कथा में प्रवेश से पूर्व इस बार -एक भक्तचरित नामदेव जी का दर्शन कर लें जो कपड़ों की रंगाई का काम करते थे। बहुत अलोकिक संत हुए हैं नामदेव ,इनके पिता हुए हैं वाम देव। वे भी श्रेष्ठ भक्त हुए हैं।
महाराष्ट्र में पंढरपुर में एक छोटी छीपी जाति में जन्में थे श्री राम देव। जैसे हमारा छोटा बच्चा हमारे साथ खेला करता है वैसे ही भगवान् बिठ्ठलनाथ इनके साथ ऐसे ही खेला करते थे।
इनकी एक बहन भी थी जिसकी बचपन में ही शादी हो गई थी और इनकी ये बहन जल्दी ही विधवा भी हो गई थी।गौड़ाई नाम था इनकी इस बहन का।
इस घटना का हेतु क्या था -भगवान् अपनी लीला दिखाना चाहते थे या कुछ और ?
भगवान् की इच्छा -उनका हमें दिया हुआ कुछ भी ,अनुकूल भी प्रसाद है प्रतिकूल भी। इसे कैप्स्यूल की तरह सटका जाता है इसका स्वाद लेना अपराध है। प्रसाद प्रसाद है हलुवा हो या चटपटा पोहा ,जब भगवान् ने भोग स्वीकार कर लिया ,इसका स्वाद ले लिया फिर हमारा अधिकार स्वाद लेने का नहीं रहता है।
यही भक्ति है जैसी प्रभु तेरी इच्छा :
जहां ले चलोगे वहीँ मैं चलूँगा ,
जहां नाथ रख लोगे वहीँ मैं रहूँगा।
न कोई उलाहना है न कोई अर्जी ,
कर लो करा लो जो है तेरी मर्जी ,
तुम जो कहोगे नाथ ,वही मैं करूंगा।
जहां ले चलोगे वहीँ मैं चलूँगा .....
प्रभु ने शुभ ही सोचा होगा। प्रभु हमारे बारे में सदैव शुभ ही सोचता है ,हमारी समझ में वह कई बार नहीं आता है वह और बात है। भगवान् कभी करके दिखाता है -देखता भी है हमें के इसे कृपा ही पसंद है या कभी मेरी इच्छा का भी आदर करता है। जो सिर झुका कर भगवान् की इच्छा स्वीकार कर लेते हैं इन पर कृपा भी जल्दी ही हो जाती है।
गौड़ाई पूजा पाठ के लिए पिता के साथ लग जाती है। एक दिन इसकी एक सहेली एक बालक को गोद में लिए इसके पास आती है गौड़ाई बच्चे को बड़े चाव ,लाड़ प्यार से खिलाती है और भगवान् को माध्यम बनाके सोचती है मेरी भी गोद में एक ऐसा ही बालक होता तो मेरे जीवन में भी कुछ तो होता।
प्रभु तोअंतर्यामी है इसलिए जो जैसा सोचता है वह वैसा ही कर देता है। चौबीस घंटे में चोबीस बार सरस्वती आती है हमारे पास हमारे शरीर में -जो आप सोचते हैं शुभ या शुभ उस समय आप जैसा सोच रहे होते हैं वही हो जाता है। यह एक सिद्ध बात है।
व्यास पीठ का यही निवेदन है अच्छा ही सोचिये जैसे ही मन अशुभ की ओर जाए मन को डाटिये मेरे घर में ठाकुर जी बैठे हैं आप कैसे प्रवेश पा सकते हैं । आप शुभ सोचना प्रारम्भ कीजिये ,अशुभ को तुरंत डाटिये। जैसा मनुष्य चिंतन करता है वैसा होता ही है।होने लगता है। यु बिकम वाट यु थिंक।
गौड़ाई भगवान् का रूप निहारती रहती है इसका भगवान् के प्रति आकर्षण मोह हो जाता है कामुक भाव आ जाता है भगवान के प्रति ।भगवान् एक दिन प्रकट हुए इसकी इच्छा पूर्ण कर दी। गौड़ाई गर्भवती हो गई। चारों और इसकी चर्चा होने लगी। छिपने वाली बात तो थी नहीं। निंदा होने लगी। निंदा रसगुल्ले से भी ज्यादा मीठी होती है। निंदा वामदेव जी के भी कान में आ गई। गौड़ाई से पिता ने पूछा -सच सच बताओ क्या हुआ -गौड़ाई ने घटना क्रम बतला दिया। रात को भगवान् वाम देव जी के स्वप्न में भी आये -कहा घबराइए मत।यह बालक मेरा ही अंश है। निंदा की चिंता मत करो। मैं ही अपने एक अंश से आ रहा हूँ।
जो बालक पैदा हुआ उसका नाम नामदेव रखा गया था क्योंकि जब पंडित जी ने पूछा इस बालक के पिता का नाम क्या है ठीक उसी समय आकाशवाणी हुई ये नामदेव है। ये मेरे नाम के प्रभाव से ही प्रकट हुआ है।
यहीं से नामदेव जी यात्रा आरम्भ होती है। बचपन से ही नामदेव जी भगवान् से खेला करते थे नाना से पूजा -सेवा मांगते थे -अब आप बूढ़े हो गए हैं मुझे पूजा सेवा दे दो।
एक बार नाना बाहर गए -नामदेव से बोले -बेटा हाथ जोड़ के ठाकुरजी को प्रार्थना करना दूध में खूब मिश्री मिलाकर उसका भोग लगाना -हाथ जोड़के प्रार्थना करना भगवान् दूध पीओ ,दूध पीओ। भगवान् दूध ज़रूर पिएंगे।
नामदेव ने पर्दा डाल दिया ,पर्दा खोला तो देखा दूध तो वैसा ही रखा है भगवान पी ही नहीं रहे हैं -नामदेव कहने लगे नाना का दूध तो पी लेते थे। मेरी सेवा में क्या कमी रह गई ,छुरी उठाई और अपना गला काटने लगे भगवान् तो लीला कर ही रहे थे। प्रकट हो गए।आजा बेटा नामा मेरी गोद में बैठ जा।भगवान् उस दूध को पीने लगे -नाम देव ने हाथ पकड़ लिया -मेरे लिए तो छोड़िये ,मुझे भूखा रखोगे।
जानत प्रीती रीति रघुराई ....
भगवान् प्रेम के वशीभूत होते हैं। जब मूर्ती व्यक्ति बन जाती है बात करने लगती है तब वह परमात्मा बन जाती है। अगर भगवान् आपके लिए पत्थर का है तो आप भी उसके लिए पत्थर के ही हैं अगर आप उन्हें जीवित मानते हैं तो वह भी ऐसा ही करेंगे।
मूर्ती तब तक मूर्ती है जब तक हमारे मन में उसके प्रति प्राणवान भाव नहीं है।
गरीब किसान की कथा आपने सुनी होगी जिस पर भारी कर्ज़ा चढ़ा हुआ था -किसी महात्मा ने बताया मंगलनाथ को प्रणाम करो नित्य गणेश को पूजो , दो लड्डू नित्य गणेश जी को चढ़ाओ सब विघ्न दूर होवेंगे। कई माह बीते कुछ भी नहीं हुआ।
एक दिन ये किसान कुम्भ नहाने आया वहां एक और महात्मा मिले इसने उन्हें अपनी व्यथा कथा बतलाई। महात्मा बोले गणेश का तो खुद का पेट इतना बड़ा है वही भर जाए तो बहुत है तेरा पेट कहाँ से भरेंगे। दुर्गा की पूजा करो जो सब देवताओं में ताकतवर है सिंह की सवारी करती है।
किसान दुर्गा की प्रतिमा ले आया ,पूजना शुरू कर दिया ,गणेश जी भी पास में रखे हुए थे। अगरबत्ती जलाई और जैसे ही अगरबत्ती का धूम्र गणेश जी की ओर गया ये भोला किसान अंदर भागा ,रुइ लाया और गणेश जी की नाक में ठूंस दिया कहते हुए -सुसरे काम धाम कुछ नहीं करोगे मुफ्त में अगरबत्ती की खुश्बू सूँघोगे।
तुरत गणेश जी प्रकट हो गए क्योंकि ये अब तक उन्हें मूर्ती ही मानता था और आज पहली बार इसने उन्हें जीवित समझा इस लिए तो गणेश जी को भी जीवित रूप आना ही पड़ा। हम भगवान् को क्या मानते हैं पत्थर ,कांसे की प्रतिमा या प्राणवान ?भगवान् भी हमें वैसा ही समझेगा।
भगवान भी उसी के अनरूप दिखेंगे आचरण करेंगे।यही सन्देश है कथा का यहां।
भजन तो हमने गाया लेकिन भगवान प्रकट तुझे हुए -
प्रसंग है गुरु समर्थ रामदास और उनकी गैया चराने वाले भोले भाले सेवक का जो पेटू होने की वजह से ढैया कहाने लगा था।
सिर्फ होंठों से मुख़ से भजन करना एक बात है और प्रेम पूर्वक भगवान् को प्राणवान बना दिल में बसाकर भजन करना और बात है।गर्मी बहुत बढ़ गई थी ढैया को काम के बीच में घर आकर खाना खाने में तकलीफ होती थी कहने लगा गुरु जी हम को आटा नमक आलू आदि दे दीजिये हम वहीँ चोखा बना कर खा लिया करेंगे। गुरु समर्थ रामदास जी बोले ठीक है लेकिन खुद खाने से पहले भगवान् को भोग ज़रूर लगाना ,उन्हें ज़रूर खुद से पहले खिलाना। ढैया ने ऐसा ही किया।
ढैया ने चोखा बनाने ,रोटी आदि बनाने के बाद भगवान के आगे परोस दिया। आँखें बंद की कहा खाओ भगवान्। ढैया ने जब आँखें खोली देखा भगवान् उसके हिस्से का भी खासा हिस्सा खा गए। दूसरे दिन ढैया ने ज्यादा राशन माँगा। भगवान् फिर आये इस बार सीताजी साथ में थीं। ढैया फिर भूखा रह गया। ढैया ने और अन्ना माँगा रामदास जी से ,गुरु जी ने दिलवा दिया भंडारे से।
इस बार भगवान लक्ष्मण जी को भी ले आये ,इसी तरह अन्ना बढ़वाता रहा ढैया और उधर भगवान का पूरा कुनबा भरत, शत्रुघ्न आदि भी खाने आने लगे।
भंडारे के लिए नियुक्त व्यक्ति ने समर्थ रामदास जी से कहा यह ज़रूर कुछ गड़बड़ करता है आप जाकर देखो खेत पर एक दिन । एक दिन समर्थ रामदास जी खुद खेत पर पहुंचे छिपकर देखा तो दंग रह गए -भगवान् का पूरा कुनबा जीम रहा था। भगवान् प्रेम के भूखे हैं ढैया भोला भाला साधारण गरीब आदमी था। समर्थ रामदास बोले भजन हम ने किया भगवान् के दर्शन तुम्हें हुए। सन्देश क्या है कथा का -
सबसे ऊंची प्रेम सगाई ,
दुर्योधन की मेवा त्यागी साग विधुर घर खाई।
जूठे फल शबरी के खाये ,बहुबिध प्रेम लगाईं ......
राम ही केवल प्रेम पियारा ,
जान लेहु जो जानन -हारा।
नाना जी को नामदेव जी ने ये घटना बताई है ,परदे के पीछे से नाना वामदेव को दिखाई है के भगवान नित्य दूध पी रहे हैं तो वह भी यही बोले सेवा तो हमने भी की क़ुबूल तेरी सेवा हुई।
निर्मल मन जन सोइ मोहे पावा ,
मोहि कपट छलछिद्र न भावा .....
सहज स्नेह विवश रघुराई ,
पूछी कुशल निकट से आई।
नामदेव जी की लीला अब प्रारम्भ होती है।
बोल हरी का नाम ले ले हरि का नाम बिठ्ठल पांडुरंगा ,
राम वही है श्याम वही है,कृष्ण वही बलराम वही है ,
सबमें समाई उसकी माया ,
उसकाभेद किसी ने न पाया पांडुरंगा ,
महिमा उसकी महान बिठ्ठल पांडुरंगा ,
पांडुरंगा पंढरनाथा पांडुरंगा।
सिकंदर लोदी द्वारा गाय काटना और नामदेव को विवश करना के वह उस मृत गाय को जीवित करके दिखलाये अंडर थ्रेट ,वरना तुम्हारा भी यही हश्र होगा।
सन्दर्भ :यात्रा नामदेव और ज्ञानदेव (संत ज्ञानेश्वर जी )की पंढरपुर से चलके दिल्ली पहुंची थी जहां सिंकंदर लोदी का शासन था उन दिनों।
भारी भीड़ को इस तरह देख सिकंदर लोदी विस्मित था पूछने पर दरबारियों ने बतलाया कोई करामाती हिन्दू फ़कीर है। सिकंदर लोदी ने हुक्म दिया था सेवकों को जाओ उसे -बुलाकर लाओ।हम भी तो देखें उसकी करामात।
नामदेव जी को कुरुक्षेत्र यात्रा पर अपने संग लाने की इज़ाज़त संतज्ञानेश्वर ने ही बिठ्ठल भगवान से प्राप्त की थी क्योंकि नामदेव जी ने ऐसा करने से इंकार कर दिया था -ये कहते हुए मैं तो बिठ्ठल जी के सिवाय किसी और को मानता नहीं (अनन्य भक्ति थी आपकी भगवान् बिठ्ठल जी के प्रति। )न ही मैं उनसे तुम्हारे साथ चलने के लिए पूछ सकता हूँ।आप खुद पूँछ लें गुरुदेव उनसे ,इज़ाज़त मिलेगी उनकी तो मैं आपके साथ चल पडूंगा। और ऐसा ही हुआ भी था।
नंदलाल सांवरिया सँवरिया मेरे ,
मेरा कोई नहीं सहारा बिन तेरे।
नंदलाल सँवरिया मेरे ,
गुण गाऊँ सांझ सवेरे .
नामदेव जी ने प्रभु से विनती की तेरी महिमा का सवाल है मैं गरीब तेरे सिवाय प्रभु मेरा कोई नहीं इस विपदा से तू ही निकाल कहकर नामदेव जी गाय से लिपट कर रोने लगे।
गाय उठकर ख़ड़ी हो गई। सिकंदर लोदी ने नामदेव जी के पैर पकड़ लिए।कहा कुछ मांगो -बोले नामदेव देना ही है तो अपने राज्य में आइंदा किसी हिन्दू फ़कीर को इस तरह मत बुलाना ,गाय की हत्या मत होने देना और अपने राज्य में अधर्म का कोई काम न होने देना हम को बस और कुछ नहीं चाहिए। हमको कभी दोबारा मत बुलाना -कहकर नामदेव जी निकल आये आगे की यात्रा पर।
प्रसंग जब संज्ञानेश्वर जी ने नामदेव के श्रद्धा से चरण पकड़ लिए जब के संत ज्ञानेश्वर तो उनके गुरु थे। हुआ ये के इनके मन में श्री- नाथ जी ,के दर्शन की इच्छा बलवती हुई। बेहद की गर्मी श्रीनाथ की, रास्ते में एक कुआं पड़ा बड़ी ज़ोर की प्यास लगी हुई थी दोनों संतों को नामदेव जी और गुरु ज्ञानेश्वर जी को। अब ज्ञानेश्वर जी तो योगी थे योगबल से सिद्धि द्वारा छोटा शरीर करके कुँए में उतर गए जल पीकर ऊपर भी आ गए ,नामदेव जी तो साधू थे उन्हें ऐसी कोई सिद्धि आती न थी ,बस कुआं में झाँक कर कहते रहे -नामा प्यासा मरा ,नामा प्यासा मरा बिठ्ठल तेरा नामा प्यासा मरा इसी के साथ रोते हुए नामा के दो आंसू ढुलक कर कुआं में गिर गए। पूरा कुआं उफ़न कर ऊपर आ गया दो बूँद आंसुओं के आवेग से।साथ में जितने भी लोग थे सबने जी भर कर जल पीया। इसी के साथ एक अद्भुत घटना घटी -संतज्ञानेश्वर जी ने नामदेव जी के यह कहते हुए पैर पकड़ लिए आज से आप मेरे गुरु। जो काम मेरा योग बल न कर सका ,वह आपके दो आंसुओं ने कर दिया। आप धन्य हैं गुरुवर।
संदर्भ -सामिग्री :
(१ )https://www.youtube.com/watch?v=KPI9ArGP5S4
(२ )
महाराष्ट्र में पंढरपुर में एक छोटी छीपी जाति में जन्में थे श्री राम देव। जैसे हमारा छोटा बच्चा हमारे साथ खेला करता है वैसे ही भगवान् बिठ्ठलनाथ इनके साथ ऐसे ही खेला करते थे।
इनकी एक बहन भी थी जिसकी बचपन में ही शादी हो गई थी और इनकी ये बहन जल्दी ही विधवा भी हो गई थी।गौड़ाई नाम था इनकी इस बहन का।
इस घटना का हेतु क्या था -भगवान् अपनी लीला दिखाना चाहते थे या कुछ और ?
भगवान् की इच्छा -उनका हमें दिया हुआ कुछ भी ,अनुकूल भी प्रसाद है प्रतिकूल भी। इसे कैप्स्यूल की तरह सटका जाता है इसका स्वाद लेना अपराध है। प्रसाद प्रसाद है हलुवा हो या चटपटा पोहा ,जब भगवान् ने भोग स्वीकार कर लिया ,इसका स्वाद ले लिया फिर हमारा अधिकार स्वाद लेने का नहीं रहता है।
यही भक्ति है जैसी प्रभु तेरी इच्छा :
जहां ले चलोगे वहीँ मैं चलूँगा ,
जहां नाथ रख लोगे वहीँ मैं रहूँगा।
न कोई उलाहना है न कोई अर्जी ,
कर लो करा लो जो है तेरी मर्जी ,
तुम जो कहोगे नाथ ,वही मैं करूंगा।
जहां ले चलोगे वहीँ मैं चलूँगा .....
प्रभु ने शुभ ही सोचा होगा। प्रभु हमारे बारे में सदैव शुभ ही सोचता है ,हमारी समझ में वह कई बार नहीं आता है वह और बात है। भगवान् कभी करके दिखाता है -देखता भी है हमें के इसे कृपा ही पसंद है या कभी मेरी इच्छा का भी आदर करता है। जो सिर झुका कर भगवान् की इच्छा स्वीकार कर लेते हैं इन पर कृपा भी जल्दी ही हो जाती है।
गौड़ाई पूजा पाठ के लिए पिता के साथ लग जाती है। एक दिन इसकी एक सहेली एक बालक को गोद में लिए इसके पास आती है गौड़ाई बच्चे को बड़े चाव ,लाड़ प्यार से खिलाती है और भगवान् को माध्यम बनाके सोचती है मेरी भी गोद में एक ऐसा ही बालक होता तो मेरे जीवन में भी कुछ तो होता।
प्रभु तोअंतर्यामी है इसलिए जो जैसा सोचता है वह वैसा ही कर देता है। चौबीस घंटे में चोबीस बार सरस्वती आती है हमारे पास हमारे शरीर में -जो आप सोचते हैं शुभ या शुभ उस समय आप जैसा सोच रहे होते हैं वही हो जाता है। यह एक सिद्ध बात है।
व्यास पीठ का यही निवेदन है अच्छा ही सोचिये जैसे ही मन अशुभ की ओर जाए मन को डाटिये मेरे घर में ठाकुर जी बैठे हैं आप कैसे प्रवेश पा सकते हैं । आप शुभ सोचना प्रारम्भ कीजिये ,अशुभ को तुरंत डाटिये। जैसा मनुष्य चिंतन करता है वैसा होता ही है।होने लगता है। यु बिकम वाट यु थिंक।
गौड़ाई भगवान् का रूप निहारती रहती है इसका भगवान् के प्रति आकर्षण मोह हो जाता है कामुक भाव आ जाता है भगवान के प्रति ।भगवान् एक दिन प्रकट हुए इसकी इच्छा पूर्ण कर दी। गौड़ाई गर्भवती हो गई। चारों और इसकी चर्चा होने लगी। छिपने वाली बात तो थी नहीं। निंदा होने लगी। निंदा रसगुल्ले से भी ज्यादा मीठी होती है। निंदा वामदेव जी के भी कान में आ गई। गौड़ाई से पिता ने पूछा -सच सच बताओ क्या हुआ -गौड़ाई ने घटना क्रम बतला दिया। रात को भगवान् वाम देव जी के स्वप्न में भी आये -कहा घबराइए मत।यह बालक मेरा ही अंश है। निंदा की चिंता मत करो। मैं ही अपने एक अंश से आ रहा हूँ।
जो बालक पैदा हुआ उसका नाम नामदेव रखा गया था क्योंकि जब पंडित जी ने पूछा इस बालक के पिता का नाम क्या है ठीक उसी समय आकाशवाणी हुई ये नामदेव है। ये मेरे नाम के प्रभाव से ही प्रकट हुआ है।
यहीं से नामदेव जी यात्रा आरम्भ होती है। बचपन से ही नामदेव जी भगवान् से खेला करते थे नाना से पूजा -सेवा मांगते थे -अब आप बूढ़े हो गए हैं मुझे पूजा सेवा दे दो।
एक बार नाना बाहर गए -नामदेव से बोले -बेटा हाथ जोड़ के ठाकुरजी को प्रार्थना करना दूध में खूब मिश्री मिलाकर उसका भोग लगाना -हाथ जोड़के प्रार्थना करना भगवान् दूध पीओ ,दूध पीओ। भगवान् दूध ज़रूर पिएंगे।
नामदेव ने पर्दा डाल दिया ,पर्दा खोला तो देखा दूध तो वैसा ही रखा है भगवान पी ही नहीं रहे हैं -नामदेव कहने लगे नाना का दूध तो पी लेते थे। मेरी सेवा में क्या कमी रह गई ,छुरी उठाई और अपना गला काटने लगे भगवान् तो लीला कर ही रहे थे। प्रकट हो गए।आजा बेटा नामा मेरी गोद में बैठ जा।भगवान् उस दूध को पीने लगे -नाम देव ने हाथ पकड़ लिया -मेरे लिए तो छोड़िये ,मुझे भूखा रखोगे।
जानत प्रीती रीति रघुराई ....
भगवान् प्रेम के वशीभूत होते हैं। जब मूर्ती व्यक्ति बन जाती है बात करने लगती है तब वह परमात्मा बन जाती है। अगर भगवान् आपके लिए पत्थर का है तो आप भी उसके लिए पत्थर के ही हैं अगर आप उन्हें जीवित मानते हैं तो वह भी ऐसा ही करेंगे।
मूर्ती तब तक मूर्ती है जब तक हमारे मन में उसके प्रति प्राणवान भाव नहीं है।
गरीब किसान की कथा आपने सुनी होगी जिस पर भारी कर्ज़ा चढ़ा हुआ था -किसी महात्मा ने बताया मंगलनाथ को प्रणाम करो नित्य गणेश को पूजो , दो लड्डू नित्य गणेश जी को चढ़ाओ सब विघ्न दूर होवेंगे। कई माह बीते कुछ भी नहीं हुआ।
एक दिन ये किसान कुम्भ नहाने आया वहां एक और महात्मा मिले इसने उन्हें अपनी व्यथा कथा बतलाई। महात्मा बोले गणेश का तो खुद का पेट इतना बड़ा है वही भर जाए तो बहुत है तेरा पेट कहाँ से भरेंगे। दुर्गा की पूजा करो जो सब देवताओं में ताकतवर है सिंह की सवारी करती है।
किसान दुर्गा की प्रतिमा ले आया ,पूजना शुरू कर दिया ,गणेश जी भी पास में रखे हुए थे। अगरबत्ती जलाई और जैसे ही अगरबत्ती का धूम्र गणेश जी की ओर गया ये भोला किसान अंदर भागा ,रुइ लाया और गणेश जी की नाक में ठूंस दिया कहते हुए -सुसरे काम धाम कुछ नहीं करोगे मुफ्त में अगरबत्ती की खुश्बू सूँघोगे।
तुरत गणेश जी प्रकट हो गए क्योंकि ये अब तक उन्हें मूर्ती ही मानता था और आज पहली बार इसने उन्हें जीवित समझा इस लिए तो गणेश जी को भी जीवित रूप आना ही पड़ा। हम भगवान् को क्या मानते हैं पत्थर ,कांसे की प्रतिमा या प्राणवान ?भगवान् भी हमें वैसा ही समझेगा।
भगवान भी उसी के अनरूप दिखेंगे आचरण करेंगे।यही सन्देश है कथा का यहां।
भजन तो हमने गाया लेकिन भगवान प्रकट तुझे हुए -
प्रसंग है गुरु समर्थ रामदास और उनकी गैया चराने वाले भोले भाले सेवक का जो पेटू होने की वजह से ढैया कहाने लगा था।
सिर्फ होंठों से मुख़ से भजन करना एक बात है और प्रेम पूर्वक भगवान् को प्राणवान बना दिल में बसाकर भजन करना और बात है।गर्मी बहुत बढ़ गई थी ढैया को काम के बीच में घर आकर खाना खाने में तकलीफ होती थी कहने लगा गुरु जी हम को आटा नमक आलू आदि दे दीजिये हम वहीँ चोखा बना कर खा लिया करेंगे। गुरु समर्थ रामदास जी बोले ठीक है लेकिन खुद खाने से पहले भगवान् को भोग ज़रूर लगाना ,उन्हें ज़रूर खुद से पहले खिलाना। ढैया ने ऐसा ही किया।
ढैया ने चोखा बनाने ,रोटी आदि बनाने के बाद भगवान के आगे परोस दिया। आँखें बंद की कहा खाओ भगवान्। ढैया ने जब आँखें खोली देखा भगवान् उसके हिस्से का भी खासा हिस्सा खा गए। दूसरे दिन ढैया ने ज्यादा राशन माँगा। भगवान् फिर आये इस बार सीताजी साथ में थीं। ढैया फिर भूखा रह गया। ढैया ने और अन्ना माँगा रामदास जी से ,गुरु जी ने दिलवा दिया भंडारे से।
इस बार भगवान लक्ष्मण जी को भी ले आये ,इसी तरह अन्ना बढ़वाता रहा ढैया और उधर भगवान का पूरा कुनबा भरत, शत्रुघ्न आदि भी खाने आने लगे।
भंडारे के लिए नियुक्त व्यक्ति ने समर्थ रामदास जी से कहा यह ज़रूर कुछ गड़बड़ करता है आप जाकर देखो खेत पर एक दिन । एक दिन समर्थ रामदास जी खुद खेत पर पहुंचे छिपकर देखा तो दंग रह गए -भगवान् का पूरा कुनबा जीम रहा था। भगवान् प्रेम के भूखे हैं ढैया भोला भाला साधारण गरीब आदमी था। समर्थ रामदास बोले भजन हम ने किया भगवान् के दर्शन तुम्हें हुए। सन्देश क्या है कथा का -
सबसे ऊंची प्रेम सगाई ,
दुर्योधन की मेवा त्यागी साग विधुर घर खाई।
जूठे फल शबरी के खाये ,बहुबिध प्रेम लगाईं ......
राम ही केवल प्रेम पियारा ,
जान लेहु जो जानन -हारा।
नाना जी को नामदेव जी ने ये घटना बताई है ,परदे के पीछे से नाना वामदेव को दिखाई है के भगवान नित्य दूध पी रहे हैं तो वह भी यही बोले सेवा तो हमने भी की क़ुबूल तेरी सेवा हुई।
निर्मल मन जन सोइ मोहे पावा ,
मोहि कपट छलछिद्र न भावा .....
सहज स्नेह विवश रघुराई ,
पूछी कुशल निकट से आई।
नामदेव जी की लीला अब प्रारम्भ होती है।
बोल हरी का नाम ले ले हरि का नाम बिठ्ठल पांडुरंगा ,
राम वही है श्याम वही है,कृष्ण वही बलराम वही है ,
सबमें समाई उसकी माया ,
उसकाभेद किसी ने न पाया पांडुरंगा ,
महिमा उसकी महान बिठ्ठल पांडुरंगा ,
पांडुरंगा पंढरनाथा पांडुरंगा।
सिकंदर लोदी द्वारा गाय काटना और नामदेव को विवश करना के वह उस मृत गाय को जीवित करके दिखलाये अंडर थ्रेट ,वरना तुम्हारा भी यही हश्र होगा।
सन्दर्भ :यात्रा नामदेव और ज्ञानदेव (संत ज्ञानेश्वर जी )की पंढरपुर से चलके दिल्ली पहुंची थी जहां सिंकंदर लोदी का शासन था उन दिनों।
भारी भीड़ को इस तरह देख सिकंदर लोदी विस्मित था पूछने पर दरबारियों ने बतलाया कोई करामाती हिन्दू फ़कीर है। सिकंदर लोदी ने हुक्म दिया था सेवकों को जाओ उसे -बुलाकर लाओ।हम भी तो देखें उसकी करामात।
नामदेव जी को कुरुक्षेत्र यात्रा पर अपने संग लाने की इज़ाज़त संतज्ञानेश्वर ने ही बिठ्ठल भगवान से प्राप्त की थी क्योंकि नामदेव जी ने ऐसा करने से इंकार कर दिया था -ये कहते हुए मैं तो बिठ्ठल जी के सिवाय किसी और को मानता नहीं (अनन्य भक्ति थी आपकी भगवान् बिठ्ठल जी के प्रति। )न ही मैं उनसे तुम्हारे साथ चलने के लिए पूछ सकता हूँ।आप खुद पूँछ लें गुरुदेव उनसे ,इज़ाज़त मिलेगी उनकी तो मैं आपके साथ चल पडूंगा। और ऐसा ही हुआ भी था।
नंदलाल सांवरिया सँवरिया मेरे ,
मेरा कोई नहीं सहारा बिन तेरे।
नंदलाल सँवरिया मेरे ,
गुण गाऊँ सांझ सवेरे .
नामदेव जी ने प्रभु से विनती की तेरी महिमा का सवाल है मैं गरीब तेरे सिवाय प्रभु मेरा कोई नहीं इस विपदा से तू ही निकाल कहकर नामदेव जी गाय से लिपट कर रोने लगे।
गाय उठकर ख़ड़ी हो गई। सिकंदर लोदी ने नामदेव जी के पैर पकड़ लिए।कहा कुछ मांगो -बोले नामदेव देना ही है तो अपने राज्य में आइंदा किसी हिन्दू फ़कीर को इस तरह मत बुलाना ,गाय की हत्या मत होने देना और अपने राज्य में अधर्म का कोई काम न होने देना हम को बस और कुछ नहीं चाहिए। हमको कभी दोबारा मत बुलाना -कहकर नामदेव जी निकल आये आगे की यात्रा पर।
प्रसंग जब संज्ञानेश्वर जी ने नामदेव के श्रद्धा से चरण पकड़ लिए जब के संत ज्ञानेश्वर तो उनके गुरु थे। हुआ ये के इनके मन में श्री- नाथ जी ,के दर्शन की इच्छा बलवती हुई। बेहद की गर्मी श्रीनाथ की, रास्ते में एक कुआं पड़ा बड़ी ज़ोर की प्यास लगी हुई थी दोनों संतों को नामदेव जी और गुरु ज्ञानेश्वर जी को। अब ज्ञानेश्वर जी तो योगी थे योगबल से सिद्धि द्वारा छोटा शरीर करके कुँए में उतर गए जल पीकर ऊपर भी आ गए ,नामदेव जी तो साधू थे उन्हें ऐसी कोई सिद्धि आती न थी ,बस कुआं में झाँक कर कहते रहे -नामा प्यासा मरा ,नामा प्यासा मरा बिठ्ठल तेरा नामा प्यासा मरा इसी के साथ रोते हुए नामा के दो आंसू ढुलक कर कुआं में गिर गए। पूरा कुआं उफ़न कर ऊपर आ गया दो बूँद आंसुओं के आवेग से।साथ में जितने भी लोग थे सबने जी भर कर जल पीया। इसी के साथ एक अद्भुत घटना घटी -संतज्ञानेश्वर जी ने नामदेव जी के यह कहते हुए पैर पकड़ लिए आज से आप मेरे गुरु। जो काम मेरा योग बल न कर सका ,वह आपके दो आंसुओं ने कर दिया। आप धन्य हैं गुरुवर।
संदर्भ -सामिग्री :
(१ )https://www.youtube.com/watch?v=KPI9ArGP5S4
(२ )
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें