सोमवार, 26 अक्टूबर 2015

परहित सरिस धर्म नहीं भाई

सत्संग के फूल :

नदिया का नीर कब दुर्गन्ध को ,मैलेपन को प्राप्त होता है तब जब वह -किनारे पे ठहरा हुआ रह जाए -इसीलिए हमारे ग्रंथों में कहा गया -रमता जोगी ,बहता पानी ,यानी साधू रमता (एक जगह ठहरा )भला और पानी बहता भला। मनुष्य के लिए हमारे शास्त्रों में कहा गया -कहीं एक जगह ठहर मत जाना ,चलते रहना ,चलते रहना ,चरे वेती ,चरे वेती।

बहते रहने का नाम ही नदिया है जो सागर बन सकती है। अपने लक्ष्य की ओर ही दौड़ रहीं नदी। वैसे ही हे मानव तू ऊर्जावान रहना ,बहते रहना ,ठहरना मतजीवन में। लक्ष्य के साथ बहते रहना ही सिद्धि है।  किसी एक जगह रुक मत जाना। बादशाह बनके जियो एम्पायर बनके जियो लेकिन आपका लक्ष्य भगवद प्राप्ति हो । हमारे शास्त्रों में कहीं भी धन का निषेध नहीं किया गया है। खूब धन कमाओ लेकिन धर्म  के सहारे।

माला हाथ में होए खूब धन कमाना लेकिन धर्म  साथ में रहे तब माला (धर्म )और माल(अर्थ ) मिलके मालामाल हो जाओगे। जीवन जीने के लिए जो तरंग चाहिए जो उत्साह चाहिए वह देता   है सत्संग ,कथा ।मास कॉन्सिलिंग है सत्संग। धर्म के साथ अर्जित करो धन। फिर अपनी सारी कामनाएं  (काम )पूरी  कर लो ,मुक्त हो जाओ फिर एषणाओं से यही जीवन का लक्ष्य है। कथा एक मार्ग बताती है उत्प्रेरक है जीपीएस (ग्लोबल पोज़िशनिंग सेटेलाइट )है।लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सिद्धि के लिए कथा श्रवण ज़रूरी है।

जीवन में कहीं ठहराव न आने पाये उसमें निरंतरता रहे वह कहीं अवरुद्ध न हो जाए गतिमान रहना। इसीलिए साधू के लिए कहागया -रमता जोगी और पानी  के लिए कहा गया बहता पानी। नित्य नए विचारों का चिंतन कीजिए अन्वेषण कीजिए जीवन में रोज़ रोज़। हर दिन एक नया संग्राम नई परीक्षा है। आपके पास आध्यात्मिक पथ का बैकप हो बस।निराशा फिर आपको छूएगी  नहीं। जो इसकी प्राप्ति में अधिक सामर्थ्य देती है उसका नाम कथा है।

सिद्धि प्राप्त का अर्थ यही है जो अपनी सारी समस्याओं का निराकरण कर लेता है ,संशय की जड़ों को खोद डालता है।वह सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।

शाश्त्रों में दो बारातों की विशेष चर्चा है एक शिव बरात दूसरी रामजी की बरात। दोनों में एक बात कॉमन है देवता बाराती हैं। रामजी की बारात एक महीने तक जनकपुर में रूकती है और कोई भी व्यंजन दोबार नहीं परोसा गया। हर दिन हर प्रहर नए व्यंजन बारातियों को परोसे गए। क्योंकि यहां स्वयं लक्ष्मीजी जनवासे में मौजूद हैं।

राम सीता का विवाह हो जाता है। लक्षमण जी का जानकी की छोटी बहन उर्मिला से   जनक जी के छोटे भाई कुशध्वज की  कन्याओं मांडवी ,श्रुतकीर्ति के साथ विवाह हो जाता है भरत और शत्रुघ्न का।

अयोध्या में बरात लौटने के बाद हर्ष की लहर छा जाती है। फिर कुछ दिन बीतते हैं। तब एक दिन -

प्रसंग :जब राजा दशरथ एक  आईना देख रहे थे और अपने कान के गिर्द उन्होंने एक सफ़ेद बाल देखा ,जब उन्होंने महसूस किया कि अब यह मुकुट उनके माथे पे ठहरता नहीं है तब वह मुनि वशिष्ठ के पास गए और पांचों मंत्रियों सभासदों के सामने अपनी इच्छा कह दी। मैं जितना पुण्य इस जीवन में राजा के रूप में कमा सकता था ,कमा चुका। अब ओर पुण्य कमाने के लिए मुझे  राजपाट किसी और समर्थ व्यक्ति को सौंप देना चाहिए। मेरे मन में श्री राम का नाम आता है। आप लोगों की इस बारे में क्या राय है। सबने मुक्त कंठ से सहर्ष इस प्रस्ताव का स्वागत किया। देखते ही देखते अयोध्या उल्लास और आनंदातिरेक में डूबने लगी।
राम के राज्य अभिषेक की तैयारियां होने लगीं। राजा दशरथ रथ पे सवार होकर नगर की और ढेर सारे तोहफे लेकर निकल गए। आज निचले तबके के लोग उनसे कुछ लेते नहीं हैं उन्हें कुछ देते हैं अपने आनंद को साझा करने के लिए यह कहते हुए कि हम लोग तो आपसे सदैव ही प्राप्त करते रहें हैं। आज हमें भी अपनी सामर्थ्य के अनुरूप कुछ देने देवें।

दूसरी और स्वर्ग में आपात बैठक चल रही थी। सब देव बड़े चिंतित थे। राम का राज्याभिषेक हर हाल में रोका जाना चाहिए। राम राजा बन गए तो राक्षसों का वध कौन करेगा जो वनप्रांतरों में चलने वाले हवन यज्ञ आदि में निरंतर विघ्न डाल रहें है। सरस्वती ने आगे बढ़के अपनी सेवाएं अर्पित कीं। साथ ही यह आश्वासन भी माँगा कि देवताओं का बैकप उन्हें मिले किसी भी आपद स्थिति से निपटने के लिए।

देवता राजी हो गए। छल कपट से सरस्वती ने कैकई के महल में प्रवेश लिया और कैकई की दासी मंथरा के मस्तिष्क में प्रवेश ले लिया। उसने देखते ही देखते कैकई के महल की साज सज्जा को विच्छिन्न कर दिया। वंदन वारें तोड़ दीं। कैकई के दिमाग को संदूषित कर दिया। ईर्ष्या से पूर दिया।

कौशल्या को शाम से ही अपशकुन होने लगे थे वह पूजा घर में चली गईं कैकई को प्रबंध सौंप कर। मौन धारण कर लिया अनिष्ट को टालने के लिए। मंथरा ने अपने जीवन का सबसे बड़ा झूठ बोला -मैं अपने कानों से सुनकर आईं हूँ भरत और तुम्हारे खिलाफ एक बहुत बड़ा षड्यंत्र राजमहल में चल रहा है जिसके तहत राम को राजा बना दिया जाएगा ,भरत और तुम्हें कारागार में डाल दिया जाएगा। कौशल्या और दशरथ को यह मंत्रणा करते मैंने अपने कानों से खुद सुना है और तुम इस सबसे बेखबर राज्याभिषेक की तैयारी में जुटी हो। अपना अनहित जीवन का सबसे बड़ा अनिष्ट तुम्हें दिखता नहीं। आखिर तुमसे ही  क्यों यह समाचार छिपाया गया।

एक झूठ को मंथरा ने बार बार दोहराया और कैकई को वह सच लगने लगा। अब तमाम देवता कैकई के दिमाग पे छा गए थे। वही सब कुछ करवा रहे थे। झूठ का सच।

मंथरा ने उसे याद दिलाया तुम अब भी जेल जाने से बच सकती हो तुम्हारा पुत्र भरत राजा बन सकता है और तुम राजरानी। कोप भवन में जाओ नाटक करो। अपने दोनों वर मांग लो जब तुमने दशरथ की जान रथ का पहिया निकल जाने पर अपनी ऊँगली डालके बचा ली थी तब जब दशरथ देवों  की तरफ से संग्राम कर रहे थे और अचनाक रथ का पहिया निकल गया था।

कैकई ने अपने पहले वर में भरत के लिए राज्य मांग लिया। राजा को झटका तो लगा लेकिन उन्होंने अपने को यह सांत्वना देकर संभाल लिया -भरत और राम में अंतर  ही  क्या है। लेकिन जैसे वह सब जान गए थे बोले आखिर तू चाहती क्या है तेरी असली मांग है क्या। दशरथ अपने योगबल से समझ गए थे ये ज़रूर किसी की चाल है ये कैकई के स्वर नहीं हो सकते। फिर भी वह वचन बद्ध  थे रघुकुल और हरिश्चंद्र की परम्परा उन्हें याद थी। वे अपने आपको किसी अनहोनी के लिए तैयार करने लगे।

मांगऊ दूसर वर  कर जोरि ,
पुरबौ नाथ मनोरथ मोरि ।

चौदह बरस राम वनवासी ,
कबहिं लगन मुद मंगलकारी।
प्रात :होते ही यह समाचार पुरवासियों को दीजिये। दशरथ अपना आपा अपने होशोहवास खो बैठे -जब देर तक कैकई के भवन के द्वार नहीं खुले तो सुमन्त्र पहुंचे उन्होंने देखा राजा बे -सुध पड़े राम राम … कहते हुए भारी वेदना से कराह रहे हैं। उन्होंने जाकर दशरथ की व्यथा दशा राम को जा बताई। पिता के पास आकर उन्होंने कहा -इसमें मेरा ही हित  सोचा है माता कैकई ने। राम का रामत्व वन में ही  तो फलित होगा। कौशल्या को युक्ति पूर्वक जाकर उन्होंने बतलाया -
पिता दीन  मोहे कानन  राजू ,
जहां सब भाँतिन  मोर बड़ काजू।

एक पल लगा राम को सब कुछ त्याग कर वन की ओर चलने में।

जीयु बिन देह ,नदी बिन बारि ,

तैसे ही नाथ ,पुरुष बिन नारि।
यह कहकर सीता भी उनके साथ जाने को उनसे पहले तत्पर हो गईं।
छल अनंत हैं ,मिथ्या मायावी प्रपंच हैं।
परहित सरिस धरम नहीं भाई।
इस धरती पर उनकी चर्चा है जिन्होनें त्याग किया है वही आदरणीय हैं हमारे भीतर स्थापित हैं आदरणीय हैं। स्वीकृत हैं स्वाभाविक तौर पर। जो वन गए जिन्होनें त्याग किया है वह बन गए हैं । निर्माण वहां है जहां त्याग है।  उत्तम जीवन जीकर इस धरती पर प्रणाम छोड़े जा सकते हैं। जब व्यक्ति दूसरों के लिए जिए तभी जीवन सार्थक है सम्मानीय है।इसीलिए कहा गया -

परहित सरिस धर्म नहीं भाई

राम वन क्यों जा रहे हैं -तुम्हारा भाग्य  उदित हो रहा है इसलिए राम वन जा रहें हैं। वो कारण मंथरा नहीं है कैकई नहीं है। देवताओं की हित सिद्धि ,राक्षाओं का उद्धार नहीं है। धरती का भार काम करने के लिए राम वन जा रहे हैं। ये बोझा शेष नाग (लक्ष्मण के सिर )पर ही तो रखा है। उसी लक्ष्मण के माथे का भार उतारने राम वन जा रहे हैं। अगर मैं यह भी मानूं कि तू मेरा बेटा है ,तो भी हे लक्षमण मेरा मातृत्व तभी धन्य होगा जब तू राम के साथ जाएगा। पुत्र तो वही है जो माँ को धन्यता  दे । राम की सेवा में जिसका बेटा लगेगा वही माँ धन्य होगी ।
तुमरे भाग राम वन जाहिं ,दूसर हेतु तात कछु नाहिं-ये वचन बोलतीं हैं माता सुमित्रा लक्षमण से।
जब लक्षमण राम तक पहुँचने के लिए निकल रहे थे तो आँगन में उन्हें एक परछाईं दिखाई दी।  वह उर्मिला की थी। वह एक स्तम्भ का सहारा लिए खड़ी थीं। आँगन में उन्हीं की परछाईं पड़ रही थी। वह लक्षमण से मिलने नहीं आईं थीं लेकिन सूर्य देव की उन पर कृपा हुई थी जो उनकी परछाईं लक्षमण तक पहुंची। वह लक्षमण से मिलने इसलिए नहीं आईं कि लक्षमण तो खुद राम के दास हैं। और मैं किंकरी हूँ उस दास की भी दास हूँ । एक दास के कोई अधिकार नहीं होते। लक्षमण जब उर्मिला के पास पहुंचे तो वह बोलीं नाथ में आपको वचन देती हूँ मैं यहां अयोध्या में ऐसे रहूंगी कि आपको मेरा ध्यान ही नहीं आएगा। मैं आपको विस्मरण का वरदान देती हूँ। मैं व्रत भी रखूँगी तो आपका स्मरण न करूंगी ताकि आपको मेरा ध्यान न आवे। मैं जानती हूँ मेघनाद का वध वही कर सकता है ,जो चौदह बरस वनवास में रहे। और इन तमाम बरसों में नित्य चौकन्ना रहे। सोये नहीं जागता रहे। व्रत में रहे। अन्न ग्रहण न करे। शील में रहे। और वह बल और शील के  स्वामी आप हैं।मेरा पत्नीत्व आज सार्थक हुआ आप राम की सेवा में जा रहे हैं। लीला के अंग बन रहे हैं।

जब सुमंत राम को वन में छोड़कर चल देते हैं वह एक बार अयोध्या को मुड़कर देखते हैं और एक मुठ्ठी मिट्टी अयोध्या की उठा लेते हैं ,ताकि ये उन्हें अभिमान न हो मैंने सब कुछ  त्याग दिया। और फिर मेरे पास पूजा करने के लिए कोई मूर्ती भी तो नहीं है। भगवान की मैं सुबह उठकर रोज़ पूजा करता हूँ। और यही वह मिट्टी है जिसमें इक्ष्वाकु वंश की परम्परा समाहित है। प्रतापी राजाओं की स्मृति लिए है ये मिट्टी।

चंदन है भारत की माटी ,तपोभूमि हर ग्राम है ,

हर बालक देवी की प्रतिमा ,बच्चा बच्चा राम है।

जयश्रीराम !







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