भाव -सार :परमात्मा की बड़ी कृपा है यहां भारत में हमें एक गुरु प्राप्त हुआ है ,भक्तों ने हमें एक ऐसा काव्य दिया जो हमारे जीवन के गूढ़ प्रश्न ,ऐसी चुनौतियां का हमें हल देता है जो हमें अशांत करती हैं और जिनमें हम धर्म और अध्यात्म के मार्ग पर चलते हुए भी उलझ जाते हैं। राम कथा हमें जीना सिखाती है।
राम जहां रहते हैं उस निवास स्थान को रामायण (वाल्मीकि )कहा गया।तुलसीदास ने जिस राम कथा को हमारे जीवन में सौंपा ,जिस रूप में रामचरितमानस में प्रस्तुत किया उससे राम हमारे रग -रग में बस गए।तुलसी की चौपाई हम लोगों की नस नस में बस गईं हैं अवधि भाषा के स्पर्श के साथ लिखा गया यह ग्रंथ वे लोग भी समझ लेते हैं जो पढ़ना लिखना नहीं जानते। मानस की एक -एक पंक्ति में तुलसी की भक्ति के माध्यम से भगवान् खुद प्रकट हुए हैं।
महत्वपूर्ण यह नहीं है संसार से आपको क्या मिला महत्वपूर्ण यह है आप संसार को क्या लौटा रहें हैं।तुलसी यही सिखाते हैं।
आत्मा राम दुबे के यहां तुलसीदास का जन्म हुआ जन्म के बाद इस बालक की माँ मर गई। इस बालक को अपशकुनी मनहूस जानकार छोड़ दिया गया। ज़माने ने तुलसी को विष दिया लेकिन तुलसी ने रामचरितमानस के रूप में अमृत लौटाया।
चित्रकूट के घाट पर भइ संतन की भीड़ ,
तुलसीदास चंदन घिसें तिलक देत रघुबीर।
प्रसंग है :तुलसी दास चित्रकूट में नदी के किनारे राम कथा सुना रहे हैं। भगवान् उनकी भक्ति से खुश होकर सोचते हैं आज इसे दर्शन करा ही दें। भगवान् साधारण भेष में आते हैं तुलसीदास पहचान नहीं पाते तब पेड़ पर बैठे हनुमान यह दोहा पढ़ते हैं ,और तुलसीदास अपने ईष्ट भगवान राम को पहचान जाते हैं संकेत मिलते ही ।
कहतें हैं इसी के बाद तुलसी ने रामायण लिखनी शुरू की ,जिसका एक- एक दृश्य हनुमान ने ऐसे दिखलाया जैसे तुलसी ने स्वयं भी अपनी आँखों देखा हो।
परमात्मा जीवन में संकेत रूप में ही समझ आता है गुरु देता है यह संकेत। ऐसा ही संकेत हनुमान जी ने तुलसी को इस दोहे के मार्फ़त किया।
कथा का सूत्र :तुलसी वंदना के साथ बालकाण्ड आरम्भ करते हैं भगवान् का जन्म होता है भगवान बड़े होते हैं विश्वामित्र भगवान् को ले जाते हैं। भगवान् का विवाह होता है और भगवान् अयोध्या लौट आते हैं कथा बस इतनी ही है। लेकिन इसका व्यापकत्व समेटा नहीं जा सकता। इसलिए चर्चा कथा के सूत्र की ही की जाती है।
बालकाण्ड का सूत्र है सहजता। बालपन की सहजता।
तुलसी मात्र महाकवि नहीं हैं ,संत हैं ,जो लिखा है तुलसी ने वह भीतर से बाहर आया है मात्र शब्द नहीं है उस ग़ज़ल के जिसे लिखने वाला दारु पीते हुए लिख रहा है।इसमें एक भक्त का बिछोड़ा है।
तुलसी बाल- काण्ड के आरम्भ दुष्टों की, दुश्मनों की भी वंदना करते हैं ,ताकि कोई विघ्न न आये कथा कहने बांचने लिखने में।
तुलसी से पहले वैष्णव -विष्णु और राम के भक्त कहलाते थे , कृष्ण भक्त भी खुद को वैष्णव मानते थे ,शिव भक्त शैव और माँ दुर्गा शक्तिस्वरूपा पारबती के भक्त शाक्त कहाते थे।
तीनों परस्पर एक दूसरे को फूटी आँख नहीं देखते थे। तुलसी बालकाण्ड के आरम्भ में तीनों सम्प्रदायों के ईष्ट की स्तुति ,और गुणगायन करते हैं। आप शिव और पार्वती की भी वंदना करते हैं राम की भी।
तुलसी लक्ष्मण जी को राम की विजय पताका का दंड कहते हैं। ध्वज तभी लहराता है जब दंड मज़बूत हो ,आधार मजबूत हो। तीनों भाइयों की वंदना के साथ तुलसी हनुमान को भाइयों की पांत में बिठाकर वंदना करते हैं।
हनुमान जी मैं आपको प्रणाम करता हूँ ,आपके यश का गान तो स्वयं राम ने किया है। आवेगों और दुर्गुणों का नाश हनुमान जी करते हैं। आप राम के वक्ष में तीर कमान लेकर बैठते हैं।बेहतरीन रूपक है यहां दुर्गुण नाशक हनुमान के स्तुति गायन का।
जनक सुता जग जननी जानकी '
अतिशय प्रिय करुणा -निधान की।
नारी के तीनों विशेषण (बेटी ,जननी माँ ,प्राण राम की )यहां स्तुतिमाला के मोती बनाके डाल दिए हैं सीता जी की स्तुति में ,तुलसी ने।
'तात सुनो सादर मन लाई '-याज्ञवल्क्य भारद्वाज ऋषि से कहते हैं जब की दोनों ऋषि हैं लेकिन जानते हैं मन बड़ा चंचल है इसलिए इस कथा को आदर पूर्वक और पूरे ध्यान से सुनो ,चित लाई ,चित्त्त लगाकर। फिर ऐसे में आम संसारी की तो क्या बात है।
मन मनुष्य को असहज बनाता है आज की कथा ऐसी है बार -बार मन पे इशारा आ रहा है। बाहर से सरल होने का आवरण हो सकता है अंदर से सहज होना बड़ा कठिन है। आपकी कोई भी उम्र हो भीतर से सहज रहें। बालकाण्ड सिखाता है बच्चे बाहर भीतर दोनों जगह सहज होते हैं।
भगवान् शंकर उमा देवी को कथा सुना रहे हैं :
(याज्ञवल्क्य जी भरद्वाज मुनि को )
सुनी महेश परम् सुख मानी। तुलसी सावधान हैं सिर्फ महेश का नाम लेते हैं सती का नहीं। हरेक कथा सुनता कहाँ हैं। इनको क्या प्रणाम करना है ये तो खुद विलाप कर रहें हैं अपनी पत्नी के लिए। शंकर जानते हैं लीला चल रहीं हैं ,सती संदेह करतीं हैं नहीं मानतीं हैं शंकर अलग शिला खंड पे जाकर बैठ जाते हैं। शंकर जी सूत्र बतलातें हैं जब पति पत्नी में मतभेद हो जाएँ तो टेंशन नहीं लेना है।
होइ है वही जो राम रची रखा -सती संदेह करतीं हैं ,परीक्षा लेती हैं भगवान् की (भगवान् संदेह का विषय नहीं हैं ,लेकिन सती नहीं मानती ,सीता का भेष धर लेती हैं। ),भगवान् कहते हैं माते अकेले ही विचर रहीं हैं वन में ?भोले नाथ क्या कर रहें हैं ?
मैं कौन हूँ ये मैं तय करूंगा शंकर भगवान् मैना के अपमान करने पर कहतें हैं शंकरजी ऐसा ही कहते हैं। यहां सन्देश यह है घर टूटते ही ऐसे हैं किसी एक शब्द से। उन पर ध्यान नहीं देना चाहिए।
नारद ने सम्बन्ध बदल दिया पारबती की माँ मेनका को शंकर जी का असली रूप दिखलाकर। अब तो मेनका भगवान् से क्षमा मांगतीं हैं।
गुरु की यही महिमा है।
(ज़ारी )
संदर्भ -सामिग्री :(१ )https://www.youtube.com/watch?v=uD2C4zjlhgU
राम जहां रहते हैं उस निवास स्थान को रामायण (वाल्मीकि )कहा गया।तुलसीदास ने जिस राम कथा को हमारे जीवन में सौंपा ,जिस रूप में रामचरितमानस में प्रस्तुत किया उससे राम हमारे रग -रग में बस गए।तुलसी की चौपाई हम लोगों की नस नस में बस गईं हैं अवधि भाषा के स्पर्श के साथ लिखा गया यह ग्रंथ वे लोग भी समझ लेते हैं जो पढ़ना लिखना नहीं जानते। मानस की एक -एक पंक्ति में तुलसी की भक्ति के माध्यम से भगवान् खुद प्रकट हुए हैं।
महत्वपूर्ण यह नहीं है संसार से आपको क्या मिला महत्वपूर्ण यह है आप संसार को क्या लौटा रहें हैं।तुलसी यही सिखाते हैं।
आत्मा राम दुबे के यहां तुलसीदास का जन्म हुआ जन्म के बाद इस बालक की माँ मर गई। इस बालक को अपशकुनी मनहूस जानकार छोड़ दिया गया। ज़माने ने तुलसी को विष दिया लेकिन तुलसी ने रामचरितमानस के रूप में अमृत लौटाया।
चित्रकूट के घाट पर भइ संतन की भीड़ ,
तुलसीदास चंदन घिसें तिलक देत रघुबीर।
प्रसंग है :तुलसी दास चित्रकूट में नदी के किनारे राम कथा सुना रहे हैं। भगवान् उनकी भक्ति से खुश होकर सोचते हैं आज इसे दर्शन करा ही दें। भगवान् साधारण भेष में आते हैं तुलसीदास पहचान नहीं पाते तब पेड़ पर बैठे हनुमान यह दोहा पढ़ते हैं ,और तुलसीदास अपने ईष्ट भगवान राम को पहचान जाते हैं संकेत मिलते ही ।
कहतें हैं इसी के बाद तुलसी ने रामायण लिखनी शुरू की ,जिसका एक- एक दृश्य हनुमान ने ऐसे दिखलाया जैसे तुलसी ने स्वयं भी अपनी आँखों देखा हो।
परमात्मा जीवन में संकेत रूप में ही समझ आता है गुरु देता है यह संकेत। ऐसा ही संकेत हनुमान जी ने तुलसी को इस दोहे के मार्फ़त किया।
कथा का सूत्र :तुलसी वंदना के साथ बालकाण्ड आरम्भ करते हैं भगवान् का जन्म होता है भगवान बड़े होते हैं विश्वामित्र भगवान् को ले जाते हैं। भगवान् का विवाह होता है और भगवान् अयोध्या लौट आते हैं कथा बस इतनी ही है। लेकिन इसका व्यापकत्व समेटा नहीं जा सकता। इसलिए चर्चा कथा के सूत्र की ही की जाती है।
बालकाण्ड का सूत्र है सहजता। बालपन की सहजता।
तुलसी मात्र महाकवि नहीं हैं ,संत हैं ,जो लिखा है तुलसी ने वह भीतर से बाहर आया है मात्र शब्द नहीं है उस ग़ज़ल के जिसे लिखने वाला दारु पीते हुए लिख रहा है।इसमें एक भक्त का बिछोड़ा है।
तुलसी बाल- काण्ड के आरम्भ दुष्टों की, दुश्मनों की भी वंदना करते हैं ,ताकि कोई विघ्न न आये कथा कहने बांचने लिखने में।
तुलसी से पहले वैष्णव -विष्णु और राम के भक्त कहलाते थे , कृष्ण भक्त भी खुद को वैष्णव मानते थे ,शिव भक्त शैव और माँ दुर्गा शक्तिस्वरूपा पारबती के भक्त शाक्त कहाते थे।
तीनों परस्पर एक दूसरे को फूटी आँख नहीं देखते थे। तुलसी बालकाण्ड के आरम्भ में तीनों सम्प्रदायों के ईष्ट की स्तुति ,और गुणगायन करते हैं। आप शिव और पार्वती की भी वंदना करते हैं राम की भी।
तुलसी लक्ष्मण जी को राम की विजय पताका का दंड कहते हैं। ध्वज तभी लहराता है जब दंड मज़बूत हो ,आधार मजबूत हो। तीनों भाइयों की वंदना के साथ तुलसी हनुमान को भाइयों की पांत में बिठाकर वंदना करते हैं।
हनुमान जी मैं आपको प्रणाम करता हूँ ,आपके यश का गान तो स्वयं राम ने किया है। आवेगों और दुर्गुणों का नाश हनुमान जी करते हैं। आप राम के वक्ष में तीर कमान लेकर बैठते हैं।बेहतरीन रूपक है यहां दुर्गुण नाशक हनुमान के स्तुति गायन का।
जनक सुता जग जननी जानकी '
अतिशय प्रिय करुणा -निधान की।
नारी के तीनों विशेषण (बेटी ,जननी माँ ,प्राण राम की )यहां स्तुतिमाला के मोती बनाके डाल दिए हैं सीता जी की स्तुति में ,तुलसी ने।
'तात सुनो सादर मन लाई '-याज्ञवल्क्य भारद्वाज ऋषि से कहते हैं जब की दोनों ऋषि हैं लेकिन जानते हैं मन बड़ा चंचल है इसलिए इस कथा को आदर पूर्वक और पूरे ध्यान से सुनो ,चित लाई ,चित्त्त लगाकर। फिर ऐसे में आम संसारी की तो क्या बात है।
मन मनुष्य को असहज बनाता है आज की कथा ऐसी है बार -बार मन पे इशारा आ रहा है। बाहर से सरल होने का आवरण हो सकता है अंदर से सहज होना बड़ा कठिन है। आपकी कोई भी उम्र हो भीतर से सहज रहें। बालकाण्ड सिखाता है बच्चे बाहर भीतर दोनों जगह सहज होते हैं।
भगवान् शंकर उमा देवी को कथा सुना रहे हैं :
(याज्ञवल्क्य जी भरद्वाज मुनि को )
सुनी महेश परम् सुख मानी। तुलसी सावधान हैं सिर्फ महेश का नाम लेते हैं सती का नहीं। हरेक कथा सुनता कहाँ हैं। इनको क्या प्रणाम करना है ये तो खुद विलाप कर रहें हैं अपनी पत्नी के लिए। शंकर जानते हैं लीला चल रहीं हैं ,सती संदेह करतीं हैं नहीं मानतीं हैं शंकर अलग शिला खंड पे जाकर बैठ जाते हैं। शंकर जी सूत्र बतलातें हैं जब पति पत्नी में मतभेद हो जाएँ तो टेंशन नहीं लेना है।
होइ है वही जो राम रची रखा -सती संदेह करतीं हैं ,परीक्षा लेती हैं भगवान् की (भगवान् संदेह का विषय नहीं हैं ,लेकिन सती नहीं मानती ,सीता का भेष धर लेती हैं। ),भगवान् कहते हैं माते अकेले ही विचर रहीं हैं वन में ?भोले नाथ क्या कर रहें हैं ?
मैं कौन हूँ ये मैं तय करूंगा शंकर भगवान् मैना के अपमान करने पर कहतें हैं शंकरजी ऐसा ही कहते हैं। यहां सन्देश यह है घर टूटते ही ऐसे हैं किसी एक शब्द से। उन पर ध्यान नहीं देना चाहिए।
नारद ने सम्बन्ध बदल दिया पारबती की माँ मेनका को शंकर जी का असली रूप दिखलाकर। अब तो मेनका भगवान् से क्षमा मांगतीं हैं।
गुरु की यही महिमा है।
(ज़ारी )
संदर्भ -सामिग्री :(१ )https://www.youtube.com/watch?v=uD2C4zjlhgU
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें