देहधरे का दंड है ,सब काहू को होय ,
ज्ञानी भुगते ज्ञान ते ,मूरख भुगते रोय।
काहु न कोउ ,सुख दुःख कर दाता ,
निज कृत करम ,भोग सब भ्राता।
करम प्रधान विस्व करि राखा ,
जो जस करइ ,सो तस फलु चाखा।
सबका अपना पाथेय पंथ एकाकी है ,
अब होश हुआ ,जब इन गिने दिन बाकी हैं।
भावी काहू सौ न टरै।
कहँ वह राहु ,कहाँ वै ,रवि -ससि ,
आनि संजोग परै।
मुनि बशिष्ट पंडित अति ग्यानी।
रचि -पचि लगन धरै।
तात -मरन सिय-हरन ,
राम बन बपु धरि बिपति भरै।
रावन जीति कोटि तैतीसा ,
त्रिभुवन -राज करै।
मृत्युहि बाँधि कूप में राखे ,
भावी बस सो मरै।
अरजुन के हरि हुते सारथि ,
सोऊ बन निकरै।
द्रुपद -सुता कौ राजसभा ,
दुस्सासन चीर हरै।
हरीचंद -सौ को जग दाता ,
सो घर नीच भरे।
जो गृह छोड़ि देस बहु धावै ,
तउ वह संग फिरै।
भावी के बस तीन लोक हैं ,
सुर नर देह देह धरै।
सूरदास प्रभु रची सु हैवहै ,
को करि सोच मरे।
भाव यह है भावी से होनी से अपने प्रारब्ध से ,कर्मो के लेखे से कौन बचा है। ये देह परमात्मा ने जब दी है तो प्रारब्ध (पूर्व जन्मों के कर्मों का एक अंश )तो भोगना ही पड़ेगा। हँस के भोगो या रोके किसी और को बलि का बकरा बनाने से क्या फायदा। सुख दुःख मैं अपने कर्मों से ही लिखता आया हूँ जन्म जन्मांतरों से।
होनहार (प्रारब्ध )किसी से नहीं टलती। कहाँ वे राहु और कहाँ वे सूर्य-चन्द्र ,बहुत दूरी है उनमें ,किन्तु इनका भी ग्रहण के समय संजोग हो जाता है। वशिष्ठ मुनि बड़े विद्वान तथा ग्यानी थे और उन्होंने बड़ी महनत से राज्य -अभिषेक का मुहूर्त निकाला था फिर भी होनी को कौन टाल सका ,दशरथ जी मर गए ,सीताजी का हरण हो गया और राम को वनवासी बनके कष्ट झेलने पड़े।
रावण ने तैतीस करोड़ देवताओं को जीत लिया था। मृत्यु को बंधक बनाके कुएं में डाल दिया था ,किन्तु प्रारब्ध के हाथों वह भी मारा गया। अर्जुन के तो स्वयं भगवान कृष्ण सारथि थे ,पर उसे भी वनवास भोगना पड़ा ,द्रोपदी श्री कृष्ण की परम भक्ता थी ,पर राजसभा में दुस्सासन ने उनका चीरहरण किया। संसार में राजा हरिश्चचन्द्र के समान कौन दानी होगा ,प्रारब्ध के हाथों उन्ह भी चांडाल का नौकर बनना पड़ा।
यदि कोई विदेश भी चला जाय तब भी प्रारब्ध उसके साथ ही जाता है उसका पिंड नहीं छोड़ता। तीनों लोकों में देवता ,मनुष्य और जितने भी जीव (देहधारी )हैं सभी प्रारब्ध के वश में हैं। अत : महाकवि सूरदास कहतें हैं -होइ है वही जो राम रची राखा ,प्रभु ने जो विधान रच रखा है प्रकृति का जो संविधान है उससे कोई नहीं बचा है न बच सकता है।
ज्ञानी भुगते ज्ञान ते ,मूरख भुगते रोय।
काहु न कोउ ,सुख दुःख कर दाता ,
निज कृत करम ,भोग सब भ्राता।
करम प्रधान विस्व करि राखा ,
जो जस करइ ,सो तस फलु चाखा।
सबका अपना पाथेय पंथ एकाकी है ,
अब होश हुआ ,जब इन गिने दिन बाकी हैं।
भावी काहू सौ न टरै।
कहँ वह राहु ,कहाँ वै ,रवि -ससि ,
आनि संजोग परै।
मुनि बशिष्ट पंडित अति ग्यानी।
रचि -पचि लगन धरै।
तात -मरन सिय-हरन ,
राम बन बपु धरि बिपति भरै।
रावन जीति कोटि तैतीसा ,
त्रिभुवन -राज करै।
मृत्युहि बाँधि कूप में राखे ,
भावी बस सो मरै।
अरजुन के हरि हुते सारथि ,
सोऊ बन निकरै।
द्रुपद -सुता कौ राजसभा ,
दुस्सासन चीर हरै।
हरीचंद -सौ को जग दाता ,
सो घर नीच भरे।
जो गृह छोड़ि देस बहु धावै ,
तउ वह संग फिरै।
भावी के बस तीन लोक हैं ,
सुर नर देह देह धरै।
सूरदास प्रभु रची सु हैवहै ,
को करि सोच मरे।
भाव यह है भावी से होनी से अपने प्रारब्ध से ,कर्मो के लेखे से कौन बचा है। ये देह परमात्मा ने जब दी है तो प्रारब्ध (पूर्व जन्मों के कर्मों का एक अंश )तो भोगना ही पड़ेगा। हँस के भोगो या रोके किसी और को बलि का बकरा बनाने से क्या फायदा। सुख दुःख मैं अपने कर्मों से ही लिखता आया हूँ जन्म जन्मांतरों से।
होनहार (प्रारब्ध )किसी से नहीं टलती। कहाँ वे राहु और कहाँ वे सूर्य-चन्द्र ,बहुत दूरी है उनमें ,किन्तु इनका भी ग्रहण के समय संजोग हो जाता है। वशिष्ठ मुनि बड़े विद्वान तथा ग्यानी थे और उन्होंने बड़ी महनत से राज्य -अभिषेक का मुहूर्त निकाला था फिर भी होनी को कौन टाल सका ,दशरथ जी मर गए ,सीताजी का हरण हो गया और राम को वनवासी बनके कष्ट झेलने पड़े।
रावण ने तैतीस करोड़ देवताओं को जीत लिया था। मृत्यु को बंधक बनाके कुएं में डाल दिया था ,किन्तु प्रारब्ध के हाथों वह भी मारा गया। अर्जुन के तो स्वयं भगवान कृष्ण सारथि थे ,पर उसे भी वनवास भोगना पड़ा ,द्रोपदी श्री कृष्ण की परम भक्ता थी ,पर राजसभा में दुस्सासन ने उनका चीरहरण किया। संसार में राजा हरिश्चचन्द्र के समान कौन दानी होगा ,प्रारब्ध के हाथों उन्ह भी चांडाल का नौकर बनना पड़ा।
यदि कोई विदेश भी चला जाय तब भी प्रारब्ध उसके साथ ही जाता है उसका पिंड नहीं छोड़ता। तीनों लोकों में देवता ,मनुष्य और जितने भी जीव (देहधारी )हैं सभी प्रारब्ध के वश में हैं। अत : महाकवि सूरदास कहतें हैं -होइ है वही जो राम रची राखा ,प्रभु ने जो विधान रच रखा है प्रकृति का जो संविधान है उससे कोई नहीं बचा है न बच सकता है।
प्रारब्ध से कौन छूट सका ...
जवाब देंहटाएंप्रारब्ध से बचना ही असली चतुरता है.
जवाब देंहटाएंप्रारब्ध को धता बताना ही ज्ञान है।
कर्म प्रधान। …। बहुत अच्छी चोपाई है ,
ऊपर लिखे का उपाय इससे अगली चोपाई में देखें
में बूढ़ा हूँ इसलिए ज्यादा नहीं लिख सकता।
कृपया फोन करें।
अशोक गुप्ता
दिल्ली
9810890743