रविवार, 10 सितंबर 2017

"पूजा" के बाद"आरती "करने के निहितार्थ क्या हैं ?क्यों की जाती है किसी भी पूजा के सम्पन्न होने पर आराध्यदेव की आरती?

"पूजा" के बाद"आरती "करने के निहितार्थ क्या हैं ?क्यों की जाती है किसी भी पूजा के सम्पन्न होने पर आराध्यदेव की आरती?

ईष्ट की प्रतिमा के गिर्द प्रज्वलित दीप -थाल को घुमाने का एक कारण यह रहा आया है आज भी दक्षिण  भारत के अधिकाँश मंदिरों के गर्भगृह में बिजली का बल्ब नहीं जलाया जाता है। मात्र दीपक का धीमा प्रकाश ईश को रोशन करता है। उसके आभूषणों की दमक और कांति हम तक पहुँचती है। पुजारी आरती उतारता है ईश को समूचा साफ़ साफ़ आलोकित करने के लिए ताकि उसका दर्शन ठीक से हो सके सर्वांश  में।

गर्भ गृह हमारे हृदय की गुफा की तरह हैं जहां एक साथ ईश और हमारे अज्ञान का अन्धकार है। आरती में कपूर जलाये जाने का एक विशेष अर्थ यह रहता है -कपूर पूरा जल जाता है। दहन सौ फीसद होता है। शेष कुछ नहीं बचता कार्बन (कालिख ),के रूप में। हमारा अज्ञान नष्ट हो अपने ब्रह्म स्वरूप को निरंजन (बिना कालिख)होने को हम जान सकें। आखिरकार एक ही चेतन परिव्याप्त है सृष्टि में। करता और करतार एक ही हैं। किर्येटर एन्ड किरयेशन आर वन एन्ड देअर इज़ नो सेकिंड। देअर इस आनली गॉड।

पूजा आरती आदि भले द्वैत का बोध कराये। इसकी  परिणति अद्वैत में ही होती है। बस भांडा साफ़ रहे हमारा मन स्वच्छ रहे। पूजा अर्चना शुद्धिकरण का एक ज़रिया भर है। मंज़िल अद्वैत ही है जहां पूजित और पुजारी दो नहीं हैं। दो की जस्ट अपियरेन्स है।

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