गुरुवार, 2 नवंबर 2017

Pandit Vijay Shankar Mehta Ji | Shri Ram Katha | Baal Kand

बाल काण्ड कथा आरम्भ यहां से होती  है :

"एक बार त्रेता युग में भगवान् शंकर कैलाश परबत पर अपनी पत्नी सती  से कहते हैं आओ देवी कथा सुन ने चलते हैं।' याग्वल्क्य ऋषि भरद्वाज से कहते हैं। बस यहीं  से कथा का आरम्भ होता है। 

शम्भु गए अगस्त्य ऋषि के आश्रम में  ,साथ में जग जननी भवानी थी। अगस्त्य खड़े हुए और शंकर जी को प्रणाम किया। सती का माथा ठनका -ये क्या ?कथा वाचक खड़े हो गये श्रोता के आगे ,ये क्या कथा सुनायेंगे। आखिर दक्ष प्रजापति की  बेटी हैं इधर -उधर देखतीं हैं कथा नहीं सुनती। शंकरजी कहते हैं देवी तुमने कथा ठीक से नहीं सुनी। 

कथा नहीं सुनी ,वक्ता पर संदेह किया और अब भगवान् राम को प्रणाम नहीं किया सती ने शंकर जी कहने पर। 
कहने लगीं इन्हें क्या प्रणाम करना है ये तो खुद अपनी पत्नी के लिए रो रहें हैं। शंकर जी कहते हैं यही तो लीला है प्रभु की। कहतीं हैं दक्ष की बेटी हूँ जाके परीक्षा लूंगी भगवान् हैं के नहीं। भगवान् बंधुओं संदेह का विषय नहीं हैं। तुलसी दास ने इस अवसर पर बड़ी मनोवैज्ञानिक चौपाई लिखी है :

होइ है वहि जो राम रची रखा ... 

तर्क की शाखा बढ़ाने से सत्य को फर्क नहीं पड़ता भगवान् शंकर निस्पृह भाव से चट्टान पर जाकर बैठ गए। जब भी परिवार के सदस्यों से मतभेद हों भगवान् का नाम लीजिये चिंता मत कीजिये एक की दूसरे के प्रति   समझ बढ़ जाएगी।शंकर जी ये सूत्र देते हैं यहां। भगवान् ने सती को जाने दिया लेकिन इतना ज़रूर कहा देवी सावधान रहना ऐसी कोई बात न करना। 

सती  ने सीता का भेष बना लिया।भगवान् राम ने दूर से ही इन्हें देखकर प्रणाम किया कहा -जंगल में माते आप अकेली ही शंकरजी दीखते नहीं है। बस पकड़ी गईं सती। 

एक दम घबराईं अपने पति के पास आ गईं। शंकर जी ने देखा और पूछा -ले ली परीक्षा। झूठ बोल दिया कहने लगीं आप ही की तरह प्रणाम करके आ गई।परीक्षा नहीं ली ऊपर से ये  एक झूठ और बोल दिया।शंकर जी तो पहचानते थे -ये प्रणाम करने वाली तो नहीं है क्योंकि जीवन साथी को सबसे अच्छा यदि कोई जानता है तो उसका जीवन साथी ही जानता है। आप दुनिया में कितने ही बड़े तोप चंद हो आपका जीवन साथी असलियत जानता है। लेकिन आदमी उसी से छल करना शुरू करता है बस यहीं से गड़बड़ हो जाती है। भगवान् शंकर ने आँख बंद की और देखा सती ने सीता जी का भेष भरा है कहने लगे आपने मेरी माता सीता का भेष भरा ,अब आप में और मुझ में पति -पत्नी के सम्बन्ध नहीं रह पायेंगे।मैं आपको मुक्त करता हूँ हमारा सम्बन्ध अब चलने वाला नहीं है। और मानसिक त्याग कर दियाभगवान् शंकर ने पारबती का । 

"दूसरों के शब्दों से आहत होना बंद कर दीजिये ये घर गृहस्थी का एक और सूत्र है।" -भगवान् शंकर ने मैना सती की माँ और हिमालय की पत्नी के शंकर जी के प्रति अप्रत्याशित अपमानजनक व्यवहार को देख कर यही कहा । शंकर देवताओं के अतिशय  अनुनय विनय पर विवाह को राजी हुए थे ,बरात में दूल्हा थे पारबती उर्फ़ सती  के  । 

मैं क्या हूँ ये मैं तय करूंगा -ये कौन होती हैं तय करने वाली। मैना उन्हें देखकर भड़क गईं  थीं  बोली थीं पहाड़ से कूद जावूँगी इससे तो मैं अपनी बेटी की शादी नहीं करूंगी। आरती की थाली उनके हाथ से छूट के गिर गई मैना आवेश और क्रोध से बे -होश होकर गिर गईं थीं। 

नारद आते हैं भ्रमित मैना की दृष्टि खोलते हैं कौन बेटी कौन माता ये शंकर तो जगत पिता हैं पार्वती जगत माता हैं इनका तो सदियों से साथ रहा है। वस्तुस्थिति का बोध होने पर मैना शंकर जी से क्षमा मांगती हैं। गृहस्थी में गुरु होने का यही अर्थ है नारद आये और उन्होंने सारा सीन बदल दिया। गृहस्थी परमात्मा का प्रताप है। कहाँ उलझे हो ?

"कौन राम हैं जो दशरथ के पुत्र हैं वह ,जो अवतार लेते हैं या वह राम हैं जिन्होनें रावण को मारा था "-पार्वती अपने विवाह के बाद कैलाश पर शंकर जी से पतिपत्नी के एकान्त में पूछतीं हैं ?देवी आपने बहुत  महत्वपूर्ण प्रश्न पूछा है  . जब पति पत्नी का एकांत दिव्य हो तब गणेश और कार्तिकेय ही पैदा  होते हैं पति पत्नी का एकांत दिव्य होना चाहिए आजकल पांच सात मिनिट में ही परस्पर भिड़  जाते हैं। स्त्री पुरुष की देह का मिलना संतान पैदा करना नहीं है संतान पैदा करना एक दिव्य दायित्व है। पति -पत्नी को अपना एकांत दिव्य रखना पड़ेगा। वंश कुल के सदाचार मिलते हैं तब संतान पैदा होती है। 

शंकर जी कहते हैं लो मैं तुम्हें राम जन्म का कारण बताता हूँ। 

(१  )पहला कारण सनकादि ऋषियों का शाप था जो उन्होंने जय -विजय को दिया जो महाविष्णु के द्वारपाल थे तथा जिन्होनें ब्रह्मा जी के इन मानसपुत्रों को रोका था। अब इनके पास तो इंटरनेशनल वीज़ा था कहीं भी आने जाने की छूट थी। 

(२ )दूसरा कारण जलंधर राक्षस को मारने पर मिला शाप था जो उसकी पत्नी वृंदा ने दिया। 

(३ )तीसरा कारण नारद जी का शाप बना -यह सुनकर पारबती जी कह रहीं हैं विष्णु जी ने क्या अपराध किया यानी वह मान कर चल रही हैं गलती भगवान् ने ही की होगी ,अपने गुरु नारद का बचाव करतीं हैं। (राम को  विष्णु का अवतार माना जाता है ). इतनी बड़ी है गुरु की महिमा। गुरु के प्रति शिष्य का बड़ा भाव होता है और नारद जी तो पार्वती के गुरु थे। 
शंकर भगवान् तब मुस्कुराते हुए कहते हैं  न तो कोई मूर्ख है देवी न ग्यानी ,जब ऊपर वाला घुमाता है तो अच्छे अच्छे लपेटे में आते हैं। कथा सुनाते हैं भगवान् शंकर। 

जिसको ऊपर से नीचे गिराना हो जिसकी तपस्या भंग करनी हो उसके साथ तीन काम करो - प्रणाम करो ,पुष्प चढ़ाओ और प्रशंशा करो।

 एक बार की बात है नारद जो पहाड़ पे जाकर तप करने लगे। इंद्र को चिंता हुई कहीं उसका इन्द्रासन न कब्जालें नारद जी तपस्या भंग करने के लिए अंतिम उपाय के रूप में कामदेव को ही भेज दिया -कामदेव ने ये तीनों काम किये फिर बोले आपने तो काम क्रोध दोनों को जीत लिया। नारद जी फ़ौरन ख़ुश होकर खड़े हुए शंकर जी के पास पहुंचकर कहने लगे मैंने काम को भी जीत लिया है क्रोध को भी। शंकर जी बोले महाराज ये बात आपने मुझे सुनाई तो सुनाई पर विष्णु जी को मत सुनाना। नारद कब मान ने वाले थे। आप संत हैं आपके मुंह से लोग राम कथा सुन ना चाहते हैं और आप कितनी देर से काम कथा सुना रहें हैं। नारद जी मन में सोचते हैं शंकर मुझसे ईर्ष्या  करने लगें हैं मेरी प्रतिष्ठा से शायद डरते हैं इसलिए ऐसा कह रहे हैं।

विष्णु जी हमेशा ही अपने भक्तों का भला चाहते हैं उन्हें पता चल गया मेरे भक्त नारद को अहंकार हो चला है। विष्णु जी ने माया रची। विश्वमोहिनी एक राजकन्या पैदा की माया से जो एक राजा की पुत्री है जो अब विवाह योग्य हो गई है। राजा उसके लिए वर की तलाश में हैं। नारद पहुँचते हैं कन्या का हाथ देखते हैं लकीरें कहती हैं इसका पति तिरलोक पति होगा पढ़ जाते हैं उलटा ही नारद -जो इससे विवाह करेगा वह तीन लोक का मालिक हो जाएगा तिरलोकी हो जाएगा । 

नारद जी सोचते हैं इसके लिए तो विष्णु का रूप उधार लेना पड़ेगा विष्णु जी स्वयं ही प्रकट हो जाते हैं कहते हैं यदि हमारा रूप लेने से तुम्हारा भला होता है तो ले लो और नारद को शक्ल दे देते हैं बंदर की बस नारद जी स्वयंवर की पहली पंक्ति में जाकर बैठ जाते हैं। उधर शंकर जी भी अपने दो गण भेजते हैं नारद के दाएं बाएं बिठा देते हैं दोनों को आँखों देखा हाल जान ना चाहते हैं स्वयंवर का जो राजकुमारी की पहली शर्त होती है के मैं वर अपनी पसंद का ही चुनूंगी। नारद जी अपने वानर रूप से अनभिज्ञ बार बार उचक कर इधर -उधर देखते हैं कन्या आती है देखती है पहली पंक्ति में कोई वानर जैसी आकृति बैठी है। पहली पंक्ति में ही नहीं आती।

 यहां सन्देश यह है विकृत मानसिकता वाले लोगों की पंक्ति में कभी नहीं बैठना न उनके पीछे -पीछे चलना। नारद ने तभी देखा सामने से खुद विष्णु चले आ रहे हैं नारद कहते हैं ये क्या मुझे स्वयंवर में भेज दिया और पीछे से खुद चले आ रहें हैं। कन्या विष्णु जी के गले में माला डाल देती है। तभी गण नारद जी को चेताते हुए कहते हैं महाराज आईने में अपना मुख तो देखो। बस नारद जी अपनी आकृति वानर सी देख आग बबूला होकर शाप दे देते हैं विष्णुजी को जिसे विष्णु जी सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं लक्ष्मी जी नाराज होतीं हैं। भगवान् कहते हैं कभी कभी हमारा भी तो स्वाद बदलना चाहिए। 

'एक दिन तुम्हें भी नारी विरह भोगना पड़ेगा  ,तुमने मुझे बंदर की आकृति दी तब ये बंदर ही तुम्हारी मदद करेगा।'- भगवान् मुस्कुराते हुए माया को हटा देते हैं नारद देखते हैं दो ही खड़े हैं बाकी सब गायब न राजकुमारी न राज्य। 

बस विष्णु और नारद। नारद जी भगवान् के चरणों में गिरके क्षमा मांगते हैं। सारा मन का ही खेल है ये मन ही कथा नहीं सुन ने देता है। 

भगवान् बोले मेरे भक्त का अहित न हो इसलिए मैंने ऐसा किया ये खेल रचा । 


भगवान् राम के जन्म का पांचवां कारण रावण बना

 राम जन्म से पहले  तुलसीदास ने रावण जन्म की कथा लिखी जिसका पूर्व जन्म का नाम राजा भानुप्रताप था।  रावण राक्षसी कैकसी और विस्वा मुनि का पुत्र था। कैकसी और विस्वा के मिलन से रावण का जन्म हुआ जन्म के बाद बालक को माँ अलग ढंग से समझाती पिता अलग ढंग से और नाना अलग रीति समझाता। 

पिता मुनि विस्वा कहते शास्त्र के द्वारा प्राप्त करो संसार को ,नाना और माँ कहते शस्त्र के माध्यम से प्राप्त करो। नाना और माँ देर रात तक नहीं सोने देते बालक को। पिता ब्रह्म मूर्त में उठाते। इन विरोधों के बीच बालक माँ से पूछता आखिर मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है ? पिता कहते हैं जो तुम्हारा है  दान कर दो दूसरों को दे दो। आप कहती हो लूट लो ज़बर्जस्ती ले लो। इस दोहरी मानसिकता के साथ बालक बड़ा होता है। जिस घर में माता -पिता बच्चों के लालन पालन में अपने अपने स्वार्थ आगे रखते हैं आपस में मतभेद रखते हैं उस घर के बच्चे रावण बन जाते हैं। आपस में कितना ही मतभेद हो बालक के सामने मत लड़ो। बालक अनुचित मार्ग अपनाने लगता है आपके  मतभेद देख कर।  

नाना उससे तप करवाते हैं ऋषि मुनियों का नाश करने के लिए। लोग पुण्य कमाने के लिए तप करते हैं। रावण को सारे पाठ उलटे पढ़ाये गए हैं। लोग तप करते हैं भगवान् को पाने के लिए रावण ने तप किया भगवान् को मिटाने के लिए। 

उसके तप से ब्रह्मा प्रसन्न हुए। बोले मांगो वर। 

'हम काहू के मरही न मारे ,वानर मनुज जात दुई मारे। '

यही वर माँगता है रावण। ब्रह्मा जी घबराये ,उन्होंने सरस्वती जी को याद किया सरस्वती ने उसकी जुबां से कहलवा दिया -

'वानर मनुज जात दुई मारे'- बस ब्रह्मा जी ने तथास्तु कह दिया। 
यहां सन्देश है जीवन में कोई उपलब्धि आये तो उसे बचाके रखिये ढींग  न मारे।रावण यहीं गलती करता है।अहंकारी हो जाता है।  

"हरी व्यापक सर्वत्र समाना ,

प्रेम ते प्रकट होइ मैं जाना। "

 यही कहा था पृथ्वी को भगवान् ने जो धेनु बन   घबरा के भगवान् के पास गई।तब जब रावण के आतंक से पृथ्वी डोलने लगी थी , जिसने इतना आतंक मचाया ,पहाड़ फट गए नदियों में खून की धारा बहने लगी ,ऋषियों के हवन कुंड सूख गए पृथ्वी डोलने लगी। 

भगवान ने आश्वस्त किया जाओ मैं राजा दशरथ और कौशल्या के यहां राम बन के आवूंगा। सब आश्वस्त हुए और पृथ्वी लौट आई। 

जीवन में अरूप रावण बैठा है हर साल जलाते हैं पर मरता ही नहीं। भगवान् ने रूप रावण को मारा था। अरूप रावण हमारे दुर्गुण हैं। जब भी आपके जीवन में  दुर्गुण  जागें ज़ोर मारें भगवान् को याद करें। आप गलत करके फिर दुखी बहुत होते हैं जब अपने ही सीने पे हाथ रखके सोचते हैं -ये मैंने क्या किया क्यों किया ?

भगवान् कहते हैं मैं  आवूंगा बस यहीं  से कथा आरम्भ होती है भगवान् का जन्म होता है हम अयोध्या पहुँच गए हैं। 

एक बार दशरथ जी को आत्म ग्लानि हुई। तुरत अपने गुरु वशिष्ठ जी के पास गए। वशिष्ठ जी कहते हैं यज्ञ करो। यहाँ सन्देश यह है यज्ञ करो मंत्रोच्चार क्रिया से गुज़र कर ही  संतान पैदा करो। दशरथ यज्ञ करते हैं। 


चतुर्भुज भगवान् पैदा होते हैं। 

कौशल्या जी कहती हैं ये रूप नहीं चाहिए शिशु बन के आओ। 

बस तुलसी दास जी ने लिख दिया -

भये प्रकट कृपाला, दीनदयाला ,कौशल्या हितकारी ,

लोचन अभिरामा  ,अतिबल धामा .....  

इस संसार में आता हूँ तो पहली आज्ञा माँ की मानता हूँ भगवान् कहते हैं। 

भगवान् बड़े हुए गुरुकुल भेजे गए चारों बालक साधारण बालक बन के शिक्षा 

प्राप्त करने । 

विश्वामित्र पधारते हैं राम लक्ष्मण को राजा दशरत से मांगते  हैं ,दशरथ हिचकिचाते हैं वशिष्ठ बीच में आते हैं कहते हैं ये बालक यज्ञ की संतान हैं। इनका जन्म विशिष्ठ उद्देश्य से हुआ है -राक्षस संस्कृति के विनाश के लिए। 

राम को विश्वामित्र व्यावहारिक शिक्षा देते हैं। विश्वामित्र ताड़का का वध करवाते है अहिल्या का उद्धार होता है। अब भगवान् जनकपुरी ले जाए जाते हैं विश्वामित्र द्वारा ,अब सीता जी मिलने वाली हैं। 

वही रावण जो कैलाश परबत को उठा लेता है शिव के धनुष को हिला भी नहीं पाता। भगवान् राम गुरु विश्वामित्र के आदेश पर उठते हैं और धनुष को यूं उठा लेते हैं  जैसे फूल हो और बीच में से तोड़ देते हैं।

धनुष अहंकार का प्रतीक है। हमारा अहंकार भी प्रत्यंचा की तरह चढ़ा रहता है। भगवान् संकेत दे रहें हैं देवियों और सज्जनों शादी करने से पहले अहंकार रुपी धनुष को बीच में से तोड़ देना। आजकल गृहस्थी बनती है तो एक नहीं दो धनुष बन जाते हैं।पति -पत्नी के अहंकार तन जाते हैं प्रत्यञ्चायें खिंच जाती हैं।  

भगवान् राम क्षमा के मंदिर हैं परुशराम अपने अपवचनों के लिए भगवान् राम से क्षमा मांगते हैं और शान्ति पूर्वक जनक की सभा से चले जाते हैं। 

भगवान् पूरी सहजता से गृहस्थ में प्रवेश करते हैं बाल काण्ड समानता सहजता का प्रतीक है परिवार इसी सहजता के सूत्र के साथ बसाएं।भगवान् के विवाह की कथा आदर पूर्वक सुनिए ,राम -विवाह के सूत्र को जीवन में उतारिये आपके जीवन में भी सुख आएगा सदा उत्साह आएगा।    

संदर्भ -सामिग्री :

(१ )https://www.youtube.com/watch?v=uD2C4zjlhgU

(२ )

2:39:38

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