शनिवार, 7 दिसंबर 2019

सिर्फ काले कोट की बोली इन्हें आती है क्या ?

'Dead Before Trial'- सम्पादकीय ,टाइम्स आफ इंडिया, दिसंबर, सात दो हज़ार उन्नीस ,जहां आग्रह मूलक है पहले निष्कर्ष निकाल बाद को तर्क तलाशता है वहीँ इसी दिन सम्पादकीय पृष्ठ पर पसरा फैला आलेख Indian women must get justice and it must be timely .But vigilantism is anathema to both justice and democracy अमरीकी दैनिक न्यूयॉर्क टाइम्स की तरह तदानुभूति से शून्य और उल्लेखित संदाकीय से भी आगे निकल हैदराबाद पुलिस द्वारा लिए गए तात्कालिक जोखिम भरे कदम को एक नामालूम से  समूह द्वारा की गई दबंगई हत्या की संज्ञा दे रहा है।  मोतरमा NS Nappinal (इस आलेख की बुनकर ,कसीदाकार  )शायद इस शब्द की अर्थच्छटा से ही नावाकिफ हैं  अक़सर एक छोटे से समूह द्वारा की गई ऐसी  हत्या जो पुलिस की अनदेखी को लेकर की जाती है जबकि ये मान लेती है यह टोली ,'के 'पुलिस तो कुछ करेगी' नहीं चलो -हम ही न्याय के चोकीदार बन लेते हैं। 

यहां तो आगे बढ़के स्वयं पुलिस ने अपनी नौकरी की भी परवाह न करते हुए भाग खड़े हुए रेपियों को कुदरती न्याय के हवाले किया है। बलात्कारी  अपनी करनी की सजा एक और करनी से खुद ही पा गए। इसमें पुलिस के काम में अपनी टांग फ़साने की बात वही लोग कर सकते हैं जो घाटी में आतंकवाद के हिमायती बन खड़े रहे हैं और फिलवक्त नज़र बंद हैं। शेख अब्दुल्ला तो नेहरू कांग्रेस की हुकूमत में पूरे ग्यारह बरस नज़र बंद रहे थे। यहां पिद्दी न पिद्दी  के शोरबे अखबार नवीस खुद को ख़ास कहलवाकर अपनी पीठ थपथपाने वाले अखबारी लाल कागद कारे कर रहे हैं। ये ज़िंदा औरत को सेक्सुअली रोंदने वाले और फूस की तरह उसे आग के हवाले करने वाले लोगों के हिमायत -खोर यह कह रहें हैं अभी उनका अपराध सिद्ध ही कहाँ हुआ था। पूछा जा सकता है क्या पुलिस का यदि एंकाउंअर किलिंग अपराध था तो क्या वह इन्होनें सिद्ध मान कर यह बे -हूदा सम्पादकीय लिखा है। एंकाउंअर किलिंग की जांच से पहले टाइम्स आफ इंडिया ने पुलिस को कटहरे  में लाकर क्या काले कोट -वाले  चंद उकीलों जैसी हरकत नहीं की है जिनके लिए पुलिस की वर्दी का  कोई अर्थ नहीं है।सिर्फ काले कोट की बोली इन्हें आती है क्या ?
https://mumbaimirror.indiatimes.com/photos/news/hyderabad-police-encounter-photos-from-site-of-the-killing-to-the-people-celebrating-here-are-some-pictures-from-telangana/p

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