चिंतन के क्षण :हमारे सुख -दुःख का कारण हमारी स्वीकृति -अस्वीकृति ही बनती है ?
हमारे हाथ पैरों की माप भी परमात्मा ने एक जैसी नहीं बनाई है। ताकत भी हमारे अंगों की यकसां नहीं है मसलन खब्बुओं का बायां हाथ ज्यादा सक्षम रहता है गैर -खब्बुओं का दायां । परिवार में सबके स्वभाव वृत्तियाँ भी यकसां नहीं होती हैं। कई प्रकार के सामाजिक विचलन घर बाहर सब जगह हमारे गिर्द खड़े मिलते हैं।
घर में कोई एक बच्चा समान सुविधाओं और एक्सपोज़र के बाद हर मायने में पीछे रह जाता है। मानसिक सेहत भी सबकी एक जैसी नहीं होती है कई खानदानी बीमारियां किसी एक पीढ़ी के किसी एक बच्चे में मुखरित हो जातीं हैं। वह सामाजिक उठ बैठ घर बाहर सामंजस्य बिठाने में उतना कामयाब नहीं हो पाता भले पढ़ाई लिखाई में बेहतर रहा हो। किसी न किसी क्षेत्र में वह पिछड़ जाता है चीज़ों को उनके सही सन्दर्भ में न समझ पाने के कारण जिसका कारण उसकी खानदानी वृत्तिक सौगात बनती है जेनटिक प्रेडिस्पोसिशन बनता है।
कई मर्तबा परिवार में कोई आकस्मिक रूप से चल बसता है ऐसी उम्र में जो हमारे हिसाब से जाने की उम्र नहीं होती।असामयिक मृत्यु कह देते हैं हम इसे।
अब सामयिक और असामयिक मृत्यु का फैसला कौन करे। कर्मों का लिखा या हमारे सुख दुःख।अगर फैसला हम पर छोड़ दिया जाए तो मरना कौन पसंद करेगा। कब मरना पसंद करेगा। कौन सी उम्र मरने की सबको स्वीकार्य होगी।
हमारी एक मुंह बोली अम्मा है उनके चार में से तीन बच्चे उनके सामने ही इस संसार से चले गए। पति तो बहुत पहले ही चले गए थे। उनकी उम्र इस वक्त ९४ (94 )वर्ष है। आज भी वह सक्रिय है पराश्रित नहीं हैं स्वाध्याय बरकरार है भले श्रवण क्षीण हुआ है बीनाई गिरी है। लेकिन जिजीविषा बरकरार है।
जेहि बिधि राखे राम तेही बिधि रहिये ,
सीता -राम, सीता- राम, सीता- राम कहिये। यही उनका फलसफा है। सब कुछ स्वीकार्य है उन्हें। लेकिन न वह निर्भाव हैं न संबंधों से निरपेक्ष ,मोह ज़रूर चुका है।
अक्सर हम उस व्यक्ति को बदलने की नाकामयाब कोशिश करते हैं जो हमारे द्वारा नियत सामाजिक प्रतिमानों में हमारे हिसाब से फिट नहीं बैठता .
हम उसे वह जैसा है वैसा ही स्वीकार करें। वह हमारा ही है इसे मान्यता दें। नकार की मुद्रा हमारे कष्टों की बड़ी वजह बनती है। परिवार में परस्पर दूरियां भी इसी नकार या अस्वीकृति की वजह से पैदा होतीं हैं।
आखिर हमारे आस पास सब कुछ हमारे अनुरूप कैसे हो सकता है। कुछ न कुछ प्रतिकूलता सामाजिक पारिवारिक आर्थिक चुभन सबके गिर्द रही आती है। कुछ उसको बिला वजह ज्यादा तूल दे देते हैं कुछ स्वीकार कर लेते हैं।
दोनों के अपने-अपने ढांचों ,चिंतन-धारा में फिट होने वाले सुख और दुःख हैं ,अवसाद हैं।
कोई क्या कर सकता ?
हमारे हाथ पैरों की माप भी परमात्मा ने एक जैसी नहीं बनाई है। ताकत भी हमारे अंगों की यकसां नहीं है मसलन खब्बुओं का बायां हाथ ज्यादा सक्षम रहता है गैर -खब्बुओं का दायां । परिवार में सबके स्वभाव वृत्तियाँ भी यकसां नहीं होती हैं। कई प्रकार के सामाजिक विचलन घर बाहर सब जगह हमारे गिर्द खड़े मिलते हैं।
घर में कोई एक बच्चा समान सुविधाओं और एक्सपोज़र के बाद हर मायने में पीछे रह जाता है। मानसिक सेहत भी सबकी एक जैसी नहीं होती है कई खानदानी बीमारियां किसी एक पीढ़ी के किसी एक बच्चे में मुखरित हो जातीं हैं। वह सामाजिक उठ बैठ घर बाहर सामंजस्य बिठाने में उतना कामयाब नहीं हो पाता भले पढ़ाई लिखाई में बेहतर रहा हो। किसी न किसी क्षेत्र में वह पिछड़ जाता है चीज़ों को उनके सही सन्दर्भ में न समझ पाने के कारण जिसका कारण उसकी खानदानी वृत्तिक सौगात बनती है जेनटिक प्रेडिस्पोसिशन बनता है।
कई मर्तबा परिवार में कोई आकस्मिक रूप से चल बसता है ऐसी उम्र में जो हमारे हिसाब से जाने की उम्र नहीं होती।असामयिक मृत्यु कह देते हैं हम इसे।
अब सामयिक और असामयिक मृत्यु का फैसला कौन करे। कर्मों का लिखा या हमारे सुख दुःख।अगर फैसला हम पर छोड़ दिया जाए तो मरना कौन पसंद करेगा। कब मरना पसंद करेगा। कौन सी उम्र मरने की सबको स्वीकार्य होगी।
हमारी एक मुंह बोली अम्मा है उनके चार में से तीन बच्चे उनके सामने ही इस संसार से चले गए। पति तो बहुत पहले ही चले गए थे। उनकी उम्र इस वक्त ९४ (94 )वर्ष है। आज भी वह सक्रिय है पराश्रित नहीं हैं स्वाध्याय बरकरार है भले श्रवण क्षीण हुआ है बीनाई गिरी है। लेकिन जिजीविषा बरकरार है।
जेहि बिधि राखे राम तेही बिधि रहिये ,
सीता -राम, सीता- राम, सीता- राम कहिये। यही उनका फलसफा है। सब कुछ स्वीकार्य है उन्हें। लेकिन न वह निर्भाव हैं न संबंधों से निरपेक्ष ,मोह ज़रूर चुका है।
अक्सर हम उस व्यक्ति को बदलने की नाकामयाब कोशिश करते हैं जो हमारे द्वारा नियत सामाजिक प्रतिमानों में हमारे हिसाब से फिट नहीं बैठता .
हम उसे वह जैसा है वैसा ही स्वीकार करें। वह हमारा ही है इसे मान्यता दें। नकार की मुद्रा हमारे कष्टों की बड़ी वजह बनती है। परिवार में परस्पर दूरियां भी इसी नकार या अस्वीकृति की वजह से पैदा होतीं हैं।
आखिर हमारे आस पास सब कुछ हमारे अनुरूप कैसे हो सकता है। कुछ न कुछ प्रतिकूलता सामाजिक पारिवारिक आर्थिक चुभन सबके गिर्द रही आती है। कुछ उसको बिला वजह ज्यादा तूल दे देते हैं कुछ स्वीकार कर लेते हैं।
दोनों के अपने-अपने ढांचों ,चिंतन-धारा में फिट होने वाले सुख और दुःख हैं ,अवसाद हैं।
कोई क्या कर सकता ?
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