कृपया यहां भी पधारें :
(१)https://www.imdb.com/title/tt0044392/
(२)https://khabarkaamki.com/%E0%A4%AC%E0%A5%88%E0%A4%9C%E0%A5%82-%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%AC%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BE/#:~:text=%E0%A4%AC%E0%A5%88%E0%A4%9C%E0%A5%82%20%E0%A4%AD%E0%A5%80%20%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%A3%20%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%A4%E0%A4%BE%20%E0%A4%97%E0%A4%AF%E0%A4%BE,%E0%A4%AA%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A5%80%20%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%A7%20%E0%A4%B9%E0%A5%8B%20%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%87%20%E0%A4%A5%E0%A5%87%E0%A5%A4
१९५२ में प्रदर्शित फिल्म बैजू बावरा देखी -संगीत की मोहिनी उस्ताद अमीर खान साहब और पंडित विष्णुदिगंबर पलुस्कर ने जिस फिल्म के लिए गाया हो नौशाद साहब का संगीत रहा हो उसके गीतों ने हमें तब भी मंत्रमुग्ध किया था जब उम्र रही थी ब-मुश्किल १० -११ बरस। तू गंगा की मौज़ में जमुना का धारा ....,,दूर कोई गाये धुन ये सुनाये ,तेरे बिन छलिया रे के बाजे ना मुरलिया रे ...इन गीतों की चाशनी दिनानुदिन गाढ़ी होती आई है। एक बेहद की करीबी अज़ीज़ा ने हमसे पूछा है -बैजू तानसेन से बड़े गवैये क्यों माने जाते हैं।
ज़वाब सीधा सा है -तानसेन के जीवन में होमे दीर्घ रोग है अहंकार है उनके महल के आसपास किसी को गाने की इज़ाज़त नहीं है। संगीत पे पहरा है। दया भाव से तानसेन निहायत अपरिचित हैं। दूसरी तरफ बैजू के जीवन में अपने पिता के कथित खुनी तानसेन से बदला लेने का उन्माद तो रहा आया है लेकिन मल्लाह की बेटी के प्रति उनका अगाध प्रेम उनके प्रेम को रूहानी स्तर पर ले आता है। उनके जीवन में प्रेम और प्रतिहार का द्वंद्व है। गुरु की सीख पर चलने का हुकुम है। संगीत को शस्त्र न बनाने की प्रतिज्ञा है। अष्टावक्र की याद दिला देता है बैजू का जीवन। ऋषि कहोद के पुत्र अष्टावक्र बामन पंडित को शास्त्रार्थ में पराजित करने के बाद भी उसे जनक की सभा में न सिर्फ माफ़ कर देते हैं जनक से ये वायदा भी लेते हैं आगे से उनकी सभा में शास्त्रार्थ में पराजित व्यक्ति को जल समाधि नहीं दी जाएगी। गौर तलब है अष्टावक्र के पिता ऋषि कहोद को शास्त्रार्थ में बामन पंडित से हारने के बाद जल समाधि लेनी पड़ी थी।
बैजू भी अपने प्रतिद्वंद्वी तानसेन को न सिर्फ मुआफ कर देते हैं बादशाह अकबर से ये हुकुमनामा वापस लेने में भी कामयाब हो जाते हैं आइंदा उनकी नगरी में संगीत पे पहरा नहीं होगा। आम और ख़ास को आगरा की गली कूचों में गाने की इज़ाज़त होगी।
ये वही बैजू थे जिनके पिता बैरागी थे सार संसार से जिनका मोह टूट चुका था जो जीवन मुक्त हो भजन कीर्तन में लीन हो गए थे उनके लिए कैसा बादशाह और कैसा उसका फरमान। अकबर की नगरी में उनकी भजन मंडली गाते हुए तानसेन के आवास से पास से गुजरी और बादशाह के निर्दयी सैनिक उनपर टूट पड़े बालक बैजू की उपस्तिथि में उनके साधु रूप पिता ने प्राण त्याग दिए। ताउम्र बैजू प्रतिकार की अग्नि में झुलसता रहा ,कभी दिव्य प्रेम के प्रति आकर्षण का प्राबल्य कभी प्रतिकार की ज्वाल और कभी गुरु वचन की पालना इसी द्वंद्व के बीच संगीत साधना में डूबा बैजू तानों की भी तान बन गया। तानसेन उसके सामने क्या चीज़ थी। हाँ गुरु भाई थे बैजू और तानसेन स्वामी हरिदास (वृन्दावन )के ही दोनों शिष्य थे। लेकिन एक दया की मूरत और दूसरा अहंकार का पुतला।
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