बुधवार, 20 दिसंबर 2017

कलि -संतरणोपनिषद मंत्र संख्या ७ (सात )व्याख्या सहित

कलि -संतरणोपनिषद मंत्र संख्या ७ (सात )व्याख्या सहित 

इति षोडष्य कलावृतस्य जीवस्य आवरणम विनाशनम | 

तत : प्रकाशते पर ब्रह्म मेघा अपाये रवि रश्मि मंडली वेति | | 

शब्दार्थ :इति -इस प्रकार ; षोडष्य -१६ ; कलावृतस्य -१६ भागों (हिस्सों )वाला ;जीवस्य -जीवात्मा (आत्मा को जब शरीर मिल जाता है तब वह जीवात्मा कहलाता है इसी में अभिव्यक्त होता है वह ,उसका कपड़ा है यह तन );आवरणम -आवरण ,पर्दा ; विनाशनम -विनष्ट होना ;तत : -तब ; प्रकाशते -आलोकित होना ; परब्रह्म -वह ईश्वरों का मुखिया सगुण रूप भगवान् ;मेघा -मेघ ,बादल ; अपाये -हटा लेने  के बाद ,हटा लेने पर ;रवि -सूर्यदेव भगवान् ;रश्मि -किरणें ;मंडली -संग्रह ;वेति -जैसे। 

इस प्रकार यह सोलह भागों (कलाओं )वाला महामंत्र जीव आत्मा के आवरण का नाश कर देता है जो सोलह अवयवों  वाला है। इस आवरण के हटने के बाद ही  भगवानों के मुखिया सगुण रूप  भगवान् कृष्ण का प्राकट्य होता है।  जैसे मेघों के छटने के बाद सूर्य रश्मियाँ आलोक फैलाती हैं।

( वैसे ही तब यह जीवात्मा प्रकाशित होता है अपने निज स्वरूप को जान लेता है। )

जीवावरण के इन सोलह अवयवों का बखान श्रीमद्भागवद पुराण के ग्यारहवें खंड में आता है इसे उद्धव गीता भी  कहा  जाता है।इसमें कृष्ण और उद्धवजी के संवाद है। अध्याय ६ से लेकर २९ तक यही सम्वाद चलते  हैं । उद्धवजी को ज्ञान देते हैं कृष्ण वैकुण्ठ प्रयाण से पूर्व। 

ये सोलह अवयव इस प्रकार हैं -पांच ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख ,नाक ,कान ,रसना ,चमड़ी /त्वचा ;) ;पांच प्राण (प्राण ,अपान ,व्यान ,उदान ,समान ); पांच कर्मेन्द्रियाँ  (हाथ ,पैर ,जिभ्या ,जनेन्द्रिय ,गुदा );तथा हमारी भौतिक चेतना हमारा संदूषित मन ,बुद्धि , अहंकार जिसके भाग हैं ।

कृष्ण उद्धव जी को  इस मन्त्र का कलिमल शोधन प्रभाव समझाते हैं।  कैसे यह जीव के (माया )आवरण को नष्ट करता है। यही मन्त्र  उस  (मायावी भौतिक ) आवरण को नष्ट करने का उपाय है जो हमारे और कृष्ण के बीच में आ जाता है।आत्मा परमात्मा के मिलन में बाधक बनता है। इस भौतिक आवरण के हट जाने के बाद हमें एक दिव्य शरीर मिलता है जो भौतिक ऊर्जा का ,मटेरियल एनर्जी का नहीं ,कृष्ण की बहिरंगा शक्ति का नहीं ,अन्तरंगा दिव्य ऊर्जा  (divine energy )का बना हुआ होता है कृष्णमय ही होता है। 

जैसे  स्वर्ण और स्वर्ण आभूषण ,स्वर्ण का एक कण ,जैसे सागर और उसी की एक बूँद वैसे ही हम और कृष्ण हैं।ये हमारा मन ,बुद्धि ,चित्त ,अहंकार सब भौतिक ऊर्जा की निर्मिति हैं। दिव्यशरीर में ही दिव्यचेतना का वास होता है जब उसका भौतिक आवरण गिर जाता है उससे पूर्व वह चेतना भी भौतिक ही रहती है। 

अब इस दिव्यशरीर के मिलने पर हम  कृष्ण को  दास्य ,सखा ,प्रियतम ,पुत्र ,पति किसी भी भाव में प्राप्त कर सकते हैं।  




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