मंगलवार, 1 सितंबर 2015

इन बे -सऊरों को यह नहीं मालूम कि ज्ञान बांटने की किसी भी धारा को सम्प्रदाय कहा जाता था जैसे राधा वल्ल्भ सम्प्रदाय ,वैष्णव ,शैव सम्प्रदाय आदि आदि




इन बे -सऊरों को यह नहीं मालूम कि ज्ञान बांटने की किसी भी धारा को सम्प्रदाय कहा जाता था जैसे राधा वल्ल्भ सम्प्रदाय ,वैष्णव ,शैव सम्प्रदाय आदि आदि

इन बे -सऊरों को यह नहीं मालूम कि ज्ञान बांटने की किसी भी धारा को सम्प्रदाय कहा जाता था जैसे राधा वल्ल्भ सम्प्रदाय ,वैष्णव ,शैव सम्प्रदाय आदि आदि। और सेकुलर शब्द का तो इन्हें अर्थ बोध लेशमात्र भी नहीं है। चर्च से राज्य की अलहदगी को सेकुलर होना कहा जाता है यानी राजपाट के कामों में चर्च का हस्तक्षेप ज़रा भी न होगा अब इन्होनें तो एक चर्च की एजेंट को बाहर से लाकर दिल्ली में ला बिठाया है इन्हें कैसे समझाए कोई पंथनिपेक्ष की मायने। ये तो लोमड़िया के दिलवाली उस मल्लिका ए महज़बीं की उँगलियों के इशारे पे नाचते हैं संसद के भीतर  भी बाहर भी। ये भी पता नहीं चलता नांच भीतर कब होता है और बाहर कब। 


कृपया ये लिंक खोलें :

https://en.wikipedia.org/wiki/Sampradaya


हम भारत धर्मी समाज के लोग तीन मार्गों को मानते हैं इन्हें ही प्रस्थान त्रयी कहा गया है यहां प्रस्थान का अर्थ ब्रह्म की ओर ले जाने वाला मार्ग है  -श्रुति प्रस्थान (वेद जिनका आखिरी हिस्सा सार रूप में उपनिषद कहा गया ), स्मृति प्रस्थान(भगवद्गीता )तथा ब्रह्मसूत्र ये ही प्रस्थान त्रयी कहलाये हैं । ये तीनों मार्ग    ब्रह्म की ओर ले जाते हैं। हमें हम से ही मिलवाते हैं अपने  नैजिक स्वरूप से "असली आई "रीअल सेल्फ से।मैं कौन हूँ। मेरा कौन है। ब्रह्म क्या है। माया क्या है। 

 इन तीनों मार्गों को ही वर्णाश्रम धर्म के तहत प्रस्थान त्रयी कहा गया है। धर्म शब्द बहुत व्यापक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। हमारा भारत धर्मी समाज का धर्म वर्णाश्रम धर्म है। यानी जीवन में अपनी अवस्था के अनुरूप गुण के अनुरूप हर व्यक्ति अपना अपना कार्य करे किसी और की नकल न करे। तभी समाज में समरसता कायम रह सकती है। यहां न कोई छोटा है न बड़ा। सब अपना अपना काम कर रहे हैं। 

वर्ण शब्द यहां गुण वाचक शब्द है जन्म वाचक नहीं । गुणों के अनुसार वर्णों को ब्राह्मण ,क्षत्रीय ,वैश्य और शूद्र कहा गया। जन्म से सभी शूद्र होतें हैं। जो ब्रह्म को जानलेता है श्रोत्रिय है श्रुति परम्परा (वेद )से वाकिफ है वही ब्राह्मण  है। इस व्यवस्था में शूद्र भी ब्राह्मण हो सकता है क्षत्रीय भी वैश्य भी गुणों को हासिल करके ब्राह्मण हो सकता है और ब्राह्मण कुल में जन्मा ऐसा जो व्यक्ति जो ब्रह्म  को नहीं जानता ,श्रुति से नावाकिफ है वह व्यक्ति द्विज कहलाता था अर्थात शूद्र तुल्य है।  

परशुराम जन्म से ब्राह्मण है काम क्षत्रीय का करते हैं। 

विश्वामित्र कभी क्षत्रीय तो कभी ब्राह्मण हो जाते हैं। 

आश्रम का मतलब है जीवन की अवस्था -बाल्य काल, किशोरपन ,युवावस्था ,प्रौढ़ावस्था ,वृद्धावस्था इसे क्रमश : अध्ययन काल (ब्रह्मचर्य )
,ग्राहस्थ्य ,वानप्रस्थ और संन्यास कहा गया। यहां कठोर अनुशाशन का पालन है। 

एक प्रतिक्रिया फेसबुक पोस्ट :


कौन कौन सहमत है इस बात से??
‪#‎शेयर‬

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