'कविता के पांव अतीत में होते हैं, आंखें भविष्य में'
ज्ञानपीठ पाने वाले केदारनाथ सिंह हिन्दी के 10वें लेखक हैं। हिंदी साहित्य में पंत, दिनकर, अज्ञेय, महादेवी, नरेश मेहता, निर्मल वर्मा, कुंवर नारायण, श्रीलाल शुक्ल और अमरकांत को यह पुरस्कार मिल चुका है। अभी बिल्कुल अभी, जमीन पक रही है, यहां से देखो, अकाल में सारस, बाघ जैसी रचनाएं करने वाले केदारनाथ सिंह से बातचीत की पावस कुमार ने:
ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने पर नवभारत टाइम्स की
बधाई...
धन्यवाद, ज्ञानपीठ जैसा पुरस्कार मिलना खुशी की बात है। इसे पाने वाले लोगों की एक शानदार परंपरा रही है और उस परंपरा में जुड़ना ही अपने आप में एक सम्मान है। मुझे लगता है कि यह पुरस्कार केवल मेरा नहीं बल्कि हिंदी और इसकी लंबी परंपरा का सम्मान है।
क्या आपको लगता है कि
आपको यह सम्मान मिलने
में बहुत देर हुई?
ऐसा नहीं है। वैसे हिंदी साहित्य में अक्सर सम्मान देर से ही मिलते हैं। हालांकि यह बात बदलनी चाहिए। फिर भी मुझे नहीं लगता कि मुझे यह देर से मिला। विनम्र भाव से इसे स्वीकार करता हूं।
आजकल की हिंदी कविता
लोगों से बहुत दूर नज़र आती है।
उसमें गांव-कस्बे और उसके
लोग नहीं दिखते। क्या आप
मानते हैं कि हिंदी कविता
आमजन से कटती जा रही है?
कविता कभी भी बिल्कुल जनसाधारण की चीज नहीं रही। पहले भी मध्यम वर्ग में प्रबुद्ध तबका रहा जो कविताएं पढ़तारहा था। हालांकि अब कविता उस वर्ग से भी दूर हो रही है। इसमें थोड़ी समस्या तो कविता की है। कविता भी एक दायरे में सिमटती जा रही है। सबसे बड़ी बात बदलते समय की है। निराला-पंत के समय कविताएं रस और आनंद का जरिया थीं। अब कई ऐसे माध्यम हैं जिनमें लोग बिना अधिक बौद्धिक कसरत किए रस ले सकते हैं। ऐसे में लोग कविता और साहित्य से दूर तो हो ही रहे हैं। हालांकि यह समस्या सिर्फ हिंदी की नहीं पूरे विश्व की है।
नई टेक्नॉलजी के साथ
कविता के नए मंच आ गए हैं,
ब्लॉग्स और सोशल नेटवर्क
पर कविता लिखी जा रही है?
हां, इन नए माध्यमों पर कविता लिखी जा रही है और खूब लिखी जा रही है। इसमें कुछ अच्छी रचनाएं भी की जा रही हैं। समस्या यह है कि इसका कोई गंभीर मूल्यांकन नहीं हो रहा है। इसका कोई तरीका नहीं है। मुझे लगता है कि इसका मूल्यांकन भी होना चाहिए।
माना जाता रहा है कि आठवें
दशक के लिखने वालों पर
आपकी कविता का प्रभाव खूब रहा।
क्या आपको आज के कवियों
में अपनी कविता का प्रभाव दिखता है?
देखिए, कोई भी कविता आगे और पीछे दोनों के प्रभाव से निकलती है। मैं नए लोगों को कोई संदेश देने में यकीन नहीं रखता लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि लिखते वक्त परंपरा को भी ध्यान में रखना चाहिए। नई चीजें तो लिखनी ही हैं, साथ-साथ पुराने लोगों से सीखना भी जरूरी है। साहित्य में पास्ट और फ्यूचर दोनों अहम हैं। कविता के पांव अतीत में होते हैं तो
उसकी आंखें भविष्य में होती हैं।
सरकार के हिंदी प्रयोग के
निर्देश को लेकर विवाद
छिड़ गया है। क्या आप
मानते हैं कि सरकार को
किसी भाषा को बढ़ाने के
लिए उसे थोपना चाहिए या
फिर भाषा अपने आप आगे बढ़ती है?
मुझे तो नहीं लगता कि अभी तक कोई थोपने वाला काम किया गया है। हालांकि सरकार के काम पर बोलना मेरा विषय नहीं है। हमारे देश में कई भाषाएं हैं, इनमें हिंदी सबसे व्यापक है। एक भारतीय के नाते मेरा स्नेह सभी भारतीय भाषाओं से है। मैं ये सभी भाषाएं बोलता-लिखता नहीं लेकिन ये सभी मेरी मिट्टी की भाषाएं हैं। मेरा मानना है कि सभी भाषाएं मिलकर आगे बढ़ें और सबका साथ में प्रचार हो। यह बहुत अहम विषय है और इसपर कुछ भी संवेदनशीलता के साथ होना चाहिए।
तो क्या लड़ाई सिर्फ अंग्रेजी के खिलाफ है?
हमारे देश में कई लोग अंग्रेजी भी बोलते हैं। मेरा यह कहना है कि हिंदी को भी बराबर की अहमियत मिले, खासकर सरकारी कामकाज में। अभी अंग्रेजी में अधिकतर काम होता है, उसे साथ में हिंदी में भी किया जाए। दोनों को बराबर रखा जाए।
केदारनाथ सिंह की कुछ कविताएं
विद्रोह
आज घर में घुसा
तो वहां अजब दृश्य था
सुनिये- मेरे बिस्तर ने कहा-
यह रहा मेरा इस्तीफ़ा
मैं अपने कपास के भीतर
वापस जाना चाहता हूं
उधर कुर्सी और मेज़ का
एक संयुक्त मोर्चा था
दोनों तड़पकर बोले-
जी- अब बहुत हो चुका
आपको सहते-सहते
हमें बेतरह याद आ रहे हैं
हमारे पेड़
और उनके भीतर का वह
ज़िंदा द्रव
जिसकी हत्या कर दी है
आपने
उधर आलमारी में बंद
किताबें चिल्ला रही
खोल दो-हमें खोल दो
हम जाना चाहती हैं
अपने बांस के जंगल
और मिलना चाहती हैं
अपने बिच्छुओं के डंक
और सांपों के चुंबन से
पर सबसे अधिक नाराज़ थी
वह शॉल
जिसे अभी कुछ दिन पहले कुल्लू से ख़रीद लाया था
बोली- साहब!
आप तो बड़े साहब निकले
मेरा दुम्बा भेड़ा मुझे कब से
पुकार रहा है
और आप हैं कि अपनी देह
की क़ैद
में लपेटे हुए हैं मुझे
उधर टी.वी. और फोन का
बुरा हाल था
ज़ोर-ज़ोर से कुछ कह रहे थे
वे
पर उनकी भाषा
मेरी समझ से परे थी
कि तभी
नल से टपकता पानी तड़पा-
अब तो हद हो गई साहब!
अगर सुन सकें तो सुन
लीजिए
इन बूंदों की आवाज़-
कि अब हम
यानी आपके सारे के सारे
क़ैदी
आदमी की जेल से
मुक्त होना चाहते हैं
अब जा कहां रहे हैं-
मेरा दरवाज़ा कड़का
जब मैं बाहर निकल रहा था।
घड़ी
दुख देती है घड़ी
बैठा था मोढ़े पर
लेता हुआ जाड़े की धूप का रस
कि वहां मेज पर नगी चीखने लगी
'जल्दी करो, जल्दी करो
छूट जायेगी बस'
गिरने लगी पीठ पर
समय की छड़ी
दुख देती है घड़ी।
जानती हूं एक दिन
यदि डाल भी आऊं
उसे कुएं में ऊबकर
लौटकर पाऊंगा
उसी तरह दुर्दम कठोर
एक टिक टिक टिक टिक से
भरा है सारा घर
छोड़ेगी नहीं
अब कभी यह पीछा
ऐसी मुंह लगी है
इतनी सिर चढ़ी है
दुख देती है घड़ी।
छूने में डर है
उठाने में डर है
बांधने में डर है
खोलने में डर है
पड़ी है कलाई में
अजब हथकड़ी
दुख देती है घड़ी।
शहर में रात
बिजली चमकी, पानी गिरने का डर है
वे क्यों भागे जाते हैं जिनके घर है
वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा
वह क्या है जो दिखता है धुआं-धुआं-सा
वह क्या है हरा-हरा-सा जिसके आगे
हैं उलझ गए जीने के सारे धागे
यह शहर कि जिसमें रहती है इच्छाएं
कुत्ते भुनगे आदमी गिलहरी गाएं
यह शहर कि जिसकी ज़िद है सीधी-सादी
ज्यादा-से-ज्यादा सुख सुविधा आज़ादी
तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में
यह अलग-अलग दिखता है हर दर्पण में
साथियों, रात आई, अब मैं जाता हूं
इस आने-जाने का वेतन पाता हूं
जब आंख लगे तो सुनना धीरे-धीरे
किस तरह रात-भर बजती हैं ज़ंजीरें
मुक्ति
मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला
मैं लिखने बैठ गया हूं
मैं लिखना चाहता हूं 'पेड़'
यह जानते हुए कि लिखना पेड़ हो जाना है
मैं लिखना चाहता हूं 'पानी' '
आदमी' 'आदमी' - मैं लिखना चाहता हूं
एक बच्चे का हाथ
एक स्त्री का चेहरा
मैं पूरी ताकत के साथ
शब्दों को फेंकना चाहता हूं आदमी की तरफ
यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा
मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूं वह धमाका
जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है
यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा
मैं लिखना चाहता हूं।
प्रस्तुति :वीरुभाई ,अपलैंड -व्यू ,कैन्टन,
मिशिगन
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