शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

कलि - संतरणोपनिषद मंत्र संख्या नौ भावसार सहित


कलि - संतरणोपनिषद मंत्र संख्या नौ भावसार सहित 

 तं होवाच नास्य विधिरिति सर्वदा शुचिर शुचि  र्वा | 


पठनब्रह्मन : सलोकतां समीपतां  सरूपतां सायुज्यतामेति || 


भाव -सार :


(लार्ड )ब्रह्माजी  ने तत्काल उत्तर दिया -इस मन्त्र को कहने जपने दोहराने उच्चरित करने का कोई सुनिश्चित विधान /तरीका नहीं है। सत्य का अन्वेषक जिज्ञासु मन -वह जो सत्य क्या है यह जानना चाहता है वह जिज्ञासु स्वयं शुद्ध / अशुद्ध जैसा भी है ,नहाया है ,धोया है उसने या नहीं ,वह कहाँ है हवाईजहाज में या सड़क पर या कहीं और वह वहां ही इसे जप सकता है और वह  चारों प्रकार की मुक्ति  को प्राप्त कर सकता है। 


कृष्ण का संग साथ पा जाता है ,कृष्ण जैसा ही स्वरूप पा लेना ,उसी में उसी के  तेजस में  लीन  हो जाता है अपने संकल्प के अनुसार।  


शब्दार्थ :तम -उस को ;  हो  -वास्तव में ; उवाच -कहा बतलाया  ; न -नहीं  ; अस्य -इसका ; विधि -करने का तरीका ,नियम ,; रीति -परम्परा बद्ध ढंग  ; सर्वदा -हमेशा ; शुचिर -शुद्ध ; अशुचिर  -अशुद्ध ; वा -या ; पठन -जाप ,उच्चारण करने ,उच्चरण का ; ब्रह्मण : -सत्य को जान लेने का जिज्ञासु ,; सलोकतां -कृष्ण के साथ सहवास ,रहवास ,संग साथ ,;समीपतां -कृष्ण के साथ संयुक्त होकर ,जुड़कर रहना , साहचर्य भाव ; सरूपतम - स्वरूप में कृष्ण जैसा होना , कृष्ण रूप ही हो जाना ; सायुज्यतां -कृष्ण में ही लीन या लय हो जाना ; इति -एति -प्राप्त होना ,हासिल होना। 


व्याख्या -विस्तार -


मायावादी अक्सर आत्मघात की कोशिश में ही लीन रहते हैं जब वह कृष्ण में ही उसके तेजस में ,कृष्ण ज्योति में ही लीन  होने की चाहना रखते हैं। यह बुनियादी फर्क है वैष्णव (कृष्ण भक्त में ,दास्य भाव की भक्ति में जहां जीव स्वयं को नित्य ही सेवक मानता देखता है ,चाहता है ) और एक मायावादी में। 


वैष्णव कृष्ण  के साथ वैकुण्ठ में ही सेवक बनकर रहना चाहता है। इस रास्ते में जो भी तकलीफ हो इससे उन्हें (वैष्णव जनों को )कोई मतलब नहीं रहता है। उसके लिए दास्य भाव ही सर्वोपरि है। जब तक कृष्ण का स्मरण है सब ठीक है। 


वैष्णव को एक लाभ और मिलता है जिसे सरस्ती /सरसती कहा जाता है। यहां सिद्धियां सहज प्राप्त हो जातीं हैं जबकि उनकी चाह नहीं है उनका सेवक के लिए कोई उपयोग भी नहीं है। लेकिन जो कुछ स्वामी का है पिता का है वह पुत्र का ही है। भले उसका ध्यान उधर नहीं रहता है। 


इसलिए महामंत्र जपने के लिए कोई विशेष विधि विधान नहीं है। कर्मकांड नहीं है यहां कोई। 


शीशा -ए -दिल में छिपी तस्वीरें यार ,


जब ज़रा गर्दन झुकाई देख ली। 


यह महामन्त्र जप करने वाले के परिसर/माहौल /पर्यावरण  का स्वयं ही शुद्धिकरण कर देता  है। ऐसी अंतर्निहित शक्तियां हैं इसके जप में। दूसरे मंत्र इन गुणों में कहीं नहीं ठहरते।तो फिर दिक्कत क्या है ?हानि क्या है ?कोई रेलगाड़ी के सफर में भी हो सकता है बस या सफर -हवाई में भी ,पैदल या जहाज में समुन्दर के ऊपर भी। यहां यह ज़रूरी नहीं है उसे स्नान करने की सुविधा उपलब्ध ही हो।मन्त्र तो इस तन क्या आपकी आत्मा में जन्मजन्मांतर से चढ़े कर्तव्यकर्मों के बोझे को उतरवा देता है। नाश कर देता है पहले किये गए  कर्मफल का।इस काया की तो बात ही क्या है यह तो जीव का बाहरी आवरण मात्र है धोया -धोया न धोया न धोया इस  चोले को। 


यह रामनाम यह कृष्ण नाम कलियुग का सबसे बढ़िया साबुन है कलिमल के शोधन का। रासायनिक साबुन मैल को  कपड़े  से बाहर करके बाहर के हवा पानी को संदूषित करता है।नष्ट नहीं करता गंद के साथ स्वयं भी रहता है हमारे पर्यावरण में। 


राम नाम  हमें  सूर्य नारायण का स्मरण करवा देता है जो तरल को हर रूप जला सुखा देता है  लेकिन यहां संदूषण नहीं है। चाहे मल मूत्र हो या सामान्य गंदला पानी।सूर्य रश्मियाँ सबको पाक साफ़ कर देतीं हैं। 


यदि कोई नारद की तरह चाहे -उसे विष्णु का ही रूप मिल जाए- महामन्त्र उसे वह भी उपलब्ध करवा सकता है। 


इस प्रकार मोहमाया का निवारण ही नहीं यह महामन्त्र १६ घटकों वाले जीवआवरण को ही नष्ट कर डालता है। माया परदे को हटा देता है जीव और कृष्ण के बीच से। 


एक दिव्य शरीर प्राप्त करवाता है यह मन्त्र कृष्ण भक्त को। 


एक पूरा जीवन व्यतीत हो जाएगा (कृष्ण  के)मन्त्र के  गुणगायन  में ,उनके गुणों का बखान करने में ,मन्त्र की शक्ति को तब भी हम पूरा कहा जान पाएंगे। हाँ  इसका जप हमें बढ़िया मनोरम रूप से करना चाहिए बिना उग्र हुए वरना हानि उठानी  पड़ेगी ,यहां धृष्टता नहीं चलेगी। कृपा पूर्वक प्रेम से भरके जाप करें महा-मन्त्र का।    


हरे कृष्ण।    

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