जैसा पानी वैसी वाणी जैसा अन्न वैसा मन -अन्न और जल से ही हमारी प्रकृति का निर्माण होता है। जब कभी जल पीयो ,गंगा को याद कर लेना ,अन्न ग्रहण करो तो नारायण का स्मरण कर लेना।
राम कहते हैं -लक्ष्मण हम एक ऐसे नगर में जा रहे हैं जहां ऐसे लोग रहते हैं जो देह में नहीं रहते।हवन कुंड की लकड़ी खत्म हो जाए तो अपना पैर हवन कुंड में डाल देते हैं। ये देह तो एक आवरण है उपाधि है जैसे आप वस्त्र लपेट लेते हैं वैसे ही है।
आपकी आत्मा में वैसे ही आपका मन लिपटा हुआ है ,बुद्धि लिपटी हुई है।हमारे तीन शरीर हैं :
ये देह भी एक आवरण है। आत्मा के ऊपर यह बुद्धि भी एक आवरण है।मन भी। अपने अनेक प्रयोजनों की पूर्ती में जो संलग्न है उसका नाम ग्यानी है। उसमें समय का ,ऊर्जा का,उत्साह का , आशावादिता का प्रबंधन है।विजय का संकल्प है। समयबद्ध नियोजन है उसके पास।
जो बहुत स्वाभाविक हो गया था वह था जनक। जब सीता धनुष उठाकर एक तरफ रख रहीं थीं मांढ़ना बनाने के लिए अल्पना ,रंगोली बनाने के लिए रख रहीं थीं जब यह दृश्य जनक ने देखा ,सीता की माँ ने देखा तो वह सुख से भर गए। मेरी पुत्री पराम्बा है ये धनुष तो किसी से हिलता भी नहीं है।यह सीता नहीं पराम्बा है इसके लिए तो वर के रूप में एक राम ही चाहिए। और जनक ने तभी यह संकल्प ले लिया -जो इस शिव धनु को भंग करेगा वही मेरी पुत्री का वरण करेगा उसे जयमाल पहनायेगा।
जब खाया भंग का गोला ,
गोपी बन गए बम -भोला।
शिव रास में हिस्सा तभी ले पाते हैं तभी रास देख पाते हैं जब अपने अंदर स्त्री भाव पैदा कर लेते हैं। पुरुष बनकर वह रास नहीं देख सकते। इस देह को पात्र बनाओ। पुजारी जो देवी का श्रृंगार करता है पहले अपने अंदर स्त्रीभाव पैदा करता है ऐसे ही माँ के कपोल नहीं छू सकता ,बिंदिया नहीं लगा सकता आलता नहीं लगा सकता पैरों में ,करधनी नहीं पहना सकता कटिबंध में। वह पत्थर का श्रृंगार नहीं कर रहा है माँ का कर रहा है। स्त्रैण भाव उसे पैदा करना पड़ता है पुरुष (पुजारी )बन के वह माँ का श्रृंगार नहीं कर सकता। पहले उसे अपनी देह को पात्र बनाना पड़ता है।
इस देह को भी तर्जनी को भी पात्र बनाना पड़ता है।
तर्जनी से अपार ऊर्जा का स्खलन होता है इसे कभी मत उठाओ। तर्जनी से सिर्फ पितरों की पूजा की जाती है उन्हें ही तिलक लगाया जाता है।
शत्रु को अगर जीत लिया है तो उसे तिलक बीच की ऊँगली से लगाया जाएगा। माँ बेटे को ,पत्नी पति को तिलक , बहन भाई को अनामिका से ही तिलक लगाएगी। नीचे से ऊपर की ओर उसे ले जाएगी। जो ऊर्ध्वगमन का प्रतीक है।
तो जनक पात्र बन गए। उन्हें पता चल गया जब मेरे घर में सीता आ गई तो मैं पात्र बन गया। ब्रह्म आएगा अब मेरे घर ,मेरे पास ,नारायण आएगा मेरे पास। जब यह देखा मेरी बेटी धनुष उठाकर चल रही है तभी उन्होंने संकल्प ले लिया शिव के समक्ष जल लेकर अंजुरी में प्रतिज्ञा की जो इस धनुष को उठा लेगा उसी के गले में मेरी पुत्री जयमाल डालेगी।
तो जब संसार भर के शासकों राजाओं को बुलाया स्वयंवर के लिए -तो जनक स्वयं नहीं गए -सचिव को मात्यों को भेज रहें हैं उन सबकी अगवानी के लिए।
जब राम आएगा तो मैं जाऊंगा। राम आएगा ,क्योंकि मेरे यहां सीता है।जो समय के पार देख लेता है वही तो जनक है। विदेह है जो शरीरातीत ,भावातीत ,समयातीत है वही तो जनक है।
अस्वाद ,अक्रोध ,अवैर ,अनिन्दा ,इष्टानुगत ,इष्टानुगति । ये पांच चीज़ें ज़रूरी हैं किसी भी व्रत के लिए।ये चीज़ें नहीं हुईं तो व्रत खंडित हो जाएगा।
सोमवार का व्रत शिव के ध्यान में ,एकादशी का -नारायण ,बुद्धवार ,मंगलवार गणपति के ध्यान में ,और हनुमानजी का व्रत कर रहे हो तो हनुमान के ध्यान में।
जिसे व्रत करने नहीं आते जिसने इन्द्रियों को नहीं साधा है वह व्रत नहीं ले सकता।
एक बार भीषण अकाल पड़ा जनकपुर में -
राजा जनक ने प्रतिज्ञा की मैं शिवाभिषेक करूंगा -"शिवाभिषेक करने से परिजन्य आयेंगे-बारिश होगी" ,गुरु ने कहा पहले ये व्रत ले -राजा ने जल हाथ में लेकर शपथ खाई जिस विधि से गुरु जलाभिषेक कराएंगे वैसे ही मैं करूंगा।
व्रत क्या था ?रुद्राभिषेक की विधि क्या थी ?कितनी दुस्साध्य थी जनक ने नहीं पूछा बस कह दिया मैं करूंगा -
जब गुरु ने बताया :
राज कूप में कच्चा घड़ा डाला जाए -रुइ हाथ में लेकर कोई नारी एक कच्चा धागा रुई में से निकाले उससे घड़े का मुंह बांधा जाए उसे कुँए में डाला जाए जल निकाला जाए उस कच्चे घड़े से। उस जल से ही रुद्राभिषेक होगा।
जनक ने कहा यह मुझसे नहीं होगा कौन करेगा यह ?गुरु ने कहा तेरी पत्नी करेगी वह पतिव्रता है। पत्नी ने कहा मैं कर तो सकतीं हूँ लेकिन हो सकता है कच्चा घड़ा पानी में जाकर बिखर जाए। फूट जाए मुझमें इतना आत्मविश्वास नहीं है। लेकिन हाँ एक स्त्री है जो ऐसा कर सकती है। उसने राम को पैदा किया है। कौशल्या माता ऐसा कर सकतीं हैं।
जनक की पत्नी ने कहा मैंने तो सीता को अपनी कोख से पैदा नहीं किया वह तो हमें धरती से मिली है लेकिन हाँ मुझे इतना विश्वास है के माता कौशल्या ने राम को अपनी कोख से पैदा किया है वह ऐसा कर सकतीं हैं।वह परमात्मा से संवाद कर सकतीं हैं।
दसरथ को चिठ्ठी लिखी गई। गुप्त रूप से भेजी गई।सहायता मांगी गई रुद्राभिषेक संपन्न करवाने के लिए ताकि जनकपुरी से अकाल के बादल छट जाएँ।
राजा दशरथ पत्र देखकर मुस्कुराये।कैकई पूछती हैं इस प्रकार क्यों मुस्कुरा रहे हो स्वामी आज आप ?राजा मन ही मन में सोच रहे थे -अब पता चलेगा कैकई को कौशल्या कितनी गुनी हैं। बोले राजा कौशल्या के लिए पत्र है तुम्हारे लिए नहीं हैं बोली कैकई मुझे भी दिखाओ ऐसा क्या है इस खत में और फिर चिठ्ठी पढ़के बोलीं मैं करूंगी यह काम तभी वहां सुमित्रा भी अकस्मात आ पहुंचीं कहने लगी सब काम तुम ही करोगी। हमें भी तो सेवा का मौक़ा मिले -यह काम तो मैं करूंगी। मैं जाऊंगी जनक की नगरी ,मैं रुई से कच्चा धागा निकाल के घड़े के मुख से बांधूंगी ...अभी उनकी बात पूरी भी नहीं हुई थी एक दासी भी इस दरमियान वहां पहुँच गई थी वह बोली ये काम रानियों के करने का नहीं है कुँए से पानी निकालने का काम दास दासियों का होता है। मैं कर लूंगी यह काम।
कौशल्या के वस्त्र मांगे दासी ने उसी पालकी में उसे जनकपुर भेजा गया पूरे अमले के साथ। और भी पालकियां यथावत साथ गईं। दासी ने ये काम कर दिया। लेकिन जब वह यह काम कर ने लगी थी जानते हो वह मन ही मन क्या कह रहीं थीं कौशल्या नम : कौशल्या नम: -मैं ये काम कौशल्या के निमित्त कर रहीं हूँ वह ही इसकी करता हैं मैं तो निमित्त मात्र हूँ।वह मन ही मन कौशल्या जी की स्तुति कर रहीं थीं कहीं मेरे में करता पैन का अभिमान न आ जाए।
जनकपुर का अकाल दूर हुआ सुखद वर्षा हुई। जनक की पत्नी पालकी की ओर उस दासी के चरण स्पर्श के लिए आगे बढ़ीं तभी दासी पालकी से बाहर आ गईं -अभी तक जनकपुर वासी यही सोच रहे थे ये करतब कौशल्या जी ने किया है। जब सब को असलियत पता चली -राजा जनक ने मन ही मन सोच लिया -विवाह का न्योता ,स्वयंवर की चिठ्ठी अयोध्या नहीं भेजेंगे वहां का तो कोई किंकर ,दास ही आकर धनुष तोड़ देगा और सीता जी को वही ब्याह के ले जायेगा। ऐसे प्रवीण थे तमाम अयोध्या वासी।
एक बात और स्वयंवर के लिए राजा जनक ने केवल राजाओं को बुलाया था ,राजकुमारों को नहीं। दूसरी बात दशरथ तो आएंगे नहीं धनुष उठाने क्योंकि उनकी मान्यता नहीं है। लेकिन अगर मेरे पास सीता है तो विवश होकर राम को आना ही पड़ेगा।
समाचार मिथिलापति पाए ,
विश्वामित्र महामुनि आये।
उच्च पदस्थ सचिवालय ,सकल मंत्रिमंडल ,कवि , अमात्य ,मंगलाचरण और स्वस्तिवाचन में निपुण लोगों को ,चारण भाटों को साथ लेकर जनक जी नंगे पैर ही चल पड़े गुरु विश्वामित्र की आवभगत स्वागत को। तमाम राजा सोचने लगे ऐसा कौन आया है जिसकी अगवानी को स्वयं राजा जनक जा रहे हैं और वह भी नंगे ही पैर।
गुप्तचरों ने कहा विश्वामित्र आएं हैं। राजा के गुरु ,धर्मसत्ता ,ज्ञान सत्ता आई है ,मुझसे मिलने उनकी उदारता तो देखो जनक मन ही मन सोचते हैं मैं तो उन्हें निमंत्रण देना ही भूल गया। विदूषक भी ले चले राजा साथ में कवि ,पंड़ित ग्यानी सभी को लेकर -गुरु के चरणों में सर रख दिया। गुरु एक पवित्रता का नाम है अलोभ सत्ता का ,अकाम सत्ता का नाम है जो निर्विषय है वही गुरु है। संसार में कोई ऐसा आकर्षण नहीं जो उसे अटका सके। गुरु में अगर आपकी श्रृद्धा है तो गुरु बिना निमंत्रण के भी चला आएगा।
जैसे ही चरणों में सर रखा -प्रणाम करके जनक उठे -राम पर नज़र पड़ी।
उनके मुख मंडल पर जनक अटक गए।
मूरत मधुर मनोहर देखी
रोटी रूखी तो न खाओ ,थोड़ा घी तो लेते जाओ -विठ्ठला -विठ्ठला कहते हुए भागे थे नामदेव स्वान के पीछे कहते हुए क्या स्वान की शक्ल बनाई हुई है विठ्ठला -रोटी रूखी ही खाओगे -थोड़ा घी तो लेते जाओ। ऐसा ही होता है भावातिरेक ,भावानुराग में ।
राम को देखकर ब्रह्म ग्यानी निर्गुण के उपासक जनक विमोहित थे मंत्रमुग्ध थे। गुरु से दृष्टि हटी राम पर अटकी तो अटकी ही रही।टकटकी लगाए देखते रहे राम को जनक। विदेह जनक देह में अटक गए सगुण ब्रह्म राम को देखते ही रह गए।
स्वामी एकनाथ गंगोत्री से कठिनाई से लाया हुआ जल लेकर रामेश्वरम जा रहे थे सूखे कंठ से कराहते गर्दभ को देखा और सारा जल उसे ही पिला दिया।भगवान् ने ही उनकी परीक्षा ली थी ,क्या मैं सचमुच ही इसे सब जगह दिखता हूँ यह मुझ पर जल चढ़ाएगा या प्यास से छटपटाते गर्दभ को पानी पिलायेगा। भगवान् रामेश्वरम की सीढ़ियों में मरता हुआ गधा बनकर लेट गए। मेरा रामेश्वरम मुझे इस गधे में दिखाई देता है और यह कहते हुए पूरी गंगाजली उसके मुंह में उड़ेल दी एकनाथ ने। भगवान् स्वयं प्रकट हो गए -विठ्ठला विठ्ठला कहने वाले नामदेव के सामने भी।
शिवलिंग में शालिग्राम में कहाँ शक्ल है ?लेकिन पुजारी जानता है शिव का भाल कहा हैं।
धीरे से पूरी शक्ल ही दिखने लगेगी आपको -ओष्ठ भी आ गए ,नासिका भी ,कपोल भी। और फिर महाकालेश्वर की आरती में बमभोला ही पूरा प्रकट हो गया। पात्र (पुजारी )बनकर तो देखो जनक सा।
गुरु चरणों का फल परमात्मा की प्राप्ति है -यही सन्देश है जनक और विश्वामित्र प्रकरण का यहां पर।
(ज़ारी )
संदर्भ -सामिग्री :
(१ )
राम कहते हैं -लक्ष्मण हम एक ऐसे नगर में जा रहे हैं जहां ऐसे लोग रहते हैं जो देह में नहीं रहते।हवन कुंड की लकड़ी खत्म हो जाए तो अपना पैर हवन कुंड में डाल देते हैं। ये देह तो एक आवरण है उपाधि है जैसे आप वस्त्र लपेट लेते हैं वैसे ही है।
आपकी आत्मा में वैसे ही आपका मन लिपटा हुआ है ,बुद्धि लिपटी हुई है।हमारे तीन शरीर हैं :
ये देह भी एक आवरण है। आत्मा के ऊपर यह बुद्धि भी एक आवरण है।मन भी। अपने अनेक प्रयोजनों की पूर्ती में जो संलग्न है उसका नाम ग्यानी है। उसमें समय का ,ऊर्जा का,उत्साह का , आशावादिता का प्रबंधन है।विजय का संकल्प है। समयबद्ध नियोजन है उसके पास।
जो बहुत स्वाभाविक हो गया था वह था जनक। जब सीता धनुष उठाकर एक तरफ रख रहीं थीं मांढ़ना बनाने के लिए अल्पना ,रंगोली बनाने के लिए रख रहीं थीं जब यह दृश्य जनक ने देखा ,सीता की माँ ने देखा तो वह सुख से भर गए। मेरी पुत्री पराम्बा है ये धनुष तो किसी से हिलता भी नहीं है।यह सीता नहीं पराम्बा है इसके लिए तो वर के रूप में एक राम ही चाहिए। और जनक ने तभी यह संकल्प ले लिया -जो इस शिव धनु को भंग करेगा वही मेरी पुत्री का वरण करेगा उसे जयमाल पहनायेगा।
जब खाया भंग का गोला ,
गोपी बन गए बम -भोला।
शिव रास में हिस्सा तभी ले पाते हैं तभी रास देख पाते हैं जब अपने अंदर स्त्री भाव पैदा कर लेते हैं। पुरुष बनकर वह रास नहीं देख सकते। इस देह को पात्र बनाओ। पुजारी जो देवी का श्रृंगार करता है पहले अपने अंदर स्त्रीभाव पैदा करता है ऐसे ही माँ के कपोल नहीं छू सकता ,बिंदिया नहीं लगा सकता आलता नहीं लगा सकता पैरों में ,करधनी नहीं पहना सकता कटिबंध में। वह पत्थर का श्रृंगार नहीं कर रहा है माँ का कर रहा है। स्त्रैण भाव उसे पैदा करना पड़ता है पुरुष (पुजारी )बन के वह माँ का श्रृंगार नहीं कर सकता। पहले उसे अपनी देह को पात्र बनाना पड़ता है।
इस देह को भी तर्जनी को भी पात्र बनाना पड़ता है।
तर्जनी से अपार ऊर्जा का स्खलन होता है इसे कभी मत उठाओ। तर्जनी से सिर्फ पितरों की पूजा की जाती है उन्हें ही तिलक लगाया जाता है।
शत्रु को अगर जीत लिया है तो उसे तिलक बीच की ऊँगली से लगाया जाएगा। माँ बेटे को ,पत्नी पति को तिलक , बहन भाई को अनामिका से ही तिलक लगाएगी। नीचे से ऊपर की ओर उसे ले जाएगी। जो ऊर्ध्वगमन का प्रतीक है।
तो जनक पात्र बन गए। उन्हें पता चल गया जब मेरे घर में सीता आ गई तो मैं पात्र बन गया। ब्रह्म आएगा अब मेरे घर ,मेरे पास ,नारायण आएगा मेरे पास। जब यह देखा मेरी बेटी धनुष उठाकर चल रही है तभी उन्होंने संकल्प ले लिया शिव के समक्ष जल लेकर अंजुरी में प्रतिज्ञा की जो इस धनुष को उठा लेगा उसी के गले में मेरी पुत्री जयमाल डालेगी।
तो जब संसार भर के शासकों राजाओं को बुलाया स्वयंवर के लिए -तो जनक स्वयं नहीं गए -सचिव को मात्यों को भेज रहें हैं उन सबकी अगवानी के लिए।
जब राम आएगा तो मैं जाऊंगा। राम आएगा ,क्योंकि मेरे यहां सीता है।जो समय के पार देख लेता है वही तो जनक है। विदेह है जो शरीरातीत ,भावातीत ,समयातीत है वही तो जनक है।
अस्वाद ,अक्रोध ,अवैर ,अनिन्दा ,इष्टानुगत ,इष्टानुगति । ये पांच चीज़ें ज़रूरी हैं किसी भी व्रत के लिए।ये चीज़ें नहीं हुईं तो व्रत खंडित हो जाएगा।
सोमवार का व्रत शिव के ध्यान में ,एकादशी का -नारायण ,बुद्धवार ,मंगलवार गणपति के ध्यान में ,और हनुमानजी का व्रत कर रहे हो तो हनुमान के ध्यान में।
जिसे व्रत करने नहीं आते जिसने इन्द्रियों को नहीं साधा है वह व्रत नहीं ले सकता।
एक बार भीषण अकाल पड़ा जनकपुर में -
राजा जनक ने प्रतिज्ञा की मैं शिवाभिषेक करूंगा -"शिवाभिषेक करने से परिजन्य आयेंगे-बारिश होगी" ,गुरु ने कहा पहले ये व्रत ले -राजा ने जल हाथ में लेकर शपथ खाई जिस विधि से गुरु जलाभिषेक कराएंगे वैसे ही मैं करूंगा।
व्रत क्या था ?रुद्राभिषेक की विधि क्या थी ?कितनी दुस्साध्य थी जनक ने नहीं पूछा बस कह दिया मैं करूंगा -
जब गुरु ने बताया :
राज कूप में कच्चा घड़ा डाला जाए -रुइ हाथ में लेकर कोई नारी एक कच्चा धागा रुई में से निकाले उससे घड़े का मुंह बांधा जाए उसे कुँए में डाला जाए जल निकाला जाए उस कच्चे घड़े से। उस जल से ही रुद्राभिषेक होगा।
जनक ने कहा यह मुझसे नहीं होगा कौन करेगा यह ?गुरु ने कहा तेरी पत्नी करेगी वह पतिव्रता है। पत्नी ने कहा मैं कर तो सकतीं हूँ लेकिन हो सकता है कच्चा घड़ा पानी में जाकर बिखर जाए। फूट जाए मुझमें इतना आत्मविश्वास नहीं है। लेकिन हाँ एक स्त्री है जो ऐसा कर सकती है। उसने राम को पैदा किया है। कौशल्या माता ऐसा कर सकतीं हैं।
जनक की पत्नी ने कहा मैंने तो सीता को अपनी कोख से पैदा नहीं किया वह तो हमें धरती से मिली है लेकिन हाँ मुझे इतना विश्वास है के माता कौशल्या ने राम को अपनी कोख से पैदा किया है वह ऐसा कर सकतीं हैं।वह परमात्मा से संवाद कर सकतीं हैं।
दसरथ को चिठ्ठी लिखी गई। गुप्त रूप से भेजी गई।सहायता मांगी गई रुद्राभिषेक संपन्न करवाने के लिए ताकि जनकपुरी से अकाल के बादल छट जाएँ।
राजा दशरथ पत्र देखकर मुस्कुराये।कैकई पूछती हैं इस प्रकार क्यों मुस्कुरा रहे हो स्वामी आज आप ?राजा मन ही मन में सोच रहे थे -अब पता चलेगा कैकई को कौशल्या कितनी गुनी हैं। बोले राजा कौशल्या के लिए पत्र है तुम्हारे लिए नहीं हैं बोली कैकई मुझे भी दिखाओ ऐसा क्या है इस खत में और फिर चिठ्ठी पढ़के बोलीं मैं करूंगी यह काम तभी वहां सुमित्रा भी अकस्मात आ पहुंचीं कहने लगी सब काम तुम ही करोगी। हमें भी तो सेवा का मौक़ा मिले -यह काम तो मैं करूंगी। मैं जाऊंगी जनक की नगरी ,मैं रुई से कच्चा धागा निकाल के घड़े के मुख से बांधूंगी ...अभी उनकी बात पूरी भी नहीं हुई थी एक दासी भी इस दरमियान वहां पहुँच गई थी वह बोली ये काम रानियों के करने का नहीं है कुँए से पानी निकालने का काम दास दासियों का होता है। मैं कर लूंगी यह काम।
कौशल्या के वस्त्र मांगे दासी ने उसी पालकी में उसे जनकपुर भेजा गया पूरे अमले के साथ। और भी पालकियां यथावत साथ गईं। दासी ने ये काम कर दिया। लेकिन जब वह यह काम कर ने लगी थी जानते हो वह मन ही मन क्या कह रहीं थीं कौशल्या नम : कौशल्या नम: -मैं ये काम कौशल्या के निमित्त कर रहीं हूँ वह ही इसकी करता हैं मैं तो निमित्त मात्र हूँ।वह मन ही मन कौशल्या जी की स्तुति कर रहीं थीं कहीं मेरे में करता पैन का अभिमान न आ जाए।
जनकपुर का अकाल दूर हुआ सुखद वर्षा हुई। जनक की पत्नी पालकी की ओर उस दासी के चरण स्पर्श के लिए आगे बढ़ीं तभी दासी पालकी से बाहर आ गईं -अभी तक जनकपुर वासी यही सोच रहे थे ये करतब कौशल्या जी ने किया है। जब सब को असलियत पता चली -राजा जनक ने मन ही मन सोच लिया -विवाह का न्योता ,स्वयंवर की चिठ्ठी अयोध्या नहीं भेजेंगे वहां का तो कोई किंकर ,दास ही आकर धनुष तोड़ देगा और सीता जी को वही ब्याह के ले जायेगा। ऐसे प्रवीण थे तमाम अयोध्या वासी।
एक बात और स्वयंवर के लिए राजा जनक ने केवल राजाओं को बुलाया था ,राजकुमारों को नहीं। दूसरी बात दशरथ तो आएंगे नहीं धनुष उठाने क्योंकि उनकी मान्यता नहीं है। लेकिन अगर मेरे पास सीता है तो विवश होकर राम को आना ही पड़ेगा।
समाचार मिथिलापति पाए ,
विश्वामित्र महामुनि आये।
उच्च पदस्थ सचिवालय ,सकल मंत्रिमंडल ,कवि , अमात्य ,मंगलाचरण और स्वस्तिवाचन में निपुण लोगों को ,चारण भाटों को साथ लेकर जनक जी नंगे पैर ही चल पड़े गुरु विश्वामित्र की आवभगत स्वागत को। तमाम राजा सोचने लगे ऐसा कौन आया है जिसकी अगवानी को स्वयं राजा जनक जा रहे हैं और वह भी नंगे ही पैर।
गुप्तचरों ने कहा विश्वामित्र आएं हैं। राजा के गुरु ,धर्मसत्ता ,ज्ञान सत्ता आई है ,मुझसे मिलने उनकी उदारता तो देखो जनक मन ही मन सोचते हैं मैं तो उन्हें निमंत्रण देना ही भूल गया। विदूषक भी ले चले राजा साथ में कवि ,पंड़ित ग्यानी सभी को लेकर -गुरु के चरणों में सर रख दिया। गुरु एक पवित्रता का नाम है अलोभ सत्ता का ,अकाम सत्ता का नाम है जो निर्विषय है वही गुरु है। संसार में कोई ऐसा आकर्षण नहीं जो उसे अटका सके। गुरु में अगर आपकी श्रृद्धा है तो गुरु बिना निमंत्रण के भी चला आएगा।
जैसे ही चरणों में सर रखा -प्रणाम करके जनक उठे -राम पर नज़र पड़ी।
उनके मुख मंडल पर जनक अटक गए।
मूरत मधुर मनोहर देखी
रोटी रूखी तो न खाओ ,थोड़ा घी तो लेते जाओ -विठ्ठला -विठ्ठला कहते हुए भागे थे नामदेव स्वान के पीछे कहते हुए क्या स्वान की शक्ल बनाई हुई है विठ्ठला -रोटी रूखी ही खाओगे -थोड़ा घी तो लेते जाओ। ऐसा ही होता है भावातिरेक ,भावानुराग में ।
राम को देखकर ब्रह्म ग्यानी निर्गुण के उपासक जनक विमोहित थे मंत्रमुग्ध थे। गुरु से दृष्टि हटी राम पर अटकी तो अटकी ही रही।टकटकी लगाए देखते रहे राम को जनक। विदेह जनक देह में अटक गए सगुण ब्रह्म राम को देखते ही रह गए।
स्वामी एकनाथ गंगोत्री से कठिनाई से लाया हुआ जल लेकर रामेश्वरम जा रहे थे सूखे कंठ से कराहते गर्दभ को देखा और सारा जल उसे ही पिला दिया।भगवान् ने ही उनकी परीक्षा ली थी ,क्या मैं सचमुच ही इसे सब जगह दिखता हूँ यह मुझ पर जल चढ़ाएगा या प्यास से छटपटाते गर्दभ को पानी पिलायेगा। भगवान् रामेश्वरम की सीढ़ियों में मरता हुआ गधा बनकर लेट गए। मेरा रामेश्वरम मुझे इस गधे में दिखाई देता है और यह कहते हुए पूरी गंगाजली उसके मुंह में उड़ेल दी एकनाथ ने। भगवान् स्वयं प्रकट हो गए -विठ्ठला विठ्ठला कहने वाले नामदेव के सामने भी।
शिवलिंग में शालिग्राम में कहाँ शक्ल है ?लेकिन पुजारी जानता है शिव का भाल कहा हैं।
धीरे से पूरी शक्ल ही दिखने लगेगी आपको -ओष्ठ भी आ गए ,नासिका भी ,कपोल भी। और फिर महाकालेश्वर की आरती में बमभोला ही पूरा प्रकट हो गया। पात्र (पुजारी )बनकर तो देखो जनक सा।
गुरु चरणों का फल परमात्मा की प्राप्ति है -यही सन्देश है जनक और विश्वामित्र प्रकरण का यहां पर।
(ज़ारी )
संदर्भ -सामिग्री :
(१ )
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें