मंगलवार, 10 अक्टूबर 2017

हुआ जब ग़म से यों बेहिस ,तो ग़म क्या सर के कटने का , न होता ग़र जुदा तन से ,तो जानूं पर धरा होता।


ना था कुछ तो खुदा था ,कुछ न होता तो ,खुदा होता ,

डुबोया मुझको होने ने ,ना  होता मैं तो ,क्या होता।

हुआ जब  ग़म से यों बेहिस ,तो  ग़म क्या सर के कटने का ,

न होता ग़र जुदा  तन से  ,तो जानूं  पर धरा होता।

हुई मुद्द्त के ग़ालिब मर गया पर, याद आता है ,

वो हरेक बात पे कहना के यूँ  होता , तो क्या होता।

                         --------------------------------------  मिर्ज़ा   असदुल्लाह खान ग़ालिब

(१ )बे -हिस का मतलब होता है  -लाचार /गतिहीन/संवेदन शून्य ,सुन्न

(२ )जानूं  -घुटनों से जुड़ा हुआ होता , सज़दे में झुका हुआ

भावसार :कहतें हैं यह मिर्ज़ा ग़ालिब की आखिरी ग़ज़ल थी ,ताउम्र मिर्ज़ा यही कहते रहे -

हैं और भी दुनिया में सुखन -बर बहुत अच्छे ,

कहते हैं के ग़ालिब का है अंदाज़े बयाँ और।

यहां सुखन -बार का अर्थ है ग़ज़ल कहने वाले लिखाड़ी

लेकिन जीवन की सांझ आते आते ये अभिमान ये गुरुर ढ़ल गया ,एहम गिर गया ,मर गया वो दम्भ से सना ग़ालिब -हुई

मुद्द्त के ग़ालिब मर गया पर याद आता है।

अब शब्दश : भाव पढ़ने की कोशिश करते हैं :

जब इस सृष्टि में कुछ भी न था खुदा तब भी था ,जब सृष्टि का विलय हो जाएगा खुदा तब भी रहेगा। परमात्मा की शाश्वतता का चित्र है यहां। 
तू क्या 'मैं ,मैं' करता है ?आई -नेस से ग्रस्त फूला फूला फिरता है तेरे होने न होने से क्या फर्क पड़ता है यहां।  

मेरे इस 'मैं, मैं' पन ने 'अहंकार' ने मुझे जीवन भर भरम में रखा। मैं गर पैदा ही न हुआ होता तो भी दुनिया ऐसे ही चल रही होती जैसी अब चल रही है ,मेरे न रहने पर भी ऐसे ही चलती रहेगी। मैं ऐसे ही अकड़ा रहा जीवन भर। 

अब एक तड़प है या खुदा ...तेरा ही सहारा पूर्ण समर्पण है आखिर में ग़ालिब का -तेरी इबादत में मैं अब सज़दा करता हूँ -झुका हुआ हूँ घुटनों के बल- अब मेरा अहंकार मिट गया है 'मैं -भाव' गिर गया है। 

हुआ जब ग़म से यूं बे -हिस  तो ग़म क्या सर के कटने का -भाव अब मेरा अहम समाप्त हो गया है विरह ने मुझे बड़ा लाचार और गतिहीन बना दिया है। 

एक और व्याख्या देखिये :

यूँ होता तो क्या होता – What would have been- Mirza Ghalib


                                APRIL 30, 2016

This is one of the most mind-bending ghazals by Mirza Asadullah Khan “Ghalib”.  I’ve tried my best to explain each sher (and they’re long explanations) but feel free to comment down your interpretations.
न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता
Na tha kuchh to khuda tha, kuchh na hota to khuda hota
Duboya mujh ko hone ne na hota mai to kya hota.
“When there was nothing there was God, when there would be nothing therein wil be God
My existence made me drown beneath, if I didn’t exist then what would have happened?”
Well, that’s the apparent meaning. But here, Ghalib has pulled off a puzzling word play. The first line seems quite typical and impersonal but then, all of a sudden, the personal pronoun मैं (I) is seen in the second line. That makes me wonder, maybe the first line too has मैं (I) as the subject. It fits in perfectly with Hindustani grammar.
MAI na tha kuchh to khuda tha, MAI kuchh na hota to khuda hota
“When I was nothing, I was God; if I were nothing, I would have been God!”
And it is quite logical that a man can be God…just if you mend the concept of God in the right way…
The second misra (line) too is quite a captivating word play. The word Doobna (To drown) has both positive and negative connections. One can drown in the sea of ecstasy at the moment of self-realization or one can drown and simply die.
The expression “To kya hota” has a colloquial meaning of “No big deal”.  So, even if the poet didn’t exist, it would have not mattered at all (to whom…?)
हुआ जो ग़म से यूँ बेहिस तो ग़म क्या सर के कटने का
न होता गर जुदा तन से तो जानूं पर धरा होता
Hua jo gham se yun be-his to gham kya sar ke katne ka
Na hota gar judaa tan se to jaanun par dhara hota
“All senses are numb with grief, then what grief would head-slaying cause
If the head were not severed from the body then it would have been with knees attached.”
What a stylish way to dismiss the fact that one has “lost his head”! The thing had become so useless with pain that it would have been simply resting near the knee, had it not been freed from the head. Now picture that!
Once again, the protagonist is not clear at all, though it seems evident that it may be the poet himself, but it may also be the head.
हुई मुद्दत के ग़ालिब मर गया पर याद आता है
वह हर एक बात पर यह कहना के यूँ होता तो क्या होता
Hui muddat ke ‘Ghalib’ mar gaya par yaad aata hai
Woh har ek baat par yeh kehna ke yun hota to kya hota
“Eons past “Ghalib” had died but still he lingers in memory
The way he responded to each small thing; If this were so then what would have been”
A fitting maqta (last couplet) to this masterpiece. Here, the subject seems to be a third person, maybe the poet’s friend or maybe us! He/We say(s) that, “This hell of a man, Ghalib,  had passed away ages ago but still he keeps on eating our brains! The way he used to say ‘If this were so, then what would have been!'”
Once again, Ghalib-special word play is active. The colloquial “To kya hota” (What’s the big deal) can be used in the interpretation. Like some big problem had taken place in Ghalib’s life, his attitude would be “To kya hua?” “What’s the big deal?”
Salute Ghalib Sahab!
Technical aspects : This ghazal has a rhythm of 1222/1222//1222/1222 with a pause after two arkaan. This beh’r is called “Hazaj  Musamman Salim”
Here, the Qafiya seems to be the sound of alif with zabar or madaa (aa) and the Radeef is “Hota” which has been used brilliantly.
विशेष :मैं वीरुभाई -राजदीप विजयराज जी और हमारी यादों में आबाद मिर्ज़ा ग़ालिब साहब की दिव्यता को प्रणाम करता हूँ। 
जैश्रीकृष्णा। 

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