बिन सतसंग विवेक न होई ,
राम कृपा बिन सुलभ न सोई।
मनुष्य जीवन में पूर्णता का आकांक्षी है। वह जीवन में इस प्रकार की पात्रता अर्जित करना चाहता है के उसके आसपास कोई अभाव न रहे। इसीलिए वह संपत्ति धन वैभव संचय करता है।वह लोकमान्य होना चाहता है शिखरस्थ होना चाहता है। उसके पास जो दारिद्रय है उससे मुक्त सुखमय आनंदमय जीवन जीना चाहता है। इसलिये वह उन ज्ञान गलियों को ढूंढता है जहां से उसे भ्रम मुक्ति का ,दुःख के निराकरण का और चित्त के स्थाई समाधान का मार्ग मिले।
हमारे शास्त्र कहते हैं जिस गलियारे से जीवन को पूर्णता ,मन को तुष्टि पुष्टि सिद्धि और समाधान मिलेगा वह गलियारा बिना इन्द्रियों के संयम के नहीं मिलता।
जितेन्द्रियता -
इन्द्रिय संयम -
जित : संग दोष :
कितना बोलना है सोच कैसी बनानी है ?इस पर काम कीजिये। जिसमें परमार्थ है प्रीती है बस वही विजेता है। इसके लिए इन्द्रीय संयम ज़रूरी है। मन को जीते बिना आप कुछ पा नहीं सकते।
मन : मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयोः
मन ही बंधन का कारण है मन ही मोक्ष का कारण है। जब आप मनोजयी हैं तब यह मन मोक्ष का कारण है -मनुस्मृति और भगवद्गीता दोनों ही ऐसा कहतीं हैं।
जो अनुकूलताओं का संचय करने में जुटा है उसी का नाम मन है -रामायण ऐसा कहती है। सब अनुकूल बने शासक ,प्रशासक ,संतति ,देव सत्ता सब मेरे अनुकूल रहें।हर मनुष्य यही तो चाहता है।
प्रतिकूलताओं का प्रतिकार करना चाहता है मन।
मन अन्य में पूरी प्रकृति में रूपांतरण का आकांक्षी है। मन अनुकूलताओं का संचय करता है।
परिवर्तन स्वयं में हो -साधना का एक प्रबल पक्ष यही है। लेकिन हम परिवर्तन के आकांक्षी है अन्य में। यही हमारे सारे दुखों का कारण है।
क्या हम स्वयं में परिवर्तन कर सकते हैं ?
"मेरी मान्यताएं मूढ़ तो नहीं है मेरे चित्त में चांचल्य का अतिरेक तो नहीं है। मेरे आग्रह अति प्रचंड तो नहीं हैं। मेरी जीवन शैली से बहुत से लोग व्यथित तो नहीं होते उनके स्वाभिमान को चोट तो नहीं पहुँचती। मेरी प्रतिक्रिआएं बहुत भीषण तो नहीं होती। "-क्या कभी इस बात पर हम ध्यान देंगें ?
हमारी प्रतिक्रियाएं बहुत भीषण न हों। विभीषण की तरह रस -सिद्ध हों ,शांत हों।पूरी लंका में उनके अलावा सबमें सबकी प्रतिक्रियाओं में भीषणता है।हनुमान ने राम को यही तो कहा -जिस लंका से मैं लौट के आ रहा हूँ वहां एक ही व्यक्ति ऐसा मिला जिसकी प्रतिक्रिया भीषण न थी।वह था -विभीषण -ऐसा व्यक्ति जो बहुत आदरणीय है जिस पर विश्वास किया जा सकता है।
ध्यान दें के हम आवेशित न हों ,भीषण न हों ,उत्तेजित न हों। हम थोड़ा संयम में रहें। हम अपने चरित्र पर चित्त पर थोड़ा ध्यान दें। हमें ध्यान रहे हम श्रेष्ठ जनों के बीच में हैं। हम उद्धृत न हों। स्वामित्व की प्रवृत्ति हम में उतनी न रहे।बालकों के लिए हम स्वीकार्य हों उनका तिरस्कार न करें। दूसरों के स्वाभिमान के प्रति ,संवेदनाओं के प्रति हम स्वयं सजग रहें।एकीकृत रहें।
वेद ऐसा कहता है -
बस इतना ही हम न देखें के हम संगठित हैं समन्वित हैं एक साथ कदम मिलाकर एक ही फ़ाइल में हम सबके साथ चल रहे हैं।
लेकिन क्या उनकी विचारधारा के लिए भी हम में समर्थन है ?संगठन का एक बड़ा सूत्र है दूसरों की भावनाएं आहत न हों।अहिंसा यही है।
यह युग ऐसा है इसमें वैर है असुरक्षा है आतंक है अनीति है दुराचार है। इसलिए क्योंकि हम दूसरे का मन नहीं जान पा रहे हैं।
उसके हिस्से में भी स्वाभिमान आता है सम्मान आता है। उसके अधिकारों के प्रति भी सचेत बनिए ,उसकी विकलता अभावों को महसूस कीजिये। अगर वह अभावग्रत है तो उसे अन्न ,अर्थ और औषधि पहुंचाओ।
सच्ची उपासना यही है वेद यही कहता है
देवताओं जैसी नीयत बनाओं। बूढ़ों के स्वाभिमान का ,सम्मान का आपको आदर करना है उन तक यह सन्देश पहुंचे -अभी तक उनकी सीख के प्रति आपमें शिष्यत्व है उन्हें उपहार नहीं समय चाहिए।
आध्यात्मिक व्यक्ति वह है जिसका उधर ध्यान गया है . स्वयं भू बनना चाहते हो ,उसका एक ही साधन है -पुण्य।
यही पाथेय है जो परलोक में भी काम आएगा।पुण्य ही पाथेय है परलोक के लिए वही आपको देवलोक में ले जाएगा।
पुण्य क्या है ?
परोपकार: पुण्याय :,
पापाय :परपीड़नं।
वृक्ष की तरह जीयो -वही तो बादलों को पर्जन्यों को बुलाता है। बादलों को चाहिए वृक्ष उनकी आद्रता।वृक्ष की लकड़ियां उदर की प्यास भूख मिटाने के लिए ईंधन बन जाती हैं। ऐसा बनो।
हवन की भस्म ,विभूति बनो ,जो राख से भी ज्यादा आदरणीय हैं। वह लकड़ी जो समिधा है वह बनो , चूल्हे की लकड़ी नहीं यज्ञ की समिधा बनके जलना।भस्म बनना जो शिव के मस्तक पर भी चढ़ेगी।वह भस्म जो शिवाभिषेक के काम आ रही है नागाओं के तन पर मस्तक पर जो शोभा है विभूति की वह समिधा की ही विभूति है।
फर्क सिर्फ इतना है लकड़ी किस निमित्त जली है।
क्या आदमी की कोई चीज़ काम नहीं आती ?
साधना का कोई पहला चरण है तो उसका नाम है आत्मनिरीक्षण।कथा खुद को जानने का एक हेतु है वह आपको आत्मनिरीक्षण के लिए तैयार करती है। आत्मसुधार के लिए आप में बाध्यता पैदा करती हैं ,आत्म -सुधार के लिए व्याकुलता पैदा करती है। और दशरथ एक दिन ऐसा करते हैं। दशरथ ने अपने पुण्यों के फल का प्रताप देखा है निशाचरों के आतंक से जिस स्वर्ग में भी हाहाकार मच जाता है अपने पुण्यों की प्रचंडता के प्रताप से वह स्वर्ग में छलांग लगाके देवताओं की सहायता के लिए पहुचं जाते हैं लेकिन जो मर्यादा जो बात राम में है वह मुझमे नहीं है।ऐसा शील सौंदर्य माधुर्यता ,विद्या की सम्पन्नता ,वातसल्य मुझमें नहीं है। मैं एक अच्छा नगर सेवक तो हूँ अच्छा प्रशासक तो रहा लेकिन वह भगवद्ता ,वैसा पावित्र्य ,उस तरह की उच्चता मुझमें नहीं है जो राम में है।
इसलिए मुझे ठीक समय पर इस सत्ता को राम के हाथों में सौंप देना चाहिए। मनुष्य प्रत्येक से जीतना चाहता है लेकिन एक पिता अपने पुत्र की योग्यता से और एक माँ अपनी बेटी के शील और सौंदर्य से नैतिकता से हारना चाहतीहै।
सच्चा गुरु भी वही है जो अपने शिष्य से हारना चाहता है ज्ञान में वैराग्य में इन्द्रियों के संयम में ,अलोभता में ,अकामता में और निरंतर उस दिन की प्रतीक्षा करता है।स्वर्ग के भी आकर्षण मेरे शिष्य को तनिक भी न छूएं। और जिस दिन गुरु को अपने शिष्य में यह दीखता है के स्वर्ग की भी कोई सत्ता इसमें लोभता पैदा नहीं कर रही है ,यह आप्तकाम पूर्णकाम हो चुका है अलोभता को प्राप्त हो चुका है उस दिन वह अपने आसन से खड़ा हो जाता है शिष्य को उस पर बिठाता है और कहता है आज से गुरु अब तुम ही हो।
तो सफल व्यक्ति कौन है ?
सफल व्यक्ति वही है जो अपने जीवन में उत्तराधिकारी चुन ले। उन्हें श्रम पूर्वक तैयार कर ले।
तो दशरथ ने सोचा राम ने मुझे जीत लिया। राम नरोत्तम है पुरुषोत्तम है। नरवीर नृसिंह हैं जितना ही में राम को ढूंढता हूँ राम उतने ही और बड़े होते जाते हैं ये अंबर उनके सामने छोटा हो गया है।
(ज़ारी) ..
सन्दर्भ -सामिग्री :
(१ )
राम कृपा बिन सुलभ न सोई।
मनुष्य जीवन में पूर्णता का आकांक्षी है। वह जीवन में इस प्रकार की पात्रता अर्जित करना चाहता है के उसके आसपास कोई अभाव न रहे। इसीलिए वह संपत्ति धन वैभव संचय करता है।वह लोकमान्य होना चाहता है शिखरस्थ होना चाहता है। उसके पास जो दारिद्रय है उससे मुक्त सुखमय आनंदमय जीवन जीना चाहता है। इसलिये वह उन ज्ञान गलियों को ढूंढता है जहां से उसे भ्रम मुक्ति का ,दुःख के निराकरण का और चित्त के स्थाई समाधान का मार्ग मिले।
हमारे शास्त्र कहते हैं जिस गलियारे से जीवन को पूर्णता ,मन को तुष्टि पुष्टि सिद्धि और समाधान मिलेगा वह गलियारा बिना इन्द्रियों के संयम के नहीं मिलता।
जितेन्द्रियता -
इन्द्रिय संयम -
जित : संग दोष :
कितना बोलना है सोच कैसी बनानी है ?इस पर काम कीजिये। जिसमें परमार्थ है प्रीती है बस वही विजेता है। इसके लिए इन्द्रीय संयम ज़रूरी है। मन को जीते बिना आप कुछ पा नहीं सकते।
मन : मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयोः
मन ही बंधन का कारण है मन ही मोक्ष का कारण है। जब आप मनोजयी हैं तब यह मन मोक्ष का कारण है -मनुस्मृति और भगवद्गीता दोनों ही ऐसा कहतीं हैं।
जो अनुकूलताओं का संचय करने में जुटा है उसी का नाम मन है -रामायण ऐसा कहती है। सब अनुकूल बने शासक ,प्रशासक ,संतति ,देव सत्ता सब मेरे अनुकूल रहें।हर मनुष्य यही तो चाहता है।
प्रतिकूलताओं का प्रतिकार करना चाहता है मन।
मन अन्य में पूरी प्रकृति में रूपांतरण का आकांक्षी है। मन अनुकूलताओं का संचय करता है।
परिवर्तन स्वयं में हो -साधना का एक प्रबल पक्ष यही है। लेकिन हम परिवर्तन के आकांक्षी है अन्य में। यही हमारे सारे दुखों का कारण है।
क्या हम स्वयं में परिवर्तन कर सकते हैं ?
"मेरी मान्यताएं मूढ़ तो नहीं है मेरे चित्त में चांचल्य का अतिरेक तो नहीं है। मेरे आग्रह अति प्रचंड तो नहीं हैं। मेरी जीवन शैली से बहुत से लोग व्यथित तो नहीं होते उनके स्वाभिमान को चोट तो नहीं पहुँचती। मेरी प्रतिक्रिआएं बहुत भीषण तो नहीं होती। "-क्या कभी इस बात पर हम ध्यान देंगें ?
हमारी प्रतिक्रियाएं बहुत भीषण न हों। विभीषण की तरह रस -सिद्ध हों ,शांत हों।पूरी लंका में उनके अलावा सबमें सबकी प्रतिक्रियाओं में भीषणता है।हनुमान ने राम को यही तो कहा -जिस लंका से मैं लौट के आ रहा हूँ वहां एक ही व्यक्ति ऐसा मिला जिसकी प्रतिक्रिया भीषण न थी।वह था -विभीषण -ऐसा व्यक्ति जो बहुत आदरणीय है जिस पर विश्वास किया जा सकता है।
ध्यान दें के हम आवेशित न हों ,भीषण न हों ,उत्तेजित न हों। हम थोड़ा संयम में रहें। हम अपने चरित्र पर चित्त पर थोड़ा ध्यान दें। हमें ध्यान रहे हम श्रेष्ठ जनों के बीच में हैं। हम उद्धृत न हों। स्वामित्व की प्रवृत्ति हम में उतनी न रहे।बालकों के लिए हम स्वीकार्य हों उनका तिरस्कार न करें। दूसरों के स्वाभिमान के प्रति ,संवेदनाओं के प्रति हम स्वयं सजग रहें।एकीकृत रहें।
वेद ऐसा कहता है -
बस इतना ही हम न देखें के हम संगठित हैं समन्वित हैं एक साथ कदम मिलाकर एक ही फ़ाइल में हम सबके साथ चल रहे हैं।
लेकिन क्या उनकी विचारधारा के लिए भी हम में समर्थन है ?संगठन का एक बड़ा सूत्र है दूसरों की भावनाएं आहत न हों।अहिंसा यही है।
यह युग ऐसा है इसमें वैर है असुरक्षा है आतंक है अनीति है दुराचार है। इसलिए क्योंकि हम दूसरे का मन नहीं जान पा रहे हैं।
उसके हिस्से में भी स्वाभिमान आता है सम्मान आता है। उसके अधिकारों के प्रति भी सचेत बनिए ,उसकी विकलता अभावों को महसूस कीजिये। अगर वह अभावग्रत है तो उसे अन्न ,अर्थ और औषधि पहुंचाओ।
सच्ची उपासना यही है वेद यही कहता है
देवताओं जैसी नीयत बनाओं। बूढ़ों के स्वाभिमान का ,सम्मान का आपको आदर करना है उन तक यह सन्देश पहुंचे -अभी तक उनकी सीख के प्रति आपमें शिष्यत्व है उन्हें उपहार नहीं समय चाहिए।
आध्यात्मिक व्यक्ति वह है जिसका उधर ध्यान गया है . स्वयं भू बनना चाहते हो ,उसका एक ही साधन है -पुण्य।
यही पाथेय है जो परलोक में भी काम आएगा।पुण्य ही पाथेय है परलोक के लिए वही आपको देवलोक में ले जाएगा।
पुण्य क्या है ?
परोपकार: पुण्याय :,
पापाय :परपीड़नं।
वृक्ष की तरह जीयो -वही तो बादलों को पर्जन्यों को बुलाता है। बादलों को चाहिए वृक्ष उनकी आद्रता।वृक्ष की लकड़ियां उदर की प्यास भूख मिटाने के लिए ईंधन बन जाती हैं। ऐसा बनो।
हवन की भस्म ,विभूति बनो ,जो राख से भी ज्यादा आदरणीय हैं। वह लकड़ी जो समिधा है वह बनो , चूल्हे की लकड़ी नहीं यज्ञ की समिधा बनके जलना।भस्म बनना जो शिव के मस्तक पर भी चढ़ेगी।वह भस्म जो शिवाभिषेक के काम आ रही है नागाओं के तन पर मस्तक पर जो शोभा है विभूति की वह समिधा की ही विभूति है।
फर्क सिर्फ इतना है लकड़ी किस निमित्त जली है।
क्या आदमी की कोई चीज़ काम नहीं आती ?
साधना का कोई पहला चरण है तो उसका नाम है आत्मनिरीक्षण।कथा खुद को जानने का एक हेतु है वह आपको आत्मनिरीक्षण के लिए तैयार करती है। आत्मसुधार के लिए आप में बाध्यता पैदा करती हैं ,आत्म -सुधार के लिए व्याकुलता पैदा करती है। और दशरथ एक दिन ऐसा करते हैं। दशरथ ने अपने पुण्यों के फल का प्रताप देखा है निशाचरों के आतंक से जिस स्वर्ग में भी हाहाकार मच जाता है अपने पुण्यों की प्रचंडता के प्रताप से वह स्वर्ग में छलांग लगाके देवताओं की सहायता के लिए पहुचं जाते हैं लेकिन जो मर्यादा जो बात राम में है वह मुझमे नहीं है।ऐसा शील सौंदर्य माधुर्यता ,विद्या की सम्पन्नता ,वातसल्य मुझमें नहीं है। मैं एक अच्छा नगर सेवक तो हूँ अच्छा प्रशासक तो रहा लेकिन वह भगवद्ता ,वैसा पावित्र्य ,उस तरह की उच्चता मुझमें नहीं है जो राम में है।
इसलिए मुझे ठीक समय पर इस सत्ता को राम के हाथों में सौंप देना चाहिए। मनुष्य प्रत्येक से जीतना चाहता है लेकिन एक पिता अपने पुत्र की योग्यता से और एक माँ अपनी बेटी के शील और सौंदर्य से नैतिकता से हारना चाहतीहै।
सच्चा गुरु भी वही है जो अपने शिष्य से हारना चाहता है ज्ञान में वैराग्य में इन्द्रियों के संयम में ,अलोभता में ,अकामता में और निरंतर उस दिन की प्रतीक्षा करता है।स्वर्ग के भी आकर्षण मेरे शिष्य को तनिक भी न छूएं। और जिस दिन गुरु को अपने शिष्य में यह दीखता है के स्वर्ग की भी कोई सत्ता इसमें लोभता पैदा नहीं कर रही है ,यह आप्तकाम पूर्णकाम हो चुका है अलोभता को प्राप्त हो चुका है उस दिन वह अपने आसन से खड़ा हो जाता है शिष्य को उस पर बिठाता है और कहता है आज से गुरु अब तुम ही हो।
तो सफल व्यक्ति कौन है ?
सफल व्यक्ति वही है जो अपने जीवन में उत्तराधिकारी चुन ले। उन्हें श्रम पूर्वक तैयार कर ले।
तो दशरथ ने सोचा राम ने मुझे जीत लिया। राम नरोत्तम है पुरुषोत्तम है। नरवीर नृसिंह हैं जितना ही में राम को ढूंढता हूँ राम उतने ही और बड़े होते जाते हैं ये अंबर उनके सामने छोटा हो गया है।
(ज़ारी) ..
सन्दर्भ -सामिग्री :
(१ )
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