बुधवार, 18 मई 2016

शरीर तो जड़ है। आत्मा ही उसे चैतन्य किए रहता है। आत्मा की व्याप्ति सारे शरीर में रहती है ,होती है.लेकिन शरीर जब जर्जर हो जाता है आत्मा को सम्भाले नहीं रख पाता ,आत्मा (चैतन्य दिव्यांश परमात्मा का ) ,इसे छोड़ दूसरे शरीर में चला जाता है। अपने कर्मों के अनुरूप उसे नया बाना ( चोला /जीव योनि )मिल जाती है।

तो फिर मरता कौन है ?

शरीर तो जड़ है। आत्मा ही उसे चैतन्य किए रहता है। आत्मा की व्याप्ति सारे शरीर में रहती है ,होती है.लेकिन शरीर जब जर्जर हो जाता है आत्मा को सम्भाले नहीं रख पाता ,आत्मा (चैतन्य दिव्यांश परमात्मा का ) ,इसे छोड़ दूसरे शरीर में चला जाता है। अपने कर्मों के अनुरूप उसे नया बाना ( चोला /जीव योनि )मिल जाती है। 

आत्मा सनातन है अनादि है ,सर्वत्र व्याप्त है ,कभी मरता नहीं है ,न कभी पैदा होता है। 

आत्मा का देहांतरण होता है। तो फिर मरता कौन है ?शरीर तो जड़ है ,पाँच तत्वों का जमावड़ा है।क्रिया करनी पड़ती है ,शरीर की आत्मा के निकल जाने के बाद। आँख ,नाक ,कान, मुख ,चमड़ी  सब अभी भी रहते हैं लेकिन न आँख अब देखती है न कान सुनते हैं न मुख अब  बोलता है न चमड़ी स्पर्श का अनुभव करती है। 

कौन है वह जो आँख की भी आँख है ,कान का भी कान है (श्रवण है ),मुख का सम्भाषण है ,चमड़ी का स्पर्श अनुभव करता है। नासिका की गंध है ?कहाँ गया वह। उपनिषद का ऋषि कहता है यह शरीर एक वृक्ष के समान है जिस पर दो पक्षी रहते हैं। एक जो वृक्ष के फल खाता है ,सुख दुःख का भोक्ता है और दूसरा सिर्फ साक्षी भाव से उसको ऐसा करते हुए देखता है। वह पक्षी जो सुख दुःख का अनुभव करता है बद्धजीव है ,दूसरा परमात्मा है। 

जीव जब तक खुद को शरीर मानता है त्रिगुणात्मक प्रकृति (माया ,कृष्ण की बहिरंगा शक्ति ,एक्सटर्नल एनर्जी )से भ्रमित रहता है। वह यह भी नहीं जानता वह न भोक्ता है न कर्ता ।भुक्त है। असली भोक्ता तो कृष्ण है (वह परमात्मा है जो गुणातीत बना रहता ,भोक्ता है फिर भी भोग से अलिप्त रहता है ). कर्ता प्रकृति के तीनों गुण हैं -सतो -रजो -तमो ,क्षण प्रतिक्षण किसी एक गुण का प्राबल्य बना रहता है शेष दो को दबाकर।इन्द्रियाँ अपने अपने विषयों में रमण करती रहतीं हैं।

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