कबीरदास -पद
पानी विच मीन प्यासी रे ,
मोहि सुन सुन आवत हांसी।
आत्म ज्ञान बिना सब सूना ,
क्या मथुरा क्या काशी रे ,
घर में धरी वस्तु नहिं सूझे ,
बाहर खोजत जासी रे।
मृग की नाभि बसै कस्तूरी ,
वन वन फिरत उदासी रे ,
कहैं कबीर सुनो भाई साधो ,
सहज मिले अविनाशी रे।
पद-भावार्थ :डॉ. वागीश मेहता नन्द लाल
१२१८ ,सेक्टर -४ ,अर्बन इस्टेट ,गुडगाँव
हरियाणा ,भारत
भावार्थ :
कबीरदास के इस पद में पहली पंक्ति उलटवासी पद्धति की है ,यद्यपि
शेष पंक्तियों में अध्यात्म कथन का सीधा प्रवाह है। वस्तुत :पानी ब्रह्म
सरोवर का प्रतीक है और मछली जीवात्मा का प्रतीक है। ब्रह्म का अंश
होते हुए भी जीव मायाधीन होकर अपने स्वरूप को भुला बैठता है। आत्म
विस्मृति में जीता हुआ जीव अनेक प्रकार सांसारिक उत्थान पतन से
गुज़रता हुआ कष्टों और भ्रमों में जीवन बिता देता है। हालांकि वह ब्रह्म
का अंश है पर ब्रह्म पाने के लिए वह सहज भक्ति मार्ग से चलने से दूर
चला जाता है। भाव का स्वरूप होते हुए भी अभाव में जीता है। कबीरदास
कहते हैं अपने स्वरूप को विस्मृत करने के कारण जीव अपनी ब्रह्मरूपता
को पहचान नहीं पाता। ये ठीक वैसे है जैसे सरोवर के बीच में रहती हुई
मछली को यह महसूस हो कि वह प्यासी है ,ऐसी आत्मविस्मृति पर
कबीरदास उलटवासी के माध्यम से कहते हैं कि जीव की स्थिति पर मुझे
हँसी आती है।अपने स्वरूप को जाने बिना बाहर का कर्मकांड आत्म ज्ञान
प्रदान नहीं करता चाहे वह मथुरा हो या फिर काशी या इसी प्रकार के और
धार्मिक स्थल क्यों न हों वे मनुष्य को ब्रह्म प्राप्ति का कोई मार्ग नहीं
सुझाते . ब्रह्म प्राप्ति के लिए अपने ब्रह्म स्वरूप से परिचित होना पड़ता
है। बाहर
भटकने का कोई लाभ नहीं है। यदि वस्तु घर में पड़ी है और उपलब्ध
अवस्था से अपरिचित होकर हम उसे बाहर खोजने जाते हैं तो लोक-
उपहास का पात्र बनते हैं पर माया की प्रबलता को भी उपेक्षित नहीं किया
जा सकता जैसे कस्तूरी का वास तो मृग की नाभि में होता है पर
अज्ञानवश सुगन्धि से भ्रमित हुआ हिरण उसे वन वन में खोजता फिरता
है। यही जीव की स्थिति है। वह परमात्मा को पाने के लिए कर्मकांड और
प्रदर्शन वृत्ति में रमा रहता है ,जिस दिन अपने स्वरूप की सहजता से
उसका परिचय हो जायेगा वह सहज स्वरूप परमात्मा उसे
प्राप्त हो जायेंगे। भाव यह कि इस पद में परमात्मा की सर्वव्यापकता
माया की प्रबलता और सहज अवस्था के महत्व को प्रतिपादित करते हुए
कबीर दास जी यह कहना चाहते हैं कि सहज स्वरूप परमात्मा को सहज
होकर ही प्राप्त किया जा सकता है।
स्वर्गीय मानना डे के स्वर में यही पद सुनिये :
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