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फिर भी माँ बेटी में एक बड़ा अंतर है। माँ अपने पति यानी हमारे समधी की भी परवाह नहीं करती। बेटी के घर में सुख मिलता है मेड को चकरघन्नी की तरह घुमाती रहती है। बस यहीं पड़ी रहती है बारहमासी उत्पाद की तरह जबकि अपने घर में खुद झाड़ू पौछा भांडे बर्तन सब करना पड़ता है। लेकिन बेटी सिर्फ अपने पति और बाल बच्चों के बारे में ही सोचती करती है बस इतना ही है उसका संसार। उसके घर में उसकी माँ के अलावा किसी और का निभाव किसी कलाकारी से कम नहीं है। सुरेश पंडित ने असली मुज़रिम पकड़ लिया था। वह इतने से ही अपने को तस्सली दे रहा है और अपनी समझ पर संतुष्ट भी है कि जैसा बीज वैसा फल।अब वो बीज बदलने से तो रहा। इन बीस बरसों में क्या क्या घटित नहीं हुआ इसकी चर्चा करना अब सब फ़िज़ूल जान पड़ता है सुरेश पंडित यही सोच रहा था:जैसा बीज वैसा फल।
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