लहरी ढूंढें लहर को ,कपड़ा ढूंढें सूत ,
जीवा ढूंढें ब्रह्म को ,तीनों ऊत के ऊत।
कबीरदास कहते हैं स्वयं सागर लहरों को ढूंढ रहा है। जबकि दोनों का
सत्य जल है।
ocean is searching the wave wherein the underlying reality ,the
substratum of both
is the water .similarly the cloth is searching the fabric ,the yarn .In
the same fashion the jeevaatmaa is searching the Braham .
All the three are fools what the jeevaa is searching is what jeeva is
himself .You are what you are searching .
आत्मा जब मन बुद्धि शरीर तंत्र में आ जाता है तब जीवात्मा कहलाता
है। ये आत्मा ही ब्रह्म है बीच में अज्ञान का पर्दा (माया- रुपीशरीर मन
बुद्धि
तंत्र )आ जाने से यह अपनी असली पहचान भूल गया है.
जबकि माया परमात्मा के लिए
परमात्मा की शक्ति है जिससे वह इस जगत का खेल रचता है।
अपनी
असली पहचान सर्वव्यापक सनातन चेतना को भूलकर यह जीव जन्म
मरण के चक्कर में फंस गया है। यही इसकी मूर्खता है।
In reality I myself is the eternal truth ,the all pervading universal
consciousness that is eternal and limitless and is the underlying
reality of all the objects of this universe including
Maya.
.It is this "I"(the all knowledge ,the all pervading principle ) which
illuminates the Maya also .
I am neither the scene nor the seer ,nor the process of seeing ,I am
what is illuminating these three states yet am none of these .
कबीर का यह पद सभी उपनिषदों का सार है। जो हमारे अज्ञान को दूर
करता
है वही ज्ञान ,उपनिषद है।
जो ज्ञान मुझे मेरे जो सबसे निकट है यानी स्वयं मेरा सनातन
अस्तित्व (self
)उसका बोध निश्चित तौर
पर कराता है बिना किसी संदेह के ,जो मेरे अज्ञान को दूर करता है वही
उपनिषद है।
उप +नि +षद
उप जो मेरे सबसे निकट है यानी स्वयं मैं "I"THE SELF
नि -माने सुनिश्चित विदाउट डाउट
षद -जो नष्ट करता है(विचरण ,गति ,अवसादन ये तीन अर्थ हैं षद धातु
यहां उपसर्ग
के ) किसको मेरे अज्ञान को कि मैं शरीर नहीं हूँ। वही
ज्ञान उपनिषद है। इसी में वेदों का सार है।
इसलिए
बंधू -बांधवियों उपनिषद पढ़ो।
जय श्रीकृष्णा !
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