एक संत का दर्शन करते हैं 'राम कथा' से पहले :संत रैदास
परम गति के लिए गर्भ नहीं कर्म और स्वभाव महत्वपूर्ण होता है ,रैदास जी का जीवन इसे रूपायित करता है।
चमड़े का काम करने वाले इस संत का जन्म काशी में हुआ था । सात जन्मों से ब्राह्मण परिवार में आ रहे थे ,शूद्र जाति में आ गये -परमगति प्राप्त हुई शूद्र जाति में आने के बाद ।
किस गर्भ में आप आये हैं इसके कोई ख़ास मायने नहीं हैं।परमगति के लिए कर्म आवश्यक है ,आपका स्वभाव क्या यह भी ?
विदेह कोटि के संत हुए ,परमहंस अवस्था के - रैदास जी।
गत जन्म की स्मृति थी रैदास जी को। अरे मैं तो ब्राह्मण था शूद्र शरीर में मेरा जन्म हो गया। अब ये बालक अपनी शूद्र माता का दूध न पिए ,स्वामी रामानंद जी इनकी बस्ती में चलकर आये ,उन्हीं के आशीर्वाद प्रसाद से यह बालक पैदा हुआ था। इनके पिता को कोई संतान तब तक नहीं थी जब तक स्वामी रामानंद जी का प्रसाद इनको किसी और व्यक्ति ने लाकर न दिया था ।रामानंद जी ने देखा यह बच्चा तो वही है -बालक को आशीर्वाद दिया ,बोले बालक दूध पियो तुम्हें बहुत महान कार्य करने हैं। बस बालक दूध पीने लगा।गुरु का आदेश जो था। रामानंद जी ही इनके गुरु हुए हैं।
काशी नगरी में हाहाकार मच गया ,एक संत की बस्ती में स्वामी रामानंद के पहुँचने की खबर से। चर्मकारों की बस्ती थी ये। लेकिन साधु इसकी परवाह नहीं करता। साधु तो निश्चिन्त होता है ,संसारी परवाह करता है लोगों की बातों की। साधु नहीं।साधु मनमौजी होता है अपनी मौज़ में भगवान् की भी परवाह नहीं करता है। फक्कड़ी इसे ही कहते हैं।
बचपन से ही पूर्वजन्म के संस्कारों की वजह से रैदास भक्ति ,पाठ पूजा में ही डूबे रहते थे। बाप ने सोचा इनकी शादी कर दो ढर्रे पे आ जाएगा करता धरता कुछ है नहीं। अब पत्नी भी ऐसी ही पूजा पाठ में मग्न रहने वाली निकली। समस्या पहले से दोगुनी हो गई। ऐसे घर का खर्चा पानी मुश्किल से ही चलता। लेकिन साधु-सेवा ये अपना तन काटकर भी करते।
एक दिन भगवान् साधारण साधु का वेश धर के इनकी छप्पर नुमा दूकान पर आ पहुंचे -सुना है तुम साधु सेवा में ही ज्यादा रहते हो पूजा पाठ में तो बड़े पक्के हो लेकिन गृहस्थी की गाड़ी चलाये रखने के लिए तुम्हारी आमदनी बहुत कम है ,ऐसा करो मेरे पास ये पारस मणि है ये लोहे को स्वर्ण में बदल देती है इसे तुम रख लो। भगवान ने जिस रापी (राँपी ) से ये चमड़ा काटते थे उस को पारसमणि से छुआ कर उसे स्वर्ण में भी बदल के दिखलाया।
रैदास बोले मेरे ये किस काम की है -मैं अपनी महनत से जो दो पैसे कमाता हूँ उसमें ही कटौती करके थोड़ी साधु सेवा कर लेता हूँ। काम चल रहा है।आप ज्यादा ही ज़िद करते हो तो यही कहीं छप्पर में खौंप दीजिये ज़रूरत पड़ी तो देख लूंगा।
भगवान् कहने लगे हम ने सुना है तुम्हारी पत्नी कड़ी -पकौड़ी बहुत अच्छी बनातीं हैं भोजन प्रसाद नहीं करवाओगे अपने घर।
रैदास बोले मेरी जाति चमार है आप साधु समाज से भी बहिस्कृत हो जाओगे और कुछ पैसे देने लगे।भगवान् ने कहा हम तो अच्युत गोत्री हैं तुम्हारी जाति के ही है वैसे भी-
जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिये ज्ञान ,
मोल करो तलवार का पड़ी रेहन दो म्यान।
भगवान् भाव देखते हैं वस्तु नहीं।जाति नहीं भक्ति देखते हैं भक्त की। भगवान् ने ज़िद की तो ये साधु को घर ले आये और भोजन प्रसाद करवाया भोग निकालने के बाद। अब रैदास तो संत थे इनका रोम -रोम आज पुलक से भर गया ये नाचने लगे भगवान् का सानिद्य पाकर।
आखिर साधु वेश में थे तो क्या थे तो भगवान् ही -हम तो लाइन में लगते हैं और तिरुपति जैसी भीड़भाड़ वाली जगह में जब लम्बी प्रतीक्षा के बाद नंबर आता है एक झलक पाकर ही वैंकटेश्वर भगवान की निहाल हो जाते हैं ये तो साक्षात भगवान् ही थे मंदिर में तो प्रतिमा ही निहाल करती है।
चाह गई चिंता मिटी मनवा बे -परवाह ,
जाकु कछु न चाहिए सोहि शहंशाह।
आज मेरे घर आया रामजी का प्यारा ,
करहुं दंडवत चरण पखारूं ,
तन मन धन संतन पे वारूँ .
आँगन भवन भयो अति पावन ,
हरिजन बैठे हरी जस गावन ,
कह रहे रैदास ,मिले -हरिदासा ,
जनम जनम की पूरी आशा।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ......
एक वर्ष बाद भगवान् फिर लौटे बोले वो हमारी वस्तु तुम्हारे पास है उसका कोई उपयोग किया या नहीं -रैदास बोले हम को तो पता नहीं आप देख लो कहाँ रखी थी आपने।वहीँ रखी होगी।
भगवान् भी बड़े कौतुकी हैं लीला रची पारसमणि तो उठा ली रोज़ाना ठाकुरजी के नीचे पांच स्वर्ण मोहरे रख देते।
रैदास वह मोहरे चिमटी से उठाते और गंगा में बहा देते। भगवान् ने दर्शन दिया -कहा रैदास अपनी ज़िद पर मत अड़ो ,सत्संग भवन और आश्रम बनाओ इन पैसो का। भगवान् की इच्छा सरआंखों पर।
शानदार सतसंग भवन और आश्रम रैदास ने बनवाया भारी भीड़ उमड़ने लगी काशी के संतों पुजारियों को लगने लगा इसने तो हमारी दूकान ही बंद करवा दी।
संतों ने काशी नरेश को अपने हक़ में कर लिया। कहा ये जात का चमार कुछ टोना टोटका करता है मन्त्र -वंत्र इसे कुछ नहीं आते ,बुलाकर देख लो। लोगों को बहकाता है यह।
काशी नरेश ने ब्राह्मणों से कहा आप अपने ठाकुरजी लाइए ,रैदास को कहा आप भी अपने ठाकुरजी लाइए -पद गाइये भगवान् को अपने पास बुलाइये।
ब्राह्मणों ने पद पे पद गाये भगवान् चलकर नहीं आये ,अपनी जगह से हिले भी नहीं।
अब रैदास की बारी थी -
रैदास ने छोटा सा पद गाया -
हे हरि आवहु वेगि हमारे ,
पत राखो रैदास पतित की ,
दशरथ राज दुलारे ,
हे हरी आवहु बेगि हमारे .....
भगवान् छम छम करते हुए रैदास की गोद में आ गए। ब्राह्मण अब भी नहीं माने बोले ये जादू टोना करता है। काशी नरेश ने माथा टेक दिया इस चर्मकार के चरणों में।
'विश्वनाथ प्रमाणित करें तब मानेंगे ये भगवान् तो इनके अपने हैं।'पंडित अभी भी अड़े रहे - काशी नरेश ने विश्वनाथ जी को माला पहना दीं ।
ब्राह्मणों ने पद गाए माला हिली नहीं रैदास ने गाया माला उड़कर उनके गले में आ गई।
काशी नरेश को शंकर जी का अवतार माना जाता है अक्सर आप रैदास के पास आ जाते थे पद सुनने।एक बार रैदास जी ध्यान में बैठे थे -आँखें खोलीं तो सामने काशी नरेश खड़े थे। रैदास जी ने वही पानी इन्हें दिया जिससे चमड़ा धोते थे।नरेश ने पीने का नाटक किया सोचते हुए चमड़े धोने वाला पानी ही दे दिया। पानी उनकी कोट की आस्तीन में चला गया। वहां निशाँ पड़ गए।
धोभी ने धोकर दाग छुड़ाने की लाख कोशिश की और भाव समाधि में चले गए और यह घटना नरेश को बतलाई।
जब प्यासे थे ,तब पीया नहीं ,
जिन पीया , पिया को जान लिया।
भोला जोगी फिरै दीवाना,
वो पानी मुल्तान गया।
नरेश को अपनी गलती महसूस हुई और दोबारा पहुंचे ,वही चरणामृत पीने को माँगा -बोले रैदास अब ये मात्र पानी है चरणामृत नहीं है ,इसे पीने का कोई फायदा नहीं .
ऐसा ही किस्सा गोरखनाथ जी के साथ जुड़ा हुआ है।
एक बार ये काशी में रैदास जी के पास उनकी छप्परनुमा दूकान पर आये इन्हें उस समय बहुत ज़ोर से प्यास लगी थी इन्होनें रैदास से पानी माँगा -रैदास ने इन्हें अपने उसी पात्र में से पानी दे दिया जिसका इस्तेमाल ये अपने चमड़े को धोने के लिए करते थे। गोरखनाथ जी ने पानी अपने खप्पर में रख लिया और मन में सोचते हुए आगे बढ़ गए ,ये चर्म को धोने में प्रयुक्त होने वाला पानी मैं पीऊंगा ?
कबीर के घर पहंच गए काशी में -कमाली उन दिनों छोटी सी थी उसने कौतुक में इनका खप्पर उठाया और वह जल पी गई। कमाली बड़ी हुई उसकी शादी हो गई और वह शादी के बाद मुल्तान आ गईं उस समय पाकिस्तान का अस्तित्व नहीं था भारत अखंड था।
कालान्तर में एक बार गुरु गोरखनाथ का मुल्तान आना हुआ। ये अपनी सिद्धियों के लिए जाने जाते थे। भारी सैलाब उमड़ा ,नगर का हर सभ्रांत व्यक्ति चाहता था गोरखनाथ जी भोजन प्रसाद उनके ही घर ग्रहण करें।
गोरखनाथ ने इसके लिए एक शर्त रखी- जो कोई मेरे खप्पर को भर देगा मैं उसी के यहां भोजन प्रसाद ग्रहण करूंगा। कोई भी ऐसा न कर पा रहा था खबर कमाली तक भी पहुंची उसने अपने पति से कहा आप भी उन्हें बुलाओ मैं भी खप्पर सेवा करूंगी। पति बोला बावली हम जाति के भी जुलाहे हैं हम कैसे उस खप्पर को भर सकते हैं जिसे शहर के नाम- चीन लोग भी न भर पाए।
उसने ज़िद की पति ने बुलवा लिया कमाली को सेवा का मौक़ा देने के लिए गोरखनाथ जी को आग्रह करके। गोरखनाथ आये -कमाली ने उनके खप्पर में एक चम्मच चावल डाला ,खप्पर भर गया।
चमत्कृत गोरखनाथ बोले कमाली तुमने ये कमाल कहाँ से सीखा -बोली कमाली मैं ने कहीं से नहीं सीखा ये सब आपके खप्पर का ही कमाल है जब मैं छोटी थी आप हमारे घर काशी पधारे थे मैं खेल -खेल में इस खप्पर का सारा जल पी गई थी जिसे आप न पी पाए थे किसी संकोच -वश।
अविलम्ब गोरख सीधे योगमार्ग से काशी आ पहुंचे रैदास के पास और उस पात्र को उठकर मुंह से ही जल ग्रहण करने लगे। रैदास हंसकर बोले यह अब सिर्फ चर्म धोने में प्रयुक्त पानी है कोई चरणामृत नहीं है।
'मनचंगा तो कठौती में गंगा ' मुहावरे का अपना प्रसंग है।
एक लालची पंडित थे गंगा स्नान को जा रहे थे पूछा रैदास से आप भी चलिए। वह कहने लगे भैया मेरे ये दो केले गंगा मैया को चढ़ा देना मैं तो न जा सकूंगा।
पंडित जी ने ऐसा किया ज़रूर लेकिन गंगा मैया ने दोनों हाथ बाहर निकालकर जो एक हीरों का कंगन समेत आकाशवाणी के दिया पर वह वाणी सिर्फ पंडित जी ही सुन सकते थे अन्य नहीं। कहा गया था ये कंगन मेरे रैदास को दे देना। पंडित जी लालच से भर गए इतना बेश -कीमती कंगन उन्होंने इससे पहले देखा ही कहाँ था। उन्होंने ये कंगन अपनी पंडाइन को दे दिया उसने कहा कहाँ इतना कीमती कंगन पहनूंगी लोगों ने मुझे पहने देखा तो कहेंगे इसने कहीं से चुराया है इस गरीब पंडाइन के पास यह कैसे आया ?उसके कहने पर उसने वह कंगन एक सुनार को बेच दिया।
सुनार को पता था इतना कीमती कंगन खरीदने वाला काशी में कोई ग्राहक नहीं है उसने वह कंगन काशी नरेश को और नरेश ने वह अपनी पत्नी रानी साहिबा को दे दिया।कंगन उन्हें इतना पसंद आया वह दूसरे हाथ के लिए भी वैसा ही कंगन मांगने लगीं। राजा जेवर वाले सुनार के पास पहुंचा उनसे पता चला एक पंडित जी इसे बेच गए थे। पंडित जी ने नरेश को दंड के भय से सच -सच सब कुछ बता दिया।
नरेश काशी रैदास के पास पहुंचे और उनसे कहा ऐसा एक कंगन और चाहिए -रैदास बोले पहले हाथ तो दिखाओ जिसमें ये कंगन आएगा। यानी कंगन भी चाहिए और अपना बड़प्पन भी बरकरार रखना है। रानी ने आखिरकार झुककर अपना हाथ दिखाया -रैदास ने कठौती में हाथ डाला प्रार्थना की माँ गंगा से मैया मुझे इसके साथ का दूसरा कंगन दे दो ,ये तुम्हारे भक्त की लाज का सवाल है। कठौती में से हाथ बाहर निकाला तो उसमें कंगन था।
तभी से ये मुहावरा चल निकला -
'मन चंगा तो कठौती में गंगा ' -माँ गंगा अपने बेटे को कठौती में आकर कंगन दे गईं।
संत संग तिन पातक टरहीं -
मेरा तार हरी संग जोड़े,
ऐसा कोई संत मिले ,
बस जीवन में यही आस होनी चाहिए।
बाबा तुलसी कह गए हैं -
एक घड़ी आधी घड़ी ,आधी की पुनि आध ,
तुलसी संगत साधु की काटे कोटि अपराध।
सन्दर्भ -सामिग्री :
(१ )
परम गति के लिए गर्भ नहीं कर्म और स्वभाव महत्वपूर्ण होता है ,रैदास जी का जीवन इसे रूपायित करता है।
चमड़े का काम करने वाले इस संत का जन्म काशी में हुआ था । सात जन्मों से ब्राह्मण परिवार में आ रहे थे ,शूद्र जाति में आ गये -परमगति प्राप्त हुई शूद्र जाति में आने के बाद ।
किस गर्भ में आप आये हैं इसके कोई ख़ास मायने नहीं हैं।परमगति के लिए कर्म आवश्यक है ,आपका स्वभाव क्या यह भी ?
विदेह कोटि के संत हुए ,परमहंस अवस्था के - रैदास जी।
गत जन्म की स्मृति थी रैदास जी को। अरे मैं तो ब्राह्मण था शूद्र शरीर में मेरा जन्म हो गया। अब ये बालक अपनी शूद्र माता का दूध न पिए ,स्वामी रामानंद जी इनकी बस्ती में चलकर आये ,उन्हीं के आशीर्वाद प्रसाद से यह बालक पैदा हुआ था। इनके पिता को कोई संतान तब तक नहीं थी जब तक स्वामी रामानंद जी का प्रसाद इनको किसी और व्यक्ति ने लाकर न दिया था ।रामानंद जी ने देखा यह बच्चा तो वही है -बालक को आशीर्वाद दिया ,बोले बालक दूध पियो तुम्हें बहुत महान कार्य करने हैं। बस बालक दूध पीने लगा।गुरु का आदेश जो था। रामानंद जी ही इनके गुरु हुए हैं।
काशी नगरी में हाहाकार मच गया ,एक संत की बस्ती में स्वामी रामानंद के पहुँचने की खबर से। चर्मकारों की बस्ती थी ये। लेकिन साधु इसकी परवाह नहीं करता। साधु तो निश्चिन्त होता है ,संसारी परवाह करता है लोगों की बातों की। साधु नहीं।साधु मनमौजी होता है अपनी मौज़ में भगवान् की भी परवाह नहीं करता है। फक्कड़ी इसे ही कहते हैं।
बचपन से ही पूर्वजन्म के संस्कारों की वजह से रैदास भक्ति ,पाठ पूजा में ही डूबे रहते थे। बाप ने सोचा इनकी शादी कर दो ढर्रे पे आ जाएगा करता धरता कुछ है नहीं। अब पत्नी भी ऐसी ही पूजा पाठ में मग्न रहने वाली निकली। समस्या पहले से दोगुनी हो गई। ऐसे घर का खर्चा पानी मुश्किल से ही चलता। लेकिन साधु-सेवा ये अपना तन काटकर भी करते।
एक दिन भगवान् साधारण साधु का वेश धर के इनकी छप्पर नुमा दूकान पर आ पहुंचे -सुना है तुम साधु सेवा में ही ज्यादा रहते हो पूजा पाठ में तो बड़े पक्के हो लेकिन गृहस्थी की गाड़ी चलाये रखने के लिए तुम्हारी आमदनी बहुत कम है ,ऐसा करो मेरे पास ये पारस मणि है ये लोहे को स्वर्ण में बदल देती है इसे तुम रख लो। भगवान ने जिस रापी (राँपी ) से ये चमड़ा काटते थे उस को पारसमणि से छुआ कर उसे स्वर्ण में भी बदल के दिखलाया।
रैदास बोले मेरे ये किस काम की है -मैं अपनी महनत से जो दो पैसे कमाता हूँ उसमें ही कटौती करके थोड़ी साधु सेवा कर लेता हूँ। काम चल रहा है।आप ज्यादा ही ज़िद करते हो तो यही कहीं छप्पर में खौंप दीजिये ज़रूरत पड़ी तो देख लूंगा।
भगवान् कहने लगे हम ने सुना है तुम्हारी पत्नी कड़ी -पकौड़ी बहुत अच्छी बनातीं हैं भोजन प्रसाद नहीं करवाओगे अपने घर।
रैदास बोले मेरी जाति चमार है आप साधु समाज से भी बहिस्कृत हो जाओगे और कुछ पैसे देने लगे।भगवान् ने कहा हम तो अच्युत गोत्री हैं तुम्हारी जाति के ही है वैसे भी-
जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिये ज्ञान ,
मोल करो तलवार का पड़ी रेहन दो म्यान।
भगवान् भाव देखते हैं वस्तु नहीं।जाति नहीं भक्ति देखते हैं भक्त की। भगवान् ने ज़िद की तो ये साधु को घर ले आये और भोजन प्रसाद करवाया भोग निकालने के बाद। अब रैदास तो संत थे इनका रोम -रोम आज पुलक से भर गया ये नाचने लगे भगवान् का सानिद्य पाकर।
आखिर साधु वेश में थे तो क्या थे तो भगवान् ही -हम तो लाइन में लगते हैं और तिरुपति जैसी भीड़भाड़ वाली जगह में जब लम्बी प्रतीक्षा के बाद नंबर आता है एक झलक पाकर ही वैंकटेश्वर भगवान की निहाल हो जाते हैं ये तो साक्षात भगवान् ही थे मंदिर में तो प्रतिमा ही निहाल करती है।
चाह गई चिंता मिटी मनवा बे -परवाह ,
जाकु कछु न चाहिए सोहि शहंशाह।
आज मेरे घर आया रामजी का प्यारा ,
करहुं दंडवत चरण पखारूं ,
तन मन धन संतन पे वारूँ .
आँगन भवन भयो अति पावन ,
हरिजन बैठे हरी जस गावन ,
कह रहे रैदास ,मिले -हरिदासा ,
जनम जनम की पूरी आशा।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ......
एक वर्ष बाद भगवान् फिर लौटे बोले वो हमारी वस्तु तुम्हारे पास है उसका कोई उपयोग किया या नहीं -रैदास बोले हम को तो पता नहीं आप देख लो कहाँ रखी थी आपने।वहीँ रखी होगी।
भगवान् भी बड़े कौतुकी हैं लीला रची पारसमणि तो उठा ली रोज़ाना ठाकुरजी के नीचे पांच स्वर्ण मोहरे रख देते।
रैदास वह मोहरे चिमटी से उठाते और गंगा में बहा देते। भगवान् ने दर्शन दिया -कहा रैदास अपनी ज़िद पर मत अड़ो ,सत्संग भवन और आश्रम बनाओ इन पैसो का। भगवान् की इच्छा सरआंखों पर।
शानदार सतसंग भवन और आश्रम रैदास ने बनवाया भारी भीड़ उमड़ने लगी काशी के संतों पुजारियों को लगने लगा इसने तो हमारी दूकान ही बंद करवा दी।
संतों ने काशी नरेश को अपने हक़ में कर लिया। कहा ये जात का चमार कुछ टोना टोटका करता है मन्त्र -वंत्र इसे कुछ नहीं आते ,बुलाकर देख लो। लोगों को बहकाता है यह।
काशी नरेश ने ब्राह्मणों से कहा आप अपने ठाकुरजी लाइए ,रैदास को कहा आप भी अपने ठाकुरजी लाइए -पद गाइये भगवान् को अपने पास बुलाइये।
ब्राह्मणों ने पद पे पद गाये भगवान् चलकर नहीं आये ,अपनी जगह से हिले भी नहीं।
अब रैदास की बारी थी -
रैदास ने छोटा सा पद गाया -
हे हरि आवहु वेगि हमारे ,
पत राखो रैदास पतित की ,
दशरथ राज दुलारे ,
हे हरी आवहु बेगि हमारे .....
भगवान् छम छम करते हुए रैदास की गोद में आ गए। ब्राह्मण अब भी नहीं माने बोले ये जादू टोना करता है। काशी नरेश ने माथा टेक दिया इस चर्मकार के चरणों में।
'विश्वनाथ प्रमाणित करें तब मानेंगे ये भगवान् तो इनके अपने हैं।'पंडित अभी भी अड़े रहे - काशी नरेश ने विश्वनाथ जी को माला पहना दीं ।
ब्राह्मणों ने पद गाए माला हिली नहीं रैदास ने गाया माला उड़कर उनके गले में आ गई।
काशी नरेश को शंकर जी का अवतार माना जाता है अक्सर आप रैदास के पास आ जाते थे पद सुनने।एक बार रैदास जी ध्यान में बैठे थे -आँखें खोलीं तो सामने काशी नरेश खड़े थे। रैदास जी ने वही पानी इन्हें दिया जिससे चमड़ा धोते थे।नरेश ने पीने का नाटक किया सोचते हुए चमड़े धोने वाला पानी ही दे दिया। पानी उनकी कोट की आस्तीन में चला गया। वहां निशाँ पड़ गए।
धोभी ने धोकर दाग छुड़ाने की लाख कोशिश की और भाव समाधि में चले गए और यह घटना नरेश को बतलाई।
जब प्यासे थे ,तब पीया नहीं ,
जिन पीया , पिया को जान लिया।
भोला जोगी फिरै दीवाना,
वो पानी मुल्तान गया।
नरेश को अपनी गलती महसूस हुई और दोबारा पहुंचे ,वही चरणामृत पीने को माँगा -बोले रैदास अब ये मात्र पानी है चरणामृत नहीं है ,इसे पीने का कोई फायदा नहीं .
ऐसा ही किस्सा गोरखनाथ जी के साथ जुड़ा हुआ है।
एक बार ये काशी में रैदास जी के पास उनकी छप्परनुमा दूकान पर आये इन्हें उस समय बहुत ज़ोर से प्यास लगी थी इन्होनें रैदास से पानी माँगा -रैदास ने इन्हें अपने उसी पात्र में से पानी दे दिया जिसका इस्तेमाल ये अपने चमड़े को धोने के लिए करते थे। गोरखनाथ जी ने पानी अपने खप्पर में रख लिया और मन में सोचते हुए आगे बढ़ गए ,ये चर्म को धोने में प्रयुक्त होने वाला पानी मैं पीऊंगा ?
कबीर के घर पहंच गए काशी में -कमाली उन दिनों छोटी सी थी उसने कौतुक में इनका खप्पर उठाया और वह जल पी गई। कमाली बड़ी हुई उसकी शादी हो गई और वह शादी के बाद मुल्तान आ गईं उस समय पाकिस्तान का अस्तित्व नहीं था भारत अखंड था।
कालान्तर में एक बार गुरु गोरखनाथ का मुल्तान आना हुआ। ये अपनी सिद्धियों के लिए जाने जाते थे। भारी सैलाब उमड़ा ,नगर का हर सभ्रांत व्यक्ति चाहता था गोरखनाथ जी भोजन प्रसाद उनके ही घर ग्रहण करें।
गोरखनाथ ने इसके लिए एक शर्त रखी- जो कोई मेरे खप्पर को भर देगा मैं उसी के यहां भोजन प्रसाद ग्रहण करूंगा। कोई भी ऐसा न कर पा रहा था खबर कमाली तक भी पहुंची उसने अपने पति से कहा आप भी उन्हें बुलाओ मैं भी खप्पर सेवा करूंगी। पति बोला बावली हम जाति के भी जुलाहे हैं हम कैसे उस खप्पर को भर सकते हैं जिसे शहर के नाम- चीन लोग भी न भर पाए।
उसने ज़िद की पति ने बुलवा लिया कमाली को सेवा का मौक़ा देने के लिए गोरखनाथ जी को आग्रह करके। गोरखनाथ आये -कमाली ने उनके खप्पर में एक चम्मच चावल डाला ,खप्पर भर गया।
चमत्कृत गोरखनाथ बोले कमाली तुमने ये कमाल कहाँ से सीखा -बोली कमाली मैं ने कहीं से नहीं सीखा ये सब आपके खप्पर का ही कमाल है जब मैं छोटी थी आप हमारे घर काशी पधारे थे मैं खेल -खेल में इस खप्पर का सारा जल पी गई थी जिसे आप न पी पाए थे किसी संकोच -वश।
अविलम्ब गोरख सीधे योगमार्ग से काशी आ पहुंचे रैदास के पास और उस पात्र को उठकर मुंह से ही जल ग्रहण करने लगे। रैदास हंसकर बोले यह अब सिर्फ चर्म धोने में प्रयुक्त पानी है कोई चरणामृत नहीं है।
'मनचंगा तो कठौती में गंगा ' मुहावरे का अपना प्रसंग है।
एक लालची पंडित थे गंगा स्नान को जा रहे थे पूछा रैदास से आप भी चलिए। वह कहने लगे भैया मेरे ये दो केले गंगा मैया को चढ़ा देना मैं तो न जा सकूंगा।
पंडित जी ने ऐसा किया ज़रूर लेकिन गंगा मैया ने दोनों हाथ बाहर निकालकर जो एक हीरों का कंगन समेत आकाशवाणी के दिया पर वह वाणी सिर्फ पंडित जी ही सुन सकते थे अन्य नहीं। कहा गया था ये कंगन मेरे रैदास को दे देना। पंडित जी लालच से भर गए इतना बेश -कीमती कंगन उन्होंने इससे पहले देखा ही कहाँ था। उन्होंने ये कंगन अपनी पंडाइन को दे दिया उसने कहा कहाँ इतना कीमती कंगन पहनूंगी लोगों ने मुझे पहने देखा तो कहेंगे इसने कहीं से चुराया है इस गरीब पंडाइन के पास यह कैसे आया ?उसके कहने पर उसने वह कंगन एक सुनार को बेच दिया।
सुनार को पता था इतना कीमती कंगन खरीदने वाला काशी में कोई ग्राहक नहीं है उसने वह कंगन काशी नरेश को और नरेश ने वह अपनी पत्नी रानी साहिबा को दे दिया।कंगन उन्हें इतना पसंद आया वह दूसरे हाथ के लिए भी वैसा ही कंगन मांगने लगीं। राजा जेवर वाले सुनार के पास पहुंचा उनसे पता चला एक पंडित जी इसे बेच गए थे। पंडित जी ने नरेश को दंड के भय से सच -सच सब कुछ बता दिया।
नरेश काशी रैदास के पास पहुंचे और उनसे कहा ऐसा एक कंगन और चाहिए -रैदास बोले पहले हाथ तो दिखाओ जिसमें ये कंगन आएगा। यानी कंगन भी चाहिए और अपना बड़प्पन भी बरकरार रखना है। रानी ने आखिरकार झुककर अपना हाथ दिखाया -रैदास ने कठौती में हाथ डाला प्रार्थना की माँ गंगा से मैया मुझे इसके साथ का दूसरा कंगन दे दो ,ये तुम्हारे भक्त की लाज का सवाल है। कठौती में से हाथ बाहर निकाला तो उसमें कंगन था।
तभी से ये मुहावरा चल निकला -
'मन चंगा तो कठौती में गंगा ' -माँ गंगा अपने बेटे को कठौती में आकर कंगन दे गईं।
संत संग तिन पातक टरहीं -
मेरा तार हरी संग जोड़े,
ऐसा कोई संत मिले ,
बस जीवन में यही आस होनी चाहिए।
बाबा तुलसी कह गए हैं -
एक घड़ी आधी घड़ी ,आधी की पुनि आध ,
तुलसी संगत साधु की काटे कोटि अपराध।
सन्दर्भ -सामिग्री :
(१ )
Vijay Kaushal Ji Maharaj | Shree Ram Katha Ujjain Day 10 Part 1 2016 mangalmaypariwar.com
https://www.youtube.com/watch?v=n905zhrwnq8
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