हो गए।
"तुम राजा हो इसलिए तुम्हें नहीं बुलाना चाहिए ? आवाज़ लगाने के लिए शर्म लग रही थी। "-अगर तुम्हें मेरा नाम लेने में शर्म लग रही है तो मैं आपका मुंह तक नहीं देखूंगा।यहां यही सन्देश देती है राम कथा। राम पुकारने से ही मिलते हैं।
कौशल्या तो भगवान् के पीछे दौड़ती रहतीं हैं माँ हैं -भक्ति में पागल हैं भगवान् की।
भगवान् कहते हैं आप जीतीं मैं हारा ,भगवान् रास्ते में ही रुक जाते हैं भागते -भागते । ये भक्ति मार्ग पागलों का पागलखाना ही है।
लोग कहे मीरा भई बावली ...
मीरा जी ने किसी की नहीं सुनी लोगों ने उन्हें गाली दी मीरा ने उन्हें गीत दिया। जो जिसके पास होता है वह वही देता है।
चरित्र करके दिखाया जाता है भगवान् राम यही करते हैं -माता ,पिता ,गुरु तीनों की चरण वंदना करते है प्रात : उठते ही।
जिन मातु पिता की सेवा की ,
तिन तीरथ धाम कियो न कियो ।
जिनके हृदय श्री राम बसें ,
तिन और को नाम लियो न लियो।
सन्देश यहां पर यही है कथा का -हुड़किये मत माता पिता को ,जो इनका अपमान करता है भगवान् उस से पीठ मोड़ लेते हैं।
बूढ़ी माँ को बच्चों और अपनी पत्नी के सामने जो पुरुष फटकारता है ,उस माँ को प्रसव की पीड़ा याद आ जाती है।
'भादों के बरसे बिन ,माँ के परसे बिन' -
पेट नहीं भरता है -धरती भी प्यासी रहती है। यशोदा को कृष्ण की तरह प्यार न कर पाओ कोई बात नहीं उसका अपमान तो मत करो।
माँ भोजन नहीं करती है बालक के भूखे होने पर।
संतान और माँ साथ -साथ पैदा होते हैं जब पहली संतान पैदा होती है माँ भी तो तभी माँ बनती है।
माँ को कमसे कम इतना तो सोचने का मौक़ा दो -मेरा बेटा मेरा है। कुछ और न सही घर आने पर माँ का हाल चाल ही पूछ लीजिये।
राम बचपन से इसी मर्यादा का पालन करते हैं।
अब विश्वामित्र रिषी का प्रवेश हो रहा है कथा में :
हरी बिन मरै नहीं निसिचर पाती
मन का अपना स्वभाव है वह एक बार में एक ही काम कर सकता है -कथा सुन रहे हैं तो कथा ही सुनिए ,स्वेटर मत बनिये ,बीज मत छीलिए ,जबे मत तोड़िये।
जो इन्द्रीय सक्रीय होती है मन उसी में जुड़ जाता है।
सुनो तात मन चित लाई -कथा को ध्यान से सुनिए। कबीर कहते हैं :
तेरी सुनत सुनत बन जाई ,
हरि कथा सुनाकर भाई।
रंका तारा ,बंका तारा ,
तारा सगल कसाई ,
सुआ पढ़ावत गणिका तारी ,
तारी मीराबाईं ,
हरिकथा सुनाकर भाई।
गज को तारा गीध को तारा ,
तारा सेज सकाई ,
नरसी धन्ना सारे तारे ,
तारी करमाबाई ।
जो कुछ हम कानों से सुनते हैं वही हमारे मन में बस जाता है। हनुमान चालीसा में इसका प्रमाण है
प्रभु चरित्र सुनबै के रसिया
राम लखन सीता मनबसिया .....
भोग बसें हैं मन में ,तो भोग को ही खोजोगे ,भगवान बसे हैं तो भगवान् को खोजोगे ,भगवान् की खोज संतों के मिलन से पूरी होती है।
बिनु हरिकृपा मिलहिं नहीं संता ,
सतसंग भी कुसंग की तरह संक्रामक होता है।इसकी virility का अंदाज़ा नहीं लगा सकते आप।
जब संत मिलन हो जाये ,तेरी वाणी हरिगुण गाये,
तब इतना समझ लेना, अब हरी से मिलन होगा।
जब संत मिलन हो जाये ,तेरी वाणी हरिगुण गाये ,
आँखों से आंसू आये ,
तेरा मन गदगद हो जाये ,
दर्शन को मन ललचाये ,
कोई और न मन को भाये ,
तब इतना समझ लेना ,
अब हरी से मिलन होगा।
कथा सुन ने की लालसा है तो कोई न कोई संत भी मिल ही जाएगा। चाय पीने की लालसा है तो कोई खोखा भी चाय का मिल ही जाएगा।
विश्वामित्र -राम के भक्त बड़े पुरुषार्थी तपस्वी महात्मा हैं। लेकिन निशाचरों से मुक्त न हो पाए।इन्होनें त्रिशंकु नाम के राजा को सशरीर स्वर्ग में भेज दिया नियम विरुद्ध जब देवताओं ने विरोध किया तो एक नए स्वर्ग की ही रचना कर दी लेकिन निशाचरों से मुक्त नहीं हो पाए। हथियार डाल दिए ,यज्ञादिक अनुष्ठान छोड़ दिए।
निशाचर कोई व्यक्ति नहीं है वृत्ति है।आदतों को प्रवृत्ति को नहीं कहते निशाचर । वह नहीं हैं ये जिन्हें हम राक्षस समझते हैं।
निसाचर योनि नहीं है ,जो आदतें आपको निशि में विचरण कराती हैं निशाचरण कराती हैं।वे आदतें जो हम को उजाले से अँधेरे में ले जाती हैं ये आदतें संतों को भी सतातीं हैं। बीमारी सताती नहीं हैं दुष्प्रवृत्तियाँ सताती हैं -
सताती मतलब -सतत ,एक पल भी नहीं छोड़तीं दुष्प्रवृत्तियाँ।
बुराई को भगवान ही दूर कर सकते हैं। अच्छों के पास बैठो।बुराई से कोई अनुष्ठान ,पूजा पाठ नहीं बचाता है ,रोग तो औषधि से दूर होगा ,जब मनुष्य का सिर खाली रहेगा उसे बुराई से कोई बचा नहीं सकता।
माता पिता को सर पे रखिये ,गृहस्थी होने पर अपने छोटे बच्चों को अपने सर पे बिठाइये -वे मेरे इस आचरण के बारे में क्या सोचेंगे जो मैं करने जा रहा हूँ । करने से पहले सोच लें।
हरिबिनु मरै न निसचर पापी (पाती )
केहि कारण आगमन तुम्हारा ,
कहउँ सो करदन बाहउ वारा ?
दशरथ जी ने जब पूछा विश्वामित्र से-
बोले विश्वामित्र रोते हुए मैं तुमसे भीख मांगने आया हूँ -
असुर समूह सतावन ...
मैं याचन आयो नृपत
भगवान् राम खड़े थे उन्होंने तभी निर्णय ले लिया मेरे पिता के राज्य में ऋषि रो रहें हैं। भगवान् ने तभी प्रतिज्ञा कर ली ,मेरे राज्य में कोई दुखी नहीं रहेगा ,किसी ऋषि तपस्वी को रोना नहीं पड़ेगा ।
साधू !जवानी में अनुष्ठान करते हैं बुढ़ापे में सुख पाते हैं इस धर्मचर्चा का। "मैं सनाथ होना चाहता हूँ राजन ,अभी तक मैं अनाथ हूँ ,भगवान् से दूर हूँ ,आप राक्षसों को तो मार देंगें मैं तो अनाथ ही रहूँगा ,मुझे राम -लक्ष्मण की जोड़ी चाहिए। "-सविनय बोले थे विश्वामित्र दशरथ जी को।
विश्वामित्र जी रामलखन को ले जाते हैं इसके आगे की चर्चा अगले अंक में।
जयश्रीराम !जयसियाराम !जैसीताराम !
सन्दर्भ -सामिग्री :
(१ )
वेदहु याको पार न पायो ,
वो बेटा बन आयो ,उज्जैनी नगरी में ,
उज्जैनी नगरी में।
वेदहु बन के आयो ,उज्जैनी नगरी में।
कौशल्या सुत जायो ,उज्जैनी नगरी में।
अरे घर घर बजत बढ़ायो ,उज्जैनी नगरी में।
नाँचहिं गावहिं दे दे तारी ,उज्जैनी नगरी में।
भगवान् राम का जन्म हो गया है अवध में जश्न का माहौल है :
जो जैसे बैठहि उठी धावा -
जैसे ही राजमहल के वाद्य यंत्र बजाये गये अटारियों से-जो जैसे भी स्थिति में था ,जहां भी बैठा था , जैसे भी था उठकर दौड़ा।
भगवान् से मिलने के लिए किसी तैयारी की आवश्यकता नहीं है। उपासना का सार तत्व है उल्लेखित चौपाई में।यही भगवान् से मिलने की आचार संहिता है।
भगवान् से मिलने के लिए सिर्फ अपनी स्थिति बदलिए कुछ छोड़ने की जरूरत नहीं है बस अच्छे लोगों का संग साथ कीजिये बुरे आपको छोड़के स्वत : ही चले जाएंगे।
संसार के काम में व्यवहार चाहिए भजन में स्वार्थ। भजन सबका अपना अपना जो कर ले सो तरे.भजन परमुखापेक्षी नहीं होता -तू करे तो मैं करूँ।
भजन को सबसे पहले नज़र लगती है ,कोई देखता है तो हँसता है लो जी देखो स्वामी जी को। इसीलिए कहा गया है भोजन और भजन एकांत में। कोई देख न ले छिपा कर करें भजन इसके प्रदर्शन की भी जरूरत नहीं है।
भक्त को सूरदास की तरह होना चाहिए -विरह दग्ध -गोपियों की तरह विरह अग्नि में जलते सुलगते हुए होना चाहिए। आद्र और आर्त पुकार से मिलते हैं भगवान्।
निसि दिन बरसत नैन हमारे ,
सदा रहत पावस ऋतु हम पर ,
जप ते श्याम सिधारे।
कहते हैं यमुना का पानी तो मीठा था ,कृष्ण द्वारका गए तो पूरे ब्रजमंडल का पानी खारा हो गया ब्रज वासियों के अश्रु -जल से।
ब्रज के बिरही लोग बिचारे ,
बिन गोपाल ठगे से सारे।
ऊपर से कृष्ण के सखा आ गए अपना ज्ञान बघारने। विरह अग्नि को उत्तप्त करने। नंदबाबा के घर का रास्ता पूछते हैं -गोपियाँ कहती हैं हम तभी समझ गए थे -ये कोई कृष्ण की उतरन पहनने वाला बहरूपिया है जिसे नंदबाबा का घर नहीं मालूम।
बोली इस नाली के संग -संग चला जा ,जहां जाकर ये खत्म हो वही नंद का घर है -वहीँ से निकलती है यह अश्रु -जल सिंचित धारा।
आते ही तुमने हमारा जख्म कुरेद दिया।
(उद्धव कृष्ण के पुराने )वस्त्र ही पहनते थे इतना प्रेम था उनको कृष्ण से।एक गोपी उन्हें दूर से देख बोली अपने कृष्ण आ रहे हैं दूसरी फ़ौरन उसकी बात काटते हुए बोली ,हमारे कृष्ण हमें देखवे के बाद रथ पे नहीं बैठे रहते रथ से उतर के दौड़े -दौड़े आते। ये कृष्ण नहीं हो सकते। कृष्ण लीलाएं गोपियाँ याद करती हैं :
अरे तेरो कुंवर कन्हैया मैया,
छेड़े मोहि डगरिया में ,
जल भरने यमुना तट जाऊँ ,
ये तो कंकर मारे गगरिया में।
तमाम लीलाएं कृष्ण की गोपियों को सताने आने लगीं उद्धव जी को देख के। वैसा सा ही रूप बनाये थे।
उपासना के सूत्र का प्रसंग देखिये -
महाराज दशरथ राजमहल में आये भोजन करने -भोजन तैयार है पूछते हैं कौशल्या जी से ?
हाँ तैयार है : महाराज फिर बोले राघव कहाँ है ?
गली में खेल रहा है।
सुमंत को भेजते हैं राघव को बुलाइये। दशरथ भगवान् को तो चाहते हैं आवाज़ नहीं लगाना चाहते। राया तो रथ पर जाते हैं ऐसे कैसे आवाज़ लगाते हुए भागें बच्चों के पीछे।
भोजन करति बोले जब राजा ,
नहीं आवत तजि बाल समाजा।
कौशल्या जब बोलन जाईं , ......
दशरथ जी धर्मात्मा राजा हैं। भोग को प्रसाद बनाइये -भक्त भोग नहीं प्रसाद पाता है।परमात्मा को भोग लगाने के बाद भोजन ही प्रसाद हो जाता है।
राम को गोद में बिठाकर खाना तो खाना चाहते हैं दशरथ।लेकिन खुद गली में जाकर आवाज़ लगाने में उन्हें संकोच है। आज गली में खेलते अपने बेटे राम को बुलाने के लिए दशरथ नौकर सुमंत को भेजते हैं।
"कल गुरु जी के सामने गिड़गिड़ाते थे जब मैं नहीं था।"- भगवान् नाराज़ हो गए।
"तुम राजा हो इसलिए तुम्हें नहीं बुलाना चाहिए ? आवाज़ लगाने के लिए शर्म लग रही थी। "-अगर तुम्हें मेरा नाम लेने में शर्म लग रही है तो मैं आपका मुंह तक नहीं देखूंगा।यहां यही सन्देश देती है राम कथा। राम पुकारने से ही मिलते हैं।
कौशल्या तो भगवान् के पीछे दौड़ती रहतीं हैं माँ हैं -भक्ति में पागल हैं भगवान् की।
भगवान् कहते हैं आप जीतीं मैं हारा ,भगवान् रास्ते में ही रुक जाते हैं भागते -भागते । ये भक्ति मार्ग पागलों का पागलखाना ही है।
लोग कहे मीरा भई बावली ...
मीरा जी ने किसी की नहीं सुनी लोगों ने उन्हें गाली दी मीरा ने उन्हें गीत दिया। जो जिसके पास होता है वह वही देता है।
चरित्र करके दिखाया जाता है भगवान् राम यही करते हैं -माता ,पिता ,गुरु तीनों की चरण वंदना करते है प्रात : उठते ही।
जिन मातु पिता की सेवा की ,
तिन तीरथ धाम कियो न कियो ।
जिनके हृदय श्री राम बसें ,
तिन और को नाम लियो न लियो।
सन्देश यहां पर यही है कथा का -हुड़किये मत माता पिता को ,जो इनका अपमान करता है भगवान् उस से पीठ मोड़ लेते हैं।
बूढ़ी माँ को बच्चों और अपनी पत्नी के सामने जो पुरुष फटकारता है ,उस माँ को प्रसव की पीड़ा याद आ जाती है।
'भादों के बरसे बिन ,माँ के परसे बिन' -
पेट नहीं भरता है -धरती भी प्यासी रहती है। यशोदा को कृष्ण की तरह प्यार न कर पाओ कोई बात नहीं उसका अपमान तो मत करो।
माँ भोजन नहीं करती है बालक के भूखे होने पर।
संतान और माँ साथ -साथ पैदा होते हैं जब पहली संतान पैदा होती है माँ भी तो तभी माँ बनती है।
माँ को कमसे कम इतना तो सोचने का मौक़ा दो -मेरा बेटा मेरा है। कुछ और न सही घर आने पर माँ का हाल चाल ही पूछ लीजिये।
राम बचपन से इसी मर्यादा का पालन करते हैं।
अब विश्वामित्र रिषी का प्रवेश हो रहा है कथा में :
हरी बिन मरै नहीं निसिचर पाती
मन का अपना स्वभाव है वह एक बार में एक ही काम कर सकता है -कथा सुन रहे हैं तो कथा ही सुनिए ,स्वेटर मत बनिये ,बीज मत छीलिए ,जबे मत तोड़िये।
जो इन्द्रीय सक्रीय होती है मन उसी में जुड़ जाता है।
सुनो तात मन चित लाई -कथा को ध्यान से सुनिए। कबीर कहते हैं :
तेरी सुनत सुनत बन जाई ,
हरि कथा सुनाकर भाई।
रंका तारा ,बंका तारा ,
तारा सगल कसाई ,
सुआ पढ़ावत गणिका तारी ,
तारी मीराबाईं ,
हरिकथा सुनाकर भाई।
गज को तारा गीध को तारा ,
तारा सेज सकाई ,
नरसी धन्ना सारे तारे ,
तारी करमाबाई ।
जो कुछ हम कानों से सुनते हैं वही हमारे मन में बस जाता है। हनुमान चालीसा में इसका प्रमाण है
प्रभु चरित्र सुनबै के रसिया
राम लखन सीता मनबसिया .....
भोग बसें हैं मन में ,तो भोग को ही खोजोगे ,भगवान बसे हैं तो भगवान् को खोजोगे ,भगवान् की खोज संतों के मिलन से पूरी होती है।
बिनु हरिकृपा मिलहिं नहीं संता ,
सतसंग भी कुसंग की तरह संक्रामक होता है।इसकी virility का अंदाज़ा नहीं लगा सकते आप।
जब संत मिलन हो जाये ,तेरी वाणी हरिगुण गाये,
तब इतना समझ लेना, अब हरी से मिलन होगा।
जब संत मिलन हो जाये ,तेरी वाणी हरिगुण गाये ,
आँखों से आंसू आये ,
तेरा मन गदगद हो जाये ,
दर्शन को मन ललचाये ,
कोई और न मन को भाये ,
तब इतना समझ लेना ,
अब हरी से मिलन होगा।
कथा सुन ने की लालसा है तो कोई न कोई संत भी मिल ही जाएगा। चाय पीने की लालसा है तो कोई खोखा भी चाय का मिल ही जाएगा।
विश्वामित्र -राम के भक्त बड़े पुरुषार्थी तपस्वी महात्मा हैं। लेकिन निशाचरों से मुक्त न हो पाए।इन्होनें त्रिशंकु नाम के राजा को सशरीर स्वर्ग में भेज दिया नियम विरुद्ध जब देवताओं ने विरोध किया तो एक नए स्वर्ग की ही रचना कर दी लेकिन निशाचरों से मुक्त नहीं हो पाए। हथियार डाल दिए ,यज्ञादिक अनुष्ठान छोड़ दिए।
निशाचर कोई व्यक्ति नहीं है वृत्ति है।आदतों को प्रवृत्ति को नहीं कहते निशाचर । वह नहीं हैं ये जिन्हें हम राक्षस समझते हैं।
निसाचर योनि नहीं है ,जो आदतें आपको निशि में विचरण कराती हैं निशाचरण कराती हैं।वे आदतें जो हम को उजाले से अँधेरे में ले जाती हैं ये आदतें संतों को भी सतातीं हैं। बीमारी सताती नहीं हैं दुष्प्रवृत्तियाँ सताती हैं -
सताती मतलब -सतत ,एक पल भी नहीं छोड़तीं दुष्प्रवृत्तियाँ।
बुराई को भगवान ही दूर कर सकते हैं। अच्छों के पास बैठो।बुराई से कोई अनुष्ठान ,पूजा पाठ नहीं बचाता है ,रोग तो औषधि से दूर होगा ,जब मनुष्य का सिर खाली रहेगा उसे बुराई से कोई बचा नहीं सकता।
माता पिता को सर पे रखिये ,गृहस्थी होने पर अपने छोटे बच्चों को अपने सर पे बिठाइये -वे मेरे इस आचरण के बारे में क्या सोचेंगे जो मैं करने जा रहा हूँ । करने से पहले सोच लें।
हरिबिनु मरै न निसचर पापी (पाती )
केहि कारण आगमन तुम्हारा ,
कहउँ सो करदन बाहउ वारा ?
दशरथ जी ने जब पूछा विश्वामित्र से-
बोले विश्वामित्र रोते हुए मैं तुमसे भीख मांगने आया हूँ -
असुर समूह सतावन ...
मैं याचन आयो नृपत
भगवान् राम खड़े थे उन्होंने तभी निर्णय ले लिया मेरे पिता के राज्य में ऋषि रो रहें हैं। भगवान् ने तभी प्रतिज्ञा कर ली ,मेरे राज्य में कोई दुखी नहीं रहेगा ,किसी ऋषि तपस्वी को रोना नहीं पड़ेगा ।
साधू !जवानी में अनुष्ठान करते हैं बुढ़ापे में सुख पाते हैं इस धर्मचर्चा का। "मैं सनाथ होना चाहता हूँ राजन ,अभी तक मैं अनाथ हूँ ,भगवान् से दूर हूँ ,आप राक्षसों को तो मार देंगें मैं तो अनाथ ही रहूँगा ,मुझे राम -लक्ष्मण की जोड़ी चाहिए। "-सविनय बोले थे विश्वामित्र दशरथ जी को।
विश्वामित्र जी रामलखन को ले जाते हैं इसके आगे की चर्चा अगले अंक में।
जयश्रीराम !जयसियाराम !जैसीताराम !
सन्दर्भ -सामिग्री :
(१ )
Vijay Kaushal Ji Maharaj | Shree Ram Katha Ujjain Day 10 Part 2
(२ )https://www.youtube.com/watch?v=3qAK69WGJTc
(3 )
(3 )
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