सोमवार, 18 दिसंबर 2017

कलि -संतरणोपनिषद -मंत्र संख्या -२ (कृष्ण द्वैपायन व्यास )

 कलि -संतरणोपनिषद -मंत्र संख्या -२ (कृष्ण द्वैपायन व्यास )

स होवाच ब्रह्मा साधु पृष्टोस्मि सर्व श्रुति ,

रहस्यं गोप्यं तच्छृणु येन कलि संसारं तरिष्यति। 

ब्रह्मा (ने पुत्र नारद से कहा )तुमने वास्तव में सम्पूर्ण मानवता के हितार्थ कहा है सम्भाषण किया है -वैदिक ग्रंथों का सार सुनों जो खजाने की तरह गोपनीय रखने छिपाके रखने की योग्यता रखता है। इसी ज्ञान से तुम भव सागर ,संसार सागर से तर जाओगे।

आध्यात्मिक गुरु तब बहुत ही ज्यादा प्रसन्न होता है जब शिष्य लोक हितार्थ प्रश्न करता है। क्योंकि गुरु कृष्ण द्वारा अधिकृत किया गया पारदर्शी पात्र है वह पूर्ण सवालों के सम्पूर्ण उत्तर जानता है। यहां ब्रह्माजी वैदिक ज्ञान का परमगुह्य सार अपने शिष्य और मानस पुत्र नारद को बतलाते हैं। इस गुह्य ज्ञान को इसकी गुह्य प्रकृति के कारण आमजन ,जन- साधारण बूझ नहीं पाते है अज्ञेय ही बना रहता है यह उनके लिए। न ही ब्रह्मा और नारद द्वारा बतलाये अनुदेशित निर्देशित इस ज्ञान कोष के अध्ययन में उनकी कोई रूचि होती है। 

अपनी माँ देवहुति को भगवान् कपिलमुनि साधु कौन है इसे विस्तार से समझाते हैं। (श्रीमद्भागवद्पुराण canto/खंड /संभाग  तीन ,अध्याय २५ ,मन्त्र संख्या २१ ). सभी प्राणियों के प्रति वह अत्यंत दयावान मित्रवत और सहनशील होता है। उसका कोई भी शत्रु नहीं वह सदैव ही शांत चित्त तथा उदात्त होता है। शास्त्र सम्मत होता है उसका सारा अस्तित्व ,आचरण।

शब्दार्थ :
स -वह ; उवाच -कहा ;पृष्टो -पूछा ;अस्मि -मैं हूँ ; सर्व -सबके हितार्थ ;श्रुति -श्रवण परम्परा के तहत वेदों के ज्ञान का संचरण ,वेदों को श्रुति भी कहा जाता है ;रहस्यम -परमावश्यक गुह्य सार ; गोप्यं -छिपाने संजोये रखने योग्य ; तत -वह ;छृणु -श्रवण ,सुनना ; येन -जिसके द्वारा ; कलि -कलियुग ; संसारं-उस स्थिति में विश्व ; तरिष्यति -तैर के पार जाना ,तैरना।  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें