ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके ,गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे।
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति ,पञ्चाग्नयों ये च त्रिणाचिकेता।
-----(कठोपनिषद ,प्रथम अध्याय ,दूसरी वल्ली का पहला श्लोक )
भावसार :ब्रह्मवेत्ता कहते हैं कि शरीर में बुद्धि रूप गुहा के भीतर प्रक्रिष्ट ब्रह्मस्थल में प्रविष्ट हुए अपने कर्म फल को भोगने वाले छाया और धूप के समान
परस्पर विलक्षण दो तत्व हैं। यही बात जिन्होनें तीन बार नचिकेताग्नि का चयन किया है वे पंचाग्नि की उपासना करने वाले भी कहते हैं।
व्याख्या : कुलमिलाकर लब्बोलुआब यहां यह है कि क्या 'आत्मा' /'परमात्मा 'और 'जीवात्मा' दो अलग -अलग तत्व हैं। उत्तर है -समष्टि के स्तर पर जो परमात्मा है वही व्यष्टि के स्तर पर आत्मा है। जब यह आत्मा एक इंटरनल अप्रेट्स अंतकरण :यानी मन -बुद्धि- चित्त -अहंकार चतुष्टय से संयुक्त होजाता है जब इसे एक शरीर मिल जाता है यही आत्मा जीवात्मा कहलाने लगता है।जीवात्मा आत्मा की ड्रेस है उपाधि है ,पद है भले दोनों परस्पर भिन्न नहीं है लेकिन खुद को यह जीवात्मा सिर्फ काया (शरीर )मान लेने की भूल के कारण ,अपने अहंकार के कारण अलग मानने लगता है आत्मा से।ईश्वर से।
इसको कठोपनिषद में नचिकेता यम संवाद के रूप में भी अन्यत्र मुंडक उपनिषद ( तीसरा अध्याय ,पहली वल्ली ,पहला श्लोक ),तथा श्वेताश्वर उपनिषद में भी एक रूपक के द्वारा समझाया गया है।
'एक वृक्ष(काया ) पर ही (इस हृद गुहा में) दो पक्षी रहते हैं ,एक वृक्ष के फलों को खाता है ,कर्म करता है ऐसा मान लेता है तथा दूसरा निस्पृह भाव सब कुछ देखता है। पहला पक्षी ईश्वर दूसरा जीवात्मा है। जीवात्मा खुद को अहंकार के कारण करता -भोक्ता मान लेता है। जबकि न वह करता है न भोक्ता ,भुक्त है। '
यही बात वे ब्रह्म ग्यानी और नचिकेता -अग्नि- यज्ञ तीन बार संपन्न करने वाले कहते हैं ,लेकिन मुगालता यह है -ये आत्मा और ईश्वर को दो भिन्न तत्व या सत्ताएं मानते हैं। जबकि एक स्वर्ण है (ईश्वर )तो दूसरा स्वर्ण के आभूषण। एक सूरज है तो दूसरा उसकी एक रश्मि एक किरण ,एक फोटोन। एक समुन्दर है तो दूसरा उसकी एक बूँद।
(बूँद सागर में विलय होने के बाद समुन्दर और स्वर्ण -आभूषण पिघलने के बाद स्वर्ण होकर अपना स्वतन्त्र अस्तित्व खो देते हैं। मैं एक छोटी तरंग हूँ या सबसे बड़ी तरंग मैं ही हूँ ,मैं लंबा, गोरा- चिट्टा या फिर नाटा हूँ सोच हमारे अज्ञान का ही नतीजा है।
श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं - जो एक ब्राह्मण ,स्वान तथा चांडाल को एक ही भाव से देखता और जानता है सभी में एक ही परमचेतन का अंश है वही वास्तव में देखता है।यही शंकर का अद्वैतवाद है -एक ही परम चेतना की परिव्याप्ति चहुँ ओर है ,जीवन में और जगत में ,जड़ में और चेतन में। यह कायनात उसी परमचेतन तत्व की अभिव्यक्ति है।
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति ,पञ्चाग्नयों ये च त्रिणाचिकेता।
-----(कठोपनिषद ,प्रथम अध्याय ,दूसरी वल्ली का पहला श्लोक )
भावसार :ब्रह्मवेत्ता कहते हैं कि शरीर में बुद्धि रूप गुहा के भीतर प्रक्रिष्ट ब्रह्मस्थल में प्रविष्ट हुए अपने कर्म फल को भोगने वाले छाया और धूप के समान
परस्पर विलक्षण दो तत्व हैं। यही बात जिन्होनें तीन बार नचिकेताग्नि का चयन किया है वे पंचाग्नि की उपासना करने वाले भी कहते हैं।
व्याख्या : कुलमिलाकर लब्बोलुआब यहां यह है कि क्या 'आत्मा' /'परमात्मा 'और 'जीवात्मा' दो अलग -अलग तत्व हैं। उत्तर है -समष्टि के स्तर पर जो परमात्मा है वही व्यष्टि के स्तर पर आत्मा है। जब यह आत्मा एक इंटरनल अप्रेट्स अंतकरण :यानी मन -बुद्धि- चित्त -अहंकार चतुष्टय से संयुक्त होजाता है जब इसे एक शरीर मिल जाता है यही आत्मा जीवात्मा कहलाने लगता है।जीवात्मा आत्मा की ड्रेस है उपाधि है ,पद है भले दोनों परस्पर भिन्न नहीं है लेकिन खुद को यह जीवात्मा सिर्फ काया (शरीर )मान लेने की भूल के कारण ,अपने अहंकार के कारण अलग मानने लगता है आत्मा से।ईश्वर से।
इसको कठोपनिषद में नचिकेता यम संवाद के रूप में भी अन्यत्र मुंडक उपनिषद ( तीसरा अध्याय ,पहली वल्ली ,पहला श्लोक ),तथा श्वेताश्वर उपनिषद में भी एक रूपक के द्वारा समझाया गया है।
'एक वृक्ष(काया ) पर ही (इस हृद गुहा में) दो पक्षी रहते हैं ,एक वृक्ष के फलों को खाता है ,कर्म करता है ऐसा मान लेता है तथा दूसरा निस्पृह भाव सब कुछ देखता है। पहला पक्षी ईश्वर दूसरा जीवात्मा है। जीवात्मा खुद को अहंकार के कारण करता -भोक्ता मान लेता है। जबकि न वह करता है न भोक्ता ,भुक्त है। '
यही बात वे ब्रह्म ग्यानी और नचिकेता -अग्नि- यज्ञ तीन बार संपन्न करने वाले कहते हैं ,लेकिन मुगालता यह है -ये आत्मा और ईश्वर को दो भिन्न तत्व या सत्ताएं मानते हैं। जबकि एक स्वर्ण है (ईश्वर )तो दूसरा स्वर्ण के आभूषण। एक सूरज है तो दूसरा उसकी एक रश्मि एक किरण ,एक फोटोन। एक समुन्दर है तो दूसरा उसकी एक बूँद।
(बूँद सागर में विलय होने के बाद समुन्दर और स्वर्ण -आभूषण पिघलने के बाद स्वर्ण होकर अपना स्वतन्त्र अस्तित्व खो देते हैं। मैं एक छोटी तरंग हूँ या सबसे बड़ी तरंग मैं ही हूँ ,मैं लंबा, गोरा- चिट्टा या फिर नाटा हूँ सोच हमारे अज्ञान का ही नतीजा है।
श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं - जो एक ब्राह्मण ,स्वान तथा चांडाल को एक ही भाव से देखता और जानता है सभी में एक ही परमचेतन का अंश है वही वास्तव में देखता है।यही शंकर का अद्वैतवाद है -एक ही परम चेतना की परिव्याप्ति चहुँ ओर है ,जीवन में और जगत में ,जड़ में और चेतन में। यह कायनात उसी परमचेतन तत्व की अभिव्यक्ति है।
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