जगद जितं केन ?मनो ही येन।
कई लोग कहते सुने जाते हैं भजन करते -करते ध्यान घटने लगता है सांसारिक पदार्थों तकाजों की ओर चला जाता है। कभी तो मन में
एक दम से अनुराग पैदा होता है परमात्मा के प्रति गुरु के प्रति और कभी वही मन एक दम से निर्भाव बना रहता है। ऐसा क्यों होता
है?
इसकी वजह यह है हमारा मन तीन गुणों से बना है :ये तीनों ही गुण परमात्मा की उस शक्ति के हैं जिसे हम माया कहते हैं। मैटीरियल
एनर्जी कहते हैं। इन्फीरियर प्रकृति भी कहते हैं। परमात्मा के पास एक दूसरी शक्ति भी है जिसे डिवाइन एनर्जी कहा जाता है। हम उसी
दिव्य ऊर्जा के अंश हैं चेतन ऊर्जा भी कहा जाता है इसे। सुपीरियर एनर्जी भी।
लेकिन यहाँ बात इन्फीरियर प्रकृति (माया )की हो रही है। जिससे हमारा मन भी बना है यह भौतिक जगत भी। इस प्रकृति (माया )के
तीनों गुण दिन भर कम ज्यादा होते रहते हैं।जो गुण ज्यादा होजाता है वह उस पल मन को अपने कब्ज़े में ले लेता है।
जब सत गुण (अच्छाई ,नैतिकता ,गुडनेस )ऊपर आजाता है मन कहता है भगवान् ने मुझपर बड़ी मेहरबानी कर रखी है।उसी की कृपा
से सब हो रहा है। मानव जीवन अनमोल है संसार के पदार्थों में अटका व्यर्थ न हो जाए ,कौड़ी बदले चला न जाए। चलो मंदिर चलते हैं
ध्यान में बैठते हैं। भजन सुनते हैं।
जब रजो गुण ((आकर्षण जगत का ,तीव्र कामवासना ,भावावेश ,पैशन ,Passion )अपना प्रभुत्व कायम कर लेता है मन कहता है :
फुर्सत मिली तो जाना ,सब काम हैं अधूरे ,
क्या -क्या करें जहां में दो हाथ आदमी के।
अभी तो बहुत काम मुझे करने हैं ,पूजा पाठ को उम्र पड़ी है। चलो भागो क्रेडिट कार्ड की लास्ट डेट निकल रही है। जुर्माना भरना पड़ेगा।
चलो बैंक चलो। ड्राप बाक्स में चेक छोड़ो।
तमो गुण (अज्ञान )के हावी होने पर मन कहता है : भगवान् वगवान ?हैं भी कहीं ?है तो दिखलाओ ?क्या किसी ने देखा भी है भगवान्।
अप्रशिक्षित मन की यही स्वाभाविक गति होती है। मन को ट्रेन करना पड़ता है। यदि मन (24x7 )ऊर्ध्वगामी ही रहे ,अच्छा ही अच्छा
सोचे फिर साधना पूजा अर्चना की ज़रुरत ही क्या रह जायेगी ? साधना का मतलब ही है विचार सरणी की दिशा बदलना। इसे तीन
गुणों की गिरिफ्त से निकाल प्रभु की ओर मोड़ना। गुरु की ओर ले जाना। मन है तो जगत की तरफ भागेगा ही लेकिन एक बार इसको
ड्राइव करना ,हांकना सीख लिया फिर यह काम उतना ही आसान हो जाएगा जैसे कारचलाना सीख लेने के बाद कार चलाना आसान
हो जाता है। हालाकि सड़क पर ट्रेफिक भी होता है फिर भी आप साथ वाली सवारी से मज़े से बतियाते रहते हैं।
दिक्कत कहाँ है ?
दरसल हमने स्वयं को मन ही मान लिया है।
इसीलिए मन अपनी मनमानी करता है। बस हम उसके पीछे -पीछे चल देते हैं।मन की ही
सुनते हैं। चाहे फिर वह हमें दोजख में ही ले जाए। इसीलिए हम गुरु की हेटी होते देख भी उसे अनदेखा कर देते हैं। यदि ठीक उसी वक्त
हम इस लिटिल मंकी को अपने से अलग मान लें , फ़ौरन उसे घुड़क दें। मैं कोई भी ऐसा काम नहीं करूंगा जो मेरे ध्यान में व्यवधान
डालेगा। भगवान् की तौहीन करेगा।
जगदगुरुकृपालुजी महाराज कहते हैं :
मन को मानो शत्रु उसकी ,सुनहु जनि कछु प्यारे।
(साधना करूँ प्यारे )
"Declare war on your mind .Do the opposite of what it says
,and soon it will stop bothering you ."
जगदगुरुशंकराचार्य ने इससे भी आगे निकलके पूछा था :
जगत जितं केन ?मनो ही येन।
इस जगत पर विजय कौन प्राप्त करेगा ?वही जो मन को जीत लेगा। विनय पत्रिका के हर तीसरे पद में तुलसीदास अपने मन को ही
फटकारते रहते हैं।
इसलिए चिंता नहीं करनी है हताश नहीं होना है तत्व ज्ञान का कवच पहन बैठना है ध्यान में। गुरु मन्त्र याद रखना है। मैं मन नहीं हूँ।
ये मन मेरा है। मैं इसका स्वामी हूँ।
चन्दन विष व्यापे नहीं ,लिपटे रहत भुजंग।
चन्दन वृक्ष की तरह हम संसार में रहेंगे। संसार हमारे अन्दर नहीं रहेगा।
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