अपनी करनी आप भरेगा ,ये कर्मन को सार ,
कबिरा बड़ी है मार ये ,जो चित से दियो उतार।
बतलाते चलें आपको ये पंक्तियाँ महाकवि कबीर दास रचित नहीं है उनकी मूल
पंक्ति है :
उलटी मार कबीर की जो चित से दियो उतार ,
(दूसरी पंक्ति हमने याद नहीं हैं )
कुछ लोगों के अनुसार उलटी के स्थान पर बड़की शब्द आया है इस पंक्ति
में
यानी मूल पंक्ति है :
बड़की मार कबीर की जो चित से दियो उतार।
बहरसूरत बतलादें स्थानापन्न पंक्तियाँ हमारे आग्रह पर डॉ.वागीश मेहता
जी ने
लिखीं हैं व्यस्तता के चलते बीजक और कबीर ग्रंथावली न देख सके सो
हमारी
ज़िद पे उल्लेखित पंक्तियाँ लिख दी।
कबीर दास कहते हैं उलटी मार कबीर की जो चित से दियो उतार यानी
मूर्ख
व्यक्ति से उसके स्तर पर जाकर मत उलझो उसकी उपेक्षा करो वही मार
उसके
लिए बड़की बन जाएगी। असहनीय हो जाएगी।
Fools use the knife to stab you in the back ,Wise use the knife to
cut the cord and free themselves from the fools .
सारा खेल उन वासनाओं
(desires )का है जो जन्मना हैं ,उन इम्प्रेशन्स का है जो व्यक्ति जन्म से
ही लिए
आया है इस जगत में। हर व्यक्ति अपने संसार से बोल रहा है। अपना
बोया
काट
रहा है। हमारे पूर्व जन्म के संचित कर्मों का अंश ही ये जन्मना वासनाएं हैं
जिन्हें
हम लेकर इस संसार में आये हैं। उन्हें कैसे बदलियेगा। किसी को कुछ
सीख न
दियो अपना रवैया बदल लेवो। वही तुम्हारे लिए श्रेयस है।
अन्यत्र भी कबीर ने कहा है -
कबिरा तेरी झोंपड़ी गलकटियन के पास ,
करेंगे सो भरेंगे तू क्यों भयो उदास।
इस पर भी गौर फरमाइए -
कबीर दास की उलटी बानी ,
बरसे कंबल भीगे पानी।
पानी यहां ज्ञान का प्रतीक है। जीवात्मा को अपने स्वभाव
सत्यम ज्ञानम् अनन्तं से
परिचित होना चाहिए था लेकिन जीव माया (संसार की माया ,मटीरियल
एनर्जी
)से भ्रमित है। इसलिए जगत में सब कुछ प्रकृति के विपरीत हो रहा है।
अग्नि
बरस रही है पानी में आग लग रही है।जीव संसार में भटक रहा है। आत्मा
को
जब अंतश्चेता मिली तो वह जीव-आत्मा हो गया। खुद को देह मन बुद्धि
चित
अहंकार मान ने लगा। अपने सच्चिदानंद स्वरूप को विस्मिृत करने के
कारण ही
जीवात्मा संसार की माया से भ्रमित है कम्बल बरसे भीगे पानी से कबीर
का यही
अभिप्राय है।
बतलाते चलें आपको कि महाकवि कबीर शाश्त्रों के पंडित नहीं थे। वे तो
अनुभव के माहिर थे। साधक थे। परमात्म ज्ञान प्राप्त संत थे। इसीलिए
उन्होंने बहुत सा ज्ञान रहस्य के आवरण में लिपटा कर दिया है ,शाश्त्र की
बात को रहस्यपूर्ण बनाकर प्रस्तुत करना यही उलटवासी है कबीर की।
कबीर उलटवासी के पंडित थे। इसीलिए बरसे कंबल भीगे पानी का कोई
और अर्थ भी निकाल सकता है।
मसलन जब व्यक्ति अपना स्वधर्म छोड़ देता है तब सब कुछ उलट घटित
होता है। सारे काम उलटे होने लगते हैं। जल को बरसाना चाहिए लेकिन
वह भीज रहा है और कंबल बरस रहा है।
पानी को ज्ञान के अर्थ में लेंगे तो अर्थ सीमित हो जाएगा फिर ज्ञान तो
माया को दूर भगाने का काम करता है माया ज्ञान को कैसे भ्रमित कर
सकती है।
कबिरा बड़ी है मार ये ,जो चित से दियो उतार।
बतलाते चलें आपको ये पंक्तियाँ महाकवि कबीर दास रचित नहीं है उनकी मूल
पंक्ति है :
उलटी मार कबीर की जो चित से दियो उतार ,
(दूसरी पंक्ति हमने याद नहीं हैं )
कुछ लोगों के अनुसार उलटी के स्थान पर बड़की शब्द आया है इस पंक्ति
में
यानी मूल पंक्ति है :
बड़की मार कबीर की जो चित से दियो उतार।
बहरसूरत बतलादें स्थानापन्न पंक्तियाँ हमारे आग्रह पर डॉ.वागीश मेहता
जी ने
लिखीं हैं व्यस्तता के चलते बीजक और कबीर ग्रंथावली न देख सके सो
हमारी
ज़िद पे उल्लेखित पंक्तियाँ लिख दी।
कबीर दास कहते हैं उलटी मार कबीर की जो चित से दियो उतार यानी
मूर्ख
व्यक्ति से उसके स्तर पर जाकर मत उलझो उसकी उपेक्षा करो वही मार
उसके
लिए बड़की बन जाएगी। असहनीय हो जाएगी।
Fools use the knife to stab you in the back ,Wise use the knife to
cut the cord and free themselves from the fools .
सारा खेल उन वासनाओं
(desires )का है जो जन्मना हैं ,उन इम्प्रेशन्स का है जो व्यक्ति जन्म से
ही लिए
आया है इस जगत में। हर व्यक्ति अपने संसार से बोल रहा है। अपना
बोया
काट
रहा है। हमारे पूर्व जन्म के संचित कर्मों का अंश ही ये जन्मना वासनाएं हैं
जिन्हें
हम लेकर इस संसार में आये हैं। उन्हें कैसे बदलियेगा। किसी को कुछ
सीख न
दियो अपना रवैया बदल लेवो। वही तुम्हारे लिए श्रेयस है।
अन्यत्र भी कबीर ने कहा है -
कबिरा तेरी झोंपड़ी गलकटियन के पास ,
करेंगे सो भरेंगे तू क्यों भयो उदास।
इस पर भी गौर फरमाइए -
कबीर दास की उलटी बानी ,
बरसे कंबल भीगे पानी।
पानी यहां ज्ञान का प्रतीक है। जीवात्मा को अपने स्वभाव
सत्यम ज्ञानम् अनन्तं से
परिचित होना चाहिए था लेकिन जीव माया (संसार की माया ,मटीरियल
एनर्जी
)से भ्रमित है। इसलिए जगत में सब कुछ प्रकृति के विपरीत हो रहा है।
अग्नि
बरस रही है पानी में आग लग रही है।जीव संसार में भटक रहा है। आत्मा
को
जब अंतश्चेता मिली तो वह जीव-आत्मा हो गया। खुद को देह मन बुद्धि
चित
अहंकार मान ने लगा। अपने सच्चिदानंद स्वरूप को विस्मिृत करने के
कारण ही
जीवात्मा संसार की माया से भ्रमित है कम्बल बरसे भीगे पानी से कबीर
का यही
अभिप्राय है।
बतलाते चलें आपको कि महाकवि कबीर शाश्त्रों के पंडित नहीं थे। वे तो
अनुभव के माहिर थे। साधक थे। परमात्म ज्ञान प्राप्त संत थे। इसीलिए
उन्होंने बहुत सा ज्ञान रहस्य के आवरण में लिपटा कर दिया है ,शाश्त्र की
बात को रहस्यपूर्ण बनाकर प्रस्तुत करना यही उलटवासी है कबीर की।
कबीर उलटवासी के पंडित थे। इसीलिए बरसे कंबल भीगे पानी का कोई
और अर्थ भी निकाल सकता है।
मसलन जब व्यक्ति अपना स्वधर्म छोड़ देता है तब सब कुछ उलट घटित
होता है। सारे काम उलटे होने लगते हैं। जल को बरसाना चाहिए लेकिन
वह भीज रहा है और कंबल बरस रहा है।
पानी को ज्ञान के अर्थ में लेंगे तो अर्थ सीमित हो जाएगा फिर ज्ञान तो
माया को दूर भगाने का काम करता है माया ज्ञान को कैसे भ्रमित कर
सकती है।
सुन्दर....आपको बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@आंधियाँ भी चले और दिया भी जले
नयी पोस्ट@श्री रामदरश मिश्र जी की एक कविता/कंचनलता चतुर्वेदी