गुरुवार, 21 अगस्त 2014

नीको हू लागत बुरा ,बिन औसर जो होय,


नीको हू लागत बुरा ,बिन औसर जो होय 

                       ______________डॉ. वागीश मेहता डी.लिट. १२१८ /४                                                       अर्बन इस्टेट ,गुडगाँव (हरियाण)
                                                    भारत  

तस्वीर

(डॉ। नन्द लाल मेहता वागीश )

हम से लगभग सभी भारतीयों ने विशेषकर उत्तरभारतीय लोगों ने हिंदी भाषा और साहित्य को पढ़ा है। हो सकता है आज आयु का अनुभव हमारी समझ को एक नै धार दे रहा हो पर सच्चाई तो यही है कि शब्द में छिपी अपार शक्ति को अपनी अध्यापकीय पद्धति से हम समझने में असमर्थ रहे है.ये किसी के दोष का प्रश्न नहीं है पर इतना तो निश्चित है कि जब किसी सम्बुद्ध और सुबुद्ध भाषाविद और साहित्य मर्मज्ञ शिक्षक से पढ़ते हैं तो हिंदी भाषा की अंतरंग शक्ति और साहित्य का मनोमुग्धकारी सौंदर्य आपके सामने साकार हो उठता है। इस प्रसंग का सीधा सम्बन्ध मेरे मित्र डॉ. (प्रोफ़ेसर नंदलाल )मेहता वागीश से है जिन्होंने प्रस्तुत दोहों में निहित अर्थ और भाव सौंदर्य को इन शब्दों में उद्घाटित किया है :

या अनुरागी चित्त की गति समझे न कोय ,

ज्यों ज्यों बूड़े श्याम रंग। त्यों त्यों उज्ज्जल होय। 



कविवर बिहारी का यह दोहा कृष्ण भक्ति और कृष्ण प्रेम के संदर्भ में है.कृष्ण के सांवले होने की धारणा भक्तों को अपनी और आकर्षित करती रही है ,तत्व की बात तो ये है कि कृष्ण की भक्ति करने वाले पुरुष भी स्वयं को गोपी भाव देखते रहे हैं। कृष्ण भक्ति का मधुर रस यही है कि पुरुष तो एक मात्र कृष्ण हैं बाकी सब गोपियाँ हैं ,प्रेम भाव की इसी नग्नता  को बिहारी ने इक छोटे से छंद दोहे में बहुत ही विलक्षण सौंदर्य से चित्रित किया है। 

कृष्ण प्रेम में डूबी आत्मा का अपने चित्त की स्थिति को सही सही न कह पाने ली लौकिक व्यवस्था को भक्ति के रंग में रंगे  हुए शब्दों में इस प्रकार कह दिया है कि कृष्ण रंग में मेरे चित्त की स्थिति को कोई भी समझ पा रहा ये बड़ा आश्चर्य है कि मेरे चित्त की वृत्ति ज्यों ज्यों उस काले (रंग वाले )कृष्ण के प्रेम रंग में डूबती है त्यों त्यों वह सात्विक और उज्ज्जवल निखार में आता है। सामान्य रूप से कृष्ण (काला रंग )रंग अपने का लेपन किसी को भी और रंग में रंजीत नहीं होने देता। वह उसे अपना ही रंग देता है। काले रंग पे किसी रंग का असर नहीं होता और काले रंग में डूबा हुआ कोई भी पदार्थ जड़ या चेतन कोई भी सत्ता काले रंग के प्रभाव से और उसकी रंगत से बच नहीं सकता पर इस काले कृष्ण की भक्ति का अद्भुत रहस्य तो यह है जो इस कृष्ण रंग में डूबता है वह और और निखरता है।  

एक घड़ी  आधी घड़ी ,आधी से पुनि आध ,

तुलसी संगत साध की ,हरे कोटि अपराध। 

Image result for picture profile of saint tulsidasImage result for picture profile of saint tulsidasImage result for picture profile of saint tulsidasImage result for picture profile of saint tulsidasImage result for picture profile of saint tulsidasImage result for picture profile of saint tulsidas

महाकवि तुलसीदास ने भक्ति में हृदय की शुद्धता और भावना की सफाई को महत्त्व  दिया है। आसनस्थ होकर बहुत समय तक भक्ति का प्रदर्शन करना और लोगों में भक्त होने का प्रदर्शन करना और लोगों में भक्त होने का भाव जगाना तो प्रयत्न साध्य  है किन्तु भक्ति प्रयत्न साध्य नहीं है,वह समर्पण साध्य है। भावना साध्य है। भले ही मन की ऐसी स्थिति बहुत कम समय के लिए हो तो भी वह भक्ति का शिखर है। सच्चे मन से भक्ति भाव में लगाई गई एक डुबकी भी आपको संसार सागर से पार उतार सकती है। बस इसी दृष्टि को प्रतिपादित करते हुए महाकवि तुलसीदास कहते हैं कि सच्ची भावना से थोड़े समय के लिए भी परमात्मा की स्तुति और परमात्मा की भक्ति आपकी चित्त की चंचलता को नष्ट कर सकती है। परमात्मा का ध्यान महत्त्वपूर्ण  है।  समय का माप इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है। यदि आप चित्त की शुद्धता से एक घड़ी  की अपेक्षा आधी घड़ी या उस आधी घड़ी के भी आधे समय के लिए अपने इष्ट देव को समर्पित हो जाते हैं तो आपको ईश्वर की निकटता अनुभव हो सकती है। पर ऐसा तभी सम्भव है जब आप किसी संत या गुरुरूप संत के सान्निध्य को प्राप्त कर लेते हैं तो उस सतसंगति का लाभ तुरंत फलदायी होता है। आपके भीतर का कल्मष दूर हो जाता है और आपके द्वारा किये गए अपराध अथवा पाप भी सतसंगति के प्रभाव से स्वमेव फलशून्य हो जाते हैं। आपका चित्त शांत हो जाता है, किसी ऐसे संत को पाकर आप परमात्म अनुभूति में डूब जाते हैं। तुलसीदास जी ने इस प्रकार संत की संगति को भक्ति का सर्वोच्च स्थान दिया है। 

शब्द सम्हारे  बोलिये ,शब्द के हाथ न पाँव ,

एक शब्द औषध करे ,एक शब्द करे घाव। 

इस दोहे में वाणी के महत्व को प्रतिष्ठित किया गया है। वाणी का उपयोग सावधानी पूर्वक होना चाहिए। यह वाणी है जो सुख शांति और प्रसन्नता का विधान कर सकती है। सबके हृदय को आह्लादित कर सकती है, उदारता से भर सकती है ,,एकता और सौमनस्य का संदेश दे सकती है। पर यदि वाणी का संयम नहीं है तो वह दु: ख  अशान्ति वैर -विरोध परस्पर के विभेद और वैमनस्य का कारक भी हो सकती है। शब्द वाणी का तत्काल फल है। शब्द वाणी का श्रुत रूप है एक बार उच्चरित होने के बाद वो सामाजिक हो जाता है। शब्द का प्रयोगकर्ता उसके उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं हो सकता इसलिए कवि शब्द के उच्चारण से पहले प्रयोक्ता को पहले से विचार कर लेने का सतपरामर्श देते हुए कहते हैं कि शब्द का प्रयोग विवेकपूर्वक करना चाहिए संभल के करना चाहिए। उच्चरित शब्द पाषाण सरीखे भी हो सकते हैं और फूल सरीखे भी ,पाषाण चोटिल कर सकता है और फूल का स्पर्श सुगन्धि का प्रसाद देता है इसलिए कवि ने कहा है कि शब्द के अपने हाथ पाँव नहीं होते अपना कोई भौतिक  रूप नहीं होता प्रयोक्ता की भावना उस शब्द के परिणाम को निश्चित करती है। 

यदि शुद्ध भावना से परहित की दृष्टि से शब्द का प्रयोग किया जाएगा तो वही शब्द हमारे मनस्ताप को शांत कर देगा हमारे मन :पीड़ा को दूर कर देगा। हमें आंतरिक उलझनों से मुक्त कर देगा। हमारा  दिग्दर्शन करेगा हमारे सभी मनस्-रोगों को हर लेगा ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक निपुण वैद्य के द्वारा दी गई उपयुक्त औषधि शरीर और  मन के तापों को  दूर कर देती है। यदि इसके विपरीत बिना सोचे समझे शब्दों का प्रयोग किया जायेगा तो शब्द पत्थर बनकर सुनने वाले को आहत कर देंगे। उसकी मन :स्थिति को चोट पहुंचायेंगे। उसकी सुख शांति को हर लेंगे। उसमें क्रोध आवेश अविवेक और हिंसक प्रतिक्रिया को जगायेंगे जिससे सामाजिक सुख शान्ति भंग हो जायेगी। इसलिए कवि का संकेत है कि शब्द का प्रयोग अपने सामाजिक दायित्व की भावना को अंगीकार करते हुए करना चाहिए। 

नीको हू लागत बुरा ,बिन औसर जो होय,

प्रात भई फीकी लगै ,ज्यों दीपक की लोय। 

इस दोहे में कवि ने नीतिगत विचार को प्राथमिकता दी है। संसार का सारा व्यवहार नीति से शोभित और सुंदर होता है। अनीति से ध्वस्त और त्रस्त होता  है। नीति और मर्यादा एक ही मूल्य के दो नाम हैं। दोनों लोकधर्म का हिस्सा हैं। दोनों ही लोकमंगल का विधान करते हैं। दोनों समाज को समृद्ध करते हैं। नीति आचरण का गतिशील मूल्य है। समाज नीति पर चलेगा तो व्यक्ति और समष्टि दोनों को सुख होगा। व्यक्ति नीति पर चलेगा तो उसे आत्मतोष प्राप्त होगा और समाज को सन्तोषकारी परिणाम मिलेंगे। कवि नीति के इसी महत्त्व को इस दृष्टांत से पुष्ट करते हुए कहते हैं 
कि बिना संदर्भ और अवसर के यदि थोड़ा सा भी व्यवहार किया जाए तो वह बुरे परिणामों को लाने वाला होता है। अप्रियता को बढ़ाता है और अपने समय और सन्दर्भ से कहा हुआ वह कार्य या शब्द सामाजिक व्यवहार को क्षति पहुंचाता है। व्यक्ति मन को अशांत कर देता है। विकृतियों  को बढ़ाने वाला होता है। इसलिए चाहे वह छोटा सा कार्य अथवा बहुत सीमित कथन हो वह समाज के लोकमंगल को नष्ट कर देता है, और वह लोगों की अरुचि का विषय बनता है ठीक उसी तरह जैसे प्रात :काल  हो जाने और सूर्य उदित हो जाने के बाद भी कोई व्यक्ति दीपक की लौ को जलाये रखे। 

दीपक का संबंध रात्रि के अन्धकार से है और यदि अन्धकार सूर्य की किरण के साथ नष्ट हो चुका है तो दीपक की लौ को  प्रज्ज्जवलित रखना बुद्धिहीनता है।ऐसा व्यक्ति समाज में उपहास का विषय बनता है इसलिए कवि कहता है कि समय और संदर्भ से कटे हुए अच्छे काम भी समुचित आदर प्राप्त नहीं करते हैं।  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें