
आत्मा और परमात्मा का मिलन ही रास है। यह स्त्री और पुरुष का साधारण मिलन नहीं है। न ही गोपी कोई स्त्री है। जब व्यक्ति अपनी दसों इन्द्रियों (पांच ज्ञानेन्द्रियाँ आँख ,कान ,नाक ,मुख और चमड़ी ,पांच कर्मेंद्रियां हाथ ,पाँव ,मुख ,जननेंद्रियां तथा गुदा )से कृष्ण रस का पान करने लगता है वह गोपी हो जाता है। गोपी एक भाव है। स्त्री या पुरुष नहीं है गोपी। गो का एक अर्थ है समस्त इन्द्रियाँ और पी का अर्थ है पान करना।
महाभाव श्रीजी (श्री राधारानी )हैं।इनकी अनुमति के बिना महारास हो ही नहीं सकता। कृष्ण और श्रीराधा जी का उच्छल प्रेम वेगवती यमुना की धारा है यही महारास है।ब्रज के संतों ने प्रेम को पांचवां पुरुषार्थ कहा है। धर्म ,अर्थ ,काम और मोक्ष अन्य चार पुरुषार्थ कहे गए हैं।
रास से पहले रासरचैया श्रीभगवानकृष्ण अपनी योगमाया (अंतरंगा शक्ति ,इंटरनल एनर्जी )से शरद ऋतु का निर्माण करते हैं। फिर अपने शयन कक्ष के गवाक्ष खोलके देखते हैं तो खिड़की के बाहर गगन में पूर्ण चन्द्र मुस्का रहा है। कृष्ण निधिवन के लिए अनुगमन करते हैं। घास के बिछौने पर अपना पीताम्बर बिछाते हैं। उसपे बंशी को विराजमान करके उसकी स्तुति करते हैं।फिर कहतें हैं देख वंशी मैं ने तेरी रातदिन कितनी सेवा करता हूँ पर तू आज तक मेरे किसी काम नहीं आई। वंशी बोली वो कैसे। बोले भगवान देख में तुझे आपने दोनों हाथन की सेज बनाके सुलाता हूँ अपने अधरों का तकिया तेरे सिरहाने लगाता हूँ अपनी उँगलियों से तेरे चरण दबाता हूँ वंशी बजाते हुए इसलिए आज तू मेरा एक काम कर गोपियन के मणिरूपी मन को चुरा ला।
बोली वंशी -चोरी के अलावा भी तुम्हें कछु काम है कन्हु। चलो इतनी मनुहार करते हो तो जाती हूँ। वंशी ने अपना काम पूरा किया है। गोपियाँ वंशीवट के ढिंग (के गिर्द ) पधारी हैं। भगवान उनसे कहते हैं तुम यहां आधी रात को क्या कर रही हो क्या तुम्हें अपने बछिया बछड़न का रम्भाने का स्वर सुनाई नहीं देता है अपने नौनिहालों की याद नहीं आती जिन्हें तुम घर पर छोड़ यहां चली आई हो। कितने भी दुस्शील सही हैं तो वह तुम्हारे पति ही जिन्हें छोड़ तुम अभिसार को निकल आई हो। लौट जाओ और अपने पातिव्रत धर्म का पालन करो।
गोपियाँ कहतीं हैं आप निपट छलिया हो पहले बुलावा भेजते अब कहते हो लौट जाओ। अब हम लौटके कहाँ जाएँ।
हम सब अपने सब विषयों का त्याग कर चुकीं हैं। इन्द्रियों के पांच विषय हैं रूप ,रस,गंध और स्वाद और स्पर्श। अब हमें आपके अलावा कोई विषय बाँध ही नहीं सकता।
रूप हमारी आँखों में आपका बसा है वही हम नित्य देखतीं हैं ,हमारी नासिका के नथुनों में तुम्हारे चरण कमलो पर शोभित तुलसी की गंध ही रची बसी हुई है ,कान तुम्हारा ही संकीर्तन तुम्हारे ही यशोगान सुनते हैं। स्पर्श भी प्रभु हमने सिर्फ आपका ही किया है रोम रोम से।
इस भौतिक संसार से तो हमारा सम्बन्ध चित्र जैसा है जो बनता है और काल के हाथों कालान्तर में बिगड़ जाता है। हमारा आपका संबंध तो शाश्वत है।हम आपकी ही परमाणु वत अंश है। प्रभु आपकी लीला अपरम्पार है आप सब धर्मों के मर्मज्ञ हैं हम ठहरीं भोली भाली बिरज की ग्वालिन। हमें आपकी बातें समझ नहीं आती।
श्याम रंग में रंगी चुनरिया ,अब रंग दूजो भावे न ,जिन नैनं में श्याम बसें हैं और दूसरो आवे न।
अब हम जाएं तो कहाँ जाएं इतना दैन्य देख भगवान प्रसन्न हो जाते हैं और नाचने लगते हैं हर गोपी के संग। जितनी गोपिन उतने कृष्ण योगमाया से भगवान रच देते हैं।
https://www.youtube.com/watch?v=f03O0kjbPu4
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें