न तो माया का अस्तित्व है न माया का अस्तित्व नहीं है । न ही वह ये दोनों है। न वह ब्रह्म से भिन्न है और न ही ब्रह्म से अभिन्न है। न ही वह यह दोनों ही है।न वह अंश से निर्मित है न निरंश से। माया महा -अद्भुत है। माया शब्दों से परे है जिसका वर्रण अनिवर्चनीय है। इतनी शक्तिशाली है माया , अविद्या ,प्रकृति ,प्रधान आदि उसके कई नाम है। कुछ ने कहा वह कृष्ण की बहिरंगा शक्ति है एक्सटर्नल एनर्जी है। वह ब्रह्म की रचना शक्ति है। परमात्मा की नौकरानी है लेकिन हमें नांच नचाती है। भ्रमित करती है। कृष्ण से आँखें नहीं मिलाती शर्माती है। नौकरानी जो ठहरी।
माया मनुष्य के अस्तित्व का कारण है। विद्वान भी उसे समझने में असमर्थ होते हैं। इसीलिए कबीर ने कहा -माया महा ठगिनी हम जानी। यहां तक की एक बार देवर्षि नारद भी उसे समझ नहीं पाये। दौड़े -दौड़े वे कृष्ण के पास द्वारका पहुंचे। स्वगत कथन भी नारद ने माया की बाबत कम नहीं किया।बुदबुदाया -सत्य वह है जिसका अस्तित्व तीनों कालों में होता है। जो काल निरपेक्ष है ,स्थान निरपेक्ष है। असत्य वह है जिसका अस्तित्व किसी भी काल में नहीं होता है।
पर संसार तो है और बाकायदा है क्योंकि वह दिखाई देता है।संसार सत्य भी है असत्य भी है क्योंकि वह निरंतर परिवर्तन शील है। और जो परिवर्तनशील है समय के साथ बदलता है थिर नहीं रहता सत्य नहीं हो सकता। तब क्या संसार मिथ्या है ?माया है ?
चलो कृष्ण से ही पूछते हैं। कृष्ण कहते हैं -माया इस ब्रह्म की रचना शक्ति है।
पर वह है क्या ?-"पूछा नारद ने "
कृष्ण बोले चलो थोड़ी देर बाहर घूम आये। कृष्ण चलते गए चलते गए नारद को मरुथल में ले आये। नारद बोले प्रभु अर्जुन ने बस अपना गांडीव रख दिया था और आपने तत्क्षण (दूर बोध से )उसे सारा गीता ज्ञान दे दिया। और मुझे आप चलाये जा रहे हो चलाये जा रहे हो। ये कैसी लीला है प्रभु ?और कितनी दूर मुझे चलाओगे । कृष्ण बोले-देव ऋषि आपने कितनी बार पृथ्वी की परिक्रमा की है। बस थोड़ी दूर और सही। फिर बोले नारद इस मरुभूमि में तुम मुझे पानी पिला दो ,बड़ी प्यास लगी है फिर मैं तुम्हें बतला दूंगा , माया का रहस्य समझा दूंगा। बतला दूंगा कि माया क्या है।
नारद बोले -खूब नचाओ प्रभु। पर मैं भी हार नहीं मानूंगा। और यह कहकर जीवन के मरुथल में जल ढूंढने चल दिए।
नारद पानी ढूंढने निकले जीवन के मरुस्थल में। देखा एक कूए पर कुछ युवतियां पानी खींच रहीं हैं। एक युवती दूसरी को पानी पिला रही है। उस सांवली सलौनी युवती ने ओक से पानी पीया है। नारद उस पे रीझ गए हैं।
थोड़ा पानी मिलेगा उसी युवती से कहते हैं।
ज़रूर देव ऋषि नारद। पानी पीते -पीते ही युवती पर मोहित जाते हैं। उनके पीछे हो लेते हैं। उसके पिता के पास पहुँचते हैं। देव ऋषि गए तो थे कृष्ण के लिए जल लेने लेकिन अब कृष्ण को ही भूल गए। फिर जल की कौन कहे। ये संसार ऐसे ही चलता है।
लड़की के बाप से नारद बोले -राजन ब्रह्मचर्य का पालन करते करते मैं अब ऊब गया हूँ। सोचता हूँ मैं अब गृहस्थी बसा ही लूँ। कौन है वह कन्या राजा ने पूछा। आपकी बेटी -"ज़वाब मिला "
आपको कोई संकोच हो रहा है ?-"पूछा नारद ने "
संकोच कैसा पर मेरी एक शर्त है। आप तीनों लोकों में घूमते रहते हैं। मेरी बेटी आपके साथ कहाँ कहाँ जाएगी। बोले नारद -मुझे शर्त मंजूर है।
जल्दी ही श्वसुर जी (लड़की के पिता )का देहांत हो गया। क्योंकि राजा को पुत्र न था इसलिए नारद को ही राज्य का भार सम्भालना पड़ा। देखते ही देखते नारद जी तीन बच्चों के बाप भी बन गए। इतना ही नहीं वे साम्राज्य विस्तार की चिंता भी करने लगे। पड़ौसी राज्यों की संप्रभुता को नष्ट करने के लिए उन्होंने अश्वमेध यज्ञ का एलान कर दिया।
इस संसार में सुख और दुःख संग संग चलते हैं। नारद सुख में डूबे हुए थे और विपत्ति उनका द्वार खटखटा रही थी। पड़ौसी राजा ने न सिर्फ उनका अश्वमेध का घोड़ा पकड़ लिया उनके राज्य पर आक्रमण भी कर दिया। महर्षि युद्ध हार गए। किसी प्रकार बीवी बच्चों सहित अपने प्राण बचाकर भाग निकले।
अब नारद दर -दर की ठोकरें खाने लगे। संसार में जो सुख का अनुभव करता है वही दुःख का भी अनुभव करता है।न सुख सत्य है न दुःख सत्य है।
जायते इति जगत :
अभी सुख है अभी दुःख है , अभी क्या है ,अभी क्या था ,जहां दुनिया बदलती है उसी का नाम दुनिया है। अज्ञानी मनुष्य ही दया का पात्र होता है। बच्चे तीन दिन से भूखे थे नदी किनारे एक गाँव था इसी आस से के वहां कुछ मिलेगा नारद नदी किनारे पहुंचे। देखा एक नाव खड़ी है। नाव खोली और बच्चों सहित सवार होकर खेने लगे। बीच नदी के पहुँचने पर नाव पलट (उलट )गई। नारद को खेना तो आता न था। किसी प्रकार अपनी ही जान बचा सके।
नारद की आँखें बंद थी वे ज़ोर ज़ोर से चिल्ला रहे थे। कोई मेरे बच्चों की जान बचाओ।
हे !भगवान !हे !भगवान !
कृष्ण बोले मैं यहां हूँ। पानी ले आये। एक घंटे से तुम्हारी बाट जोह रहा हूँ।
एक घंटे से। अरे ये सब एक घंटे में ही घटित हो गया। एक घटे मैंने पूरा जीवन देख लिया। आसपास नारद ने देखा न कहीं बाढ़ थी न पानी। न बीवी न बच्चे।
कृष्ण बोले बस यही माया है। माया अनिवर्चनीय है वह शब्दों से नहीं अनुभव से समझ में आती है। ये संसार भी उस सपने की तरह है जो देवर्षि ने देखा। जो सत्य को मिथ्या के आवरण में छिपा कर सत्य के रूप में प्रकट करती है वही तो माया है। जो समूचे संसार को ही मिथ्या के आवरण में छिपाकर प्रकट करती है वही तो माया है।
जैसे रात के अँधेरे में हमें रस्सी में सांप दिखलाई पड़ता है। जो हम देख रहे हैं वह सत्य नहीं है। आत्मा का ज्ञान होते ही माया का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। केवल ब्रह्म या आत्मा ही सत्य है।
असत्य वह है जिसका अस्तित्व ही नहीं है जैसे गधे के सिर पे सींग जो आज तक भी किसी ने नहीं देखे हैं। माया को न तो सत्य के रूप में परिभाषित किया जा सकता है न असत्य के रूप में। इसीलिए उपनिषद इसे अनिवर्चनीय कहते हैं।
नारद पूछते हैं भगवन माया और संसार में क्या अंतर है ?
कार्य कारण का ही दूसरा रूप है। माया कारण है संसार उसका कार्य है। बोले भगवान देव ऋषि जब हम सृष्टि की रचना प्रक्रिया को देखते हैं तब कारण ही कार्य के रूप दिखलाई देता है। पानी कारण है और बुलबुला उसका कार्य।
सत्य पर पर्दा माया की आवरण शक्ति है। जब असत्य ही सत्य का आभास देता है तब उसे माया की विक्षेप शक्ति कहते हैं। माया असंभव घटना को संभव कराने में निपुण है। ये सारा संसार ही माया का विक्षेप है। सत्य का ज्ञान ही मुक्ति का मार्ग है। दिन के उजाले में जब रस्सी का बोध होता है तो रस्सी पर आरोपित सांप गायब हो जाता है।
अयं आत्मा ब्रह्म। सत्यम ज्ञानम् अनन्तं। अहम ब्रह्मास्मि। मैं आत्मा अनुपम हूँ असीम हूँ ,सनातन अस्तित्व हूँ ,सर्व -व्यापी हूँ ,सम्पूर्ण ज्ञान हूँ। जीव -ईश्वर -जगत का भेद नहीं है तीनों एक हैं। माया अपनी विक्षेप शक्ति से भेद पैदा कर देती है। जीव -जगत -ईश्वर को अलग कर देती है।
जब तुम ब्रह्म के साथी बनोगे तो माया से अप्रभावित रहोगे।
विशेष :जो है वह माया नहीं हो सकता। लेकिन जो है उसे समय के माध्यम से देखने से वह सब माया हो जाता है। और जो है उसे समय के अतिरिक्त ,समय का अतिक्रमण करके देखने से वह सब सत्य हो जाता है। संसार समय के माध्यम से देखा गया सत्य है।
सत्य समय शून्य माध्यम से देखा गया संसार है।
जयश्री कृष्णा।
ब्रह्म की रचना शक्ति है माया
https://www.youtube.com/watch?v=whVG6M8GTsU
माया मनुष्य के अस्तित्व का कारण है। विद्वान भी उसे समझने में असमर्थ होते हैं। इसीलिए कबीर ने कहा -माया महा ठगिनी हम जानी। यहां तक की एक बार देवर्षि नारद भी उसे समझ नहीं पाये। दौड़े -दौड़े वे कृष्ण के पास द्वारका पहुंचे। स्वगत कथन भी नारद ने माया की बाबत कम नहीं किया।बुदबुदाया -सत्य वह है जिसका अस्तित्व तीनों कालों में होता है। जो काल निरपेक्ष है ,स्थान निरपेक्ष है। असत्य वह है जिसका अस्तित्व किसी भी काल में नहीं होता है।
पर संसार तो है और बाकायदा है क्योंकि वह दिखाई देता है।संसार सत्य भी है असत्य भी है क्योंकि वह निरंतर परिवर्तन शील है। और जो परिवर्तनशील है समय के साथ बदलता है थिर नहीं रहता सत्य नहीं हो सकता। तब क्या संसार मिथ्या है ?माया है ?
चलो कृष्ण से ही पूछते हैं। कृष्ण कहते हैं -माया इस ब्रह्म की रचना शक्ति है।
पर वह है क्या ?-"पूछा नारद ने "
कृष्ण बोले चलो थोड़ी देर बाहर घूम आये। कृष्ण चलते गए चलते गए नारद को मरुथल में ले आये। नारद बोले प्रभु अर्जुन ने बस अपना गांडीव रख दिया था और आपने तत्क्षण (दूर बोध से )उसे सारा गीता ज्ञान दे दिया। और मुझे आप चलाये जा रहे हो चलाये जा रहे हो। ये कैसी लीला है प्रभु ?और कितनी दूर मुझे चलाओगे । कृष्ण बोले-देव ऋषि आपने कितनी बार पृथ्वी की परिक्रमा की है। बस थोड़ी दूर और सही। फिर बोले नारद इस मरुभूमि में तुम मुझे पानी पिला दो ,बड़ी प्यास लगी है फिर मैं तुम्हें बतला दूंगा , माया का रहस्य समझा दूंगा। बतला दूंगा कि माया क्या है।
नारद बोले -खूब नचाओ प्रभु। पर मैं भी हार नहीं मानूंगा। और यह कहकर जीवन के मरुथल में जल ढूंढने चल दिए।
नारद पानी ढूंढने निकले जीवन के मरुस्थल में। देखा एक कूए पर कुछ युवतियां पानी खींच रहीं हैं। एक युवती दूसरी को पानी पिला रही है। उस सांवली सलौनी युवती ने ओक से पानी पीया है। नारद उस पे रीझ गए हैं।
थोड़ा पानी मिलेगा उसी युवती से कहते हैं।
ज़रूर देव ऋषि नारद। पानी पीते -पीते ही युवती पर मोहित जाते हैं। उनके पीछे हो लेते हैं। उसके पिता के पास पहुँचते हैं। देव ऋषि गए तो थे कृष्ण के लिए जल लेने लेकिन अब कृष्ण को ही भूल गए। फिर जल की कौन कहे। ये संसार ऐसे ही चलता है।
लड़की के बाप से नारद बोले -राजन ब्रह्मचर्य का पालन करते करते मैं अब ऊब गया हूँ। सोचता हूँ मैं अब गृहस्थी बसा ही लूँ। कौन है वह कन्या राजा ने पूछा। आपकी बेटी -"ज़वाब मिला "
आपको कोई संकोच हो रहा है ?-"पूछा नारद ने "
संकोच कैसा पर मेरी एक शर्त है। आप तीनों लोकों में घूमते रहते हैं। मेरी बेटी आपके साथ कहाँ कहाँ जाएगी। बोले नारद -मुझे शर्त मंजूर है।
जल्दी ही श्वसुर जी (लड़की के पिता )का देहांत हो गया। क्योंकि राजा को पुत्र न था इसलिए नारद को ही राज्य का भार सम्भालना पड़ा। देखते ही देखते नारद जी तीन बच्चों के बाप भी बन गए। इतना ही नहीं वे साम्राज्य विस्तार की चिंता भी करने लगे। पड़ौसी राज्यों की संप्रभुता को नष्ट करने के लिए उन्होंने अश्वमेध यज्ञ का एलान कर दिया।
इस संसार में सुख और दुःख संग संग चलते हैं। नारद सुख में डूबे हुए थे और विपत्ति उनका द्वार खटखटा रही थी। पड़ौसी राजा ने न सिर्फ उनका अश्वमेध का घोड़ा पकड़ लिया उनके राज्य पर आक्रमण भी कर दिया। महर्षि युद्ध हार गए। किसी प्रकार बीवी बच्चों सहित अपने प्राण बचाकर भाग निकले।
अब नारद दर -दर की ठोकरें खाने लगे। संसार में जो सुख का अनुभव करता है वही दुःख का भी अनुभव करता है।न सुख सत्य है न दुःख सत्य है।
जायते इति जगत :
अभी सुख है अभी दुःख है , अभी क्या है ,अभी क्या था ,जहां दुनिया बदलती है उसी का नाम दुनिया है। अज्ञानी मनुष्य ही दया का पात्र होता है। बच्चे तीन दिन से भूखे थे नदी किनारे एक गाँव था इसी आस से के वहां कुछ मिलेगा नारद नदी किनारे पहुंचे। देखा एक नाव खड़ी है। नाव खोली और बच्चों सहित सवार होकर खेने लगे। बीच नदी के पहुँचने पर नाव पलट (उलट )गई। नारद को खेना तो आता न था। किसी प्रकार अपनी ही जान बचा सके।
नारद की आँखें बंद थी वे ज़ोर ज़ोर से चिल्ला रहे थे। कोई मेरे बच्चों की जान बचाओ।
हे !भगवान !हे !भगवान !
कृष्ण बोले मैं यहां हूँ। पानी ले आये। एक घंटे से तुम्हारी बाट जोह रहा हूँ।
एक घंटे से। अरे ये सब एक घंटे में ही घटित हो गया। एक घटे मैंने पूरा जीवन देख लिया। आसपास नारद ने देखा न कहीं बाढ़ थी न पानी। न बीवी न बच्चे।
कृष्ण बोले बस यही माया है। माया अनिवर्चनीय है वह शब्दों से नहीं अनुभव से समझ में आती है। ये संसार भी उस सपने की तरह है जो देवर्षि ने देखा। जो सत्य को मिथ्या के आवरण में छिपा कर सत्य के रूप में प्रकट करती है वही तो माया है। जो समूचे संसार को ही मिथ्या के आवरण में छिपाकर प्रकट करती है वही तो माया है।
जैसे रात के अँधेरे में हमें रस्सी में सांप दिखलाई पड़ता है। जो हम देख रहे हैं वह सत्य नहीं है। आत्मा का ज्ञान होते ही माया का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। केवल ब्रह्म या आत्मा ही सत्य है।
असत्य वह है जिसका अस्तित्व ही नहीं है जैसे गधे के सिर पे सींग जो आज तक भी किसी ने नहीं देखे हैं। माया को न तो सत्य के रूप में परिभाषित किया जा सकता है न असत्य के रूप में। इसीलिए उपनिषद इसे अनिवर्चनीय कहते हैं।
नारद पूछते हैं भगवन माया और संसार में क्या अंतर है ?
कार्य कारण का ही दूसरा रूप है। माया कारण है संसार उसका कार्य है। बोले भगवान देव ऋषि जब हम सृष्टि की रचना प्रक्रिया को देखते हैं तब कारण ही कार्य के रूप दिखलाई देता है। पानी कारण है और बुलबुला उसका कार्य।
सत्य पर पर्दा माया की आवरण शक्ति है। जब असत्य ही सत्य का आभास देता है तब उसे माया की विक्षेप शक्ति कहते हैं। माया असंभव घटना को संभव कराने में निपुण है। ये सारा संसार ही माया का विक्षेप है। सत्य का ज्ञान ही मुक्ति का मार्ग है। दिन के उजाले में जब रस्सी का बोध होता है तो रस्सी पर आरोपित सांप गायब हो जाता है।
अयं आत्मा ब्रह्म। सत्यम ज्ञानम् अनन्तं। अहम ब्रह्मास्मि। मैं आत्मा अनुपम हूँ असीम हूँ ,सनातन अस्तित्व हूँ ,सर्व -व्यापी हूँ ,सम्पूर्ण ज्ञान हूँ। जीव -ईश्वर -जगत का भेद नहीं है तीनों एक हैं। माया अपनी विक्षेप शक्ति से भेद पैदा कर देती है। जीव -जगत -ईश्वर को अलग कर देती है।
जब तुम ब्रह्म के साथी बनोगे तो माया से अप्रभावित रहोगे।
विशेष :जो है वह माया नहीं हो सकता। लेकिन जो है उसे समय के माध्यम से देखने से वह सब माया हो जाता है। और जो है उसे समय के अतिरिक्त ,समय का अतिक्रमण करके देखने से वह सब सत्य हो जाता है। संसार समय के माध्यम से देखा गया सत्य है।
सत्य समय शून्य माध्यम से देखा गया संसार है।
जयश्री कृष्णा।
ब्रह्म की रचना शक्ति है माया
https://www.youtube.com/watch?v=whVG6M8GTsU
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