भारत ही नहीं पूरे विश्व में आज यही मनुवादी व्यवस्था पल्लवित हुई है। जो ब्रह्मज्ञानी हैं जिन्होनें वेदों को जान लिया है जो ज्ञान के प्रणेता है संरक्षक है व्याख्याता है वह अध्यापन करें।वही ब्रामण हैं।
जो शासन प्रबंध देश के प्रतिरक्षण में पारंगत हैं वह क्षत्रीवर्ग हैं , देश की हिफाज़त करें ,
जो किसानी और अन्य व्यवसायों में अग्रणी हैं ,वे वाणिज्य व्यापार पे तारी रहें। वही वैश्य हैं।
जो सेवा भाव से संसिक्त हैं वे सर्विस सेकटर में आएं।वही शूद्र हैं।
जन्म से हम सभी शूद्र हैं भगवान् के पैरों से प्रकटित पृथ्वी पुत्र हैं। इस मनुवादी गुणप्रधान व्यवस्था में ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर आवाजाही की छूट है यह दायरा आरक्षण का नहीं मेधा का है रुझान का है। प्रवृत्ति का है। इस व्यवस्था में जन्म से ब्राह्मण द्रोहणाचार्य क्षत्रिय हो जाते हैं। विश्वामित्र कभी क्षत्रिय तो कभी ब्राह्मण हो जाते हैं। वाल्मीकि और वेदव्यास दोनों शूद्र हैं। वेदव्यास को कृष्ण का शब्दावतार ब्रह्मा जी का मानसपुत्र भी कहा जाता है। वाल्मीकि मशहूर डाकू रत्नाकर था। यह गुणों को समादृत करने वाली व्यवस्था है। वोटवादी देशतोड़क व्यवस्था का नाम मनु की वर्ण-व्यवस्था नहीं है।
कल रात एक मेकिसकन ग्रिल में भोजन कर रहे थे डिनर कर रहे थे -मैं देख रहा था कैसे ये युवा नर -नारियां सजी हुई कन्याएं अपने कर्तव्य कर्म के प्रति न सिर्फ समर्पित हैं दौड़ दौड़ के ऑर्डर ले रहीं हैं भोजन परोस रहीं हैं कहीं कोई चेहरे पे थकान नहीं हताशा या समाज के हाशिये पे होने का भान नहीं। हो भी क्यों -ये अमरीका है यहां हरेक व्यक्ति स्वाभिमान से संसिक्त है भरा हुआ है उसे मनुवादी व्यवस्था क़ुबूल है।
आज प्रात : घर की सफाई के लिए एक तीन लोगों की टोली -घर की सफाई के लिए आई। कार से उतरी ,रसायनों की खेप के संग। कुछ और सफाई के संशाधन उनके पास थे। दो घंटों में उन्होंने घर को चमका दिया -चकाचक ,हर जगह उनका अक्स दिखाई देता था चाहे वह रेस्ट रूम्स हों या लौंडरी रूम या फिर पेंट्री रूम हो -२०० डॉलर मेहनताना और क्रिसमस गिफ्ट के तोहफे पाकर उनेक चेहरे पे परमानंद का भाव देखा। परमान्द को साक्षात देखा।
ऐसी माया है इस मनुवादी वर्णव्यवस्था की।इसे सब क़ुबूल है समाज के बराबर के अंग हैं चारों। समाज के सभी अंगों का सामंजस्य ज़रूरी है।तभी समाज सुचारु रूप चलेगा।
इसे कोई मायावती या माया कुमार समझा नहीं पायेगा ,समझ नहीं पायेगा। उनका एक ही लक्ष्य है अपनी सल्तन कायम रखना । बहुत पानी बह गया है इस दरमियान सरयू में। जुम्मा वहीँ का वहीँ हैं।
एक प्रतिक्रिया मित्रवर रणवीर सिंह जी की फेसबुक पोस्ट पर :
उसी देश में मनु को गली-गलौच दिया जा रहा है. अगर मनु को कट्टर हिन्दू मान लिया जाए तो क्या दलितों को उन्हें बुरा-भला कहने का हक़ है? बदले की कारवाई में सवर्ण हिन्दू क्या बाल्मीकि या रविदास को गालियाँ निकालते हैं या अम्बेडकर की बे-इज्ज़ती करते पाए गए हैं? हिन्दू कोड के जनक मनु को 'कुचलना' क्या इतना आसान है.? मनु स्मृति को फाडने या जलाने से क्या दलितों को स्वर्ग में स्थान मिल रहा है या उनकी इज्ज़त बढ़ रही है? मेरे हिसाब से इस कारवाई -प्रति कार्रवाई में आपसी वैमनस्य ही बढ़ा है. विधर्मी वैसे ही इस फिराक में हैं कि हिन्दुओं का कैसे सर्वनाश हो. क्या दलित हिन्दू नहीं हैं और उसी सामाजिक व्यवस्था के अंग नहीं जिसकी उत्पत्ति हिन्दुस्तान में हुयी. क्या दलितों को यूरोप या चीन से इम्पोर्ट किया गया था? क्या दलित लोग चीन, अफगानिस्तान या अफ्रीका की धरती में उपजा अनाज खाते हैं? पानी और हवा स्वीडन से इम्पोर्ट करते हैं. मैंने दलितों का ऐसा घटिया और घृणित व्यवहार पहले नहीं देखा. बूढों से सुनते ही नहीं देखते भी थे कि आपसी इज्ज़त होती थी. मदद होती थी. आज कोई वैसी इज्ज़त या मदद करवा कर देखे............. ? लाख चाहने पर भी किसी दलित को किसी सवर्ण से नहीं मिलेगी. एक्सेप्शन हर जगह होती हैं. वैसे भी रिजर्वेशन के चक्कर में आज पूरा समाज ही दलित बनने पर उतारू है. जो नहीं हैं, वे उपेक्षा के चलते खुद ही दलित हुए जा रहे हैं. दलित से मेरा आशय यहाँ उन जातियों से न लगायें जिन्हें संविधान ने आरक्षण दिया है, बल्कि 'दरिद्र' से लगाएं. आज सवर्णों को छोड़ कर सभी लोग दलित शब्द में उज्जवल भविष्य देख रहे हैं. लेकिन वे गंभीर भूल करते हैं. आरक्षण हो या न हो जातियां और जातिगत पहचान तो शाश्वत है और रहेगी. तो भाईयो दलित-फलित का चक्कर छोड़कर भाई चारे को प्रोमोट करें. काम को प्रोमोट करें और ईमानदारी और श्रम को प्रोमोट करें. पूरा दलित और ओ.बी.सी समाज ब्राह्मणों का दुश्मन हो गया है. उन्होंनें राजपूत और जाटों को भी नहीं बक्शा. तो वे उन्हें कैसे बक्श दें. कानूनन कुछ नहीं करते, लेकिन भीतर ही भीतर आरक्षण ने जो आग सुलगाई है वह ज्वालमुखी के रूप में कहीं तो, कभी तो प्रकट होगी ही. जाति को लेकर आरक्षण मुकम्मल हो या समानुपातिक आधार पर: धर्म और जाति के आधार पर आरक्षण से कोई देश और समाज कभी ऊंचा नहीं उठ सकता. इस दर्द की दवा कब मिलेगी, कैसे मिलेगी इस पर कोई अनुसंधान क्यों नहीं करता? गरीब और जरूरतमंद हर वर्ग और हरेक कौम में हैं. जरूरी है इन्हें सहारा मिले, न की कौम और जाति के नाम पर सार्वजनिक संसाधनों का अविवेकपूर्ण आबंटन हो.
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