रविवार, 21 अक्टूबर 2018

अकर्म एवं भक्ति, SI-11, by shri Manish Dev ji (Maneshanand ji) Divya Srijan Samaaj

सन्दर्भ -सामिग्री :https://www.youtube.com/watch?v=otOjab3ALy4

जो अकर्म  में कर्म को और कर्म में अकर्म को देख लेता है बुद्धिमान वही है। भगवान् अर्जुन को अकर्म और कर्म के मर्म को समझाते हैं। कर्म जिसका फल हमें प्राप्त  होता है वह है और अकर्म  वह जिसका फल हमें प्राप्त नहीं होता है।  

वह योगी सम्पूर्ण  कर्म करने वाला है जो इन दोनों के मर्म को समझ लेता है।  अर्जुन बहुत तरह के विचारों से युद्ध क्षेत्र में ग्रस्त है । युद्ध करूँ न करूँ। 

सफलता पूर्वक  कर्म करना है तो इस रहस्य को जान ना ज़रूरी है। अकर्म  वह है -जिसका फल प्राप्त नहीं होता।

जो कर्म अनैतिक है जिसे नहीं करना चाहिए वही विकर्म है।वह कर्म जो नहीं करना चाहिए जो निषेध है वह विकर्म है। 

जिस दिन कर्म और अकर्म का भेद समझ आ जाएगा। मनुष्य का विवेक जागृत होगा उसी दिन भक्ति होगी।तब जब घोड़े वाला चश्मा हटेगा और उसके स्थान पर विवेक का चश्मा लगेगा।  

 भगवान् अर्जुन से कहते हैं :हे अर्जुन !तू कर्म अकर्म और विकर्म के महत्व को मर्म को जान तभी तेरे प्रश्नों का समाधान होगा के पाप क्या है, पुण्य क्या है क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए ?

कर्म वह है जिसका फल प्राप्त होता है और अकर्म  वह है जिसका फल प्राप्त नहीं होता।  

कुछ विद्वान विकर्म का अर्थ निषेध कर्म न लगाकर विशेष कर्म बतलाते हैं लेकिन गीता के सन्दर्भ में यह गलत है भगवान् कहीं भी अर्जुन को विकर्म का अर्थ नहीं समझाते। संस्कृत व्याकरण के अनुसार भी यह वह कृति है जो विकृत हो गई है। विकृति ही है विकर्म।जो कृति अच्छी नहीं है वह विकर्म है डिफ़ॉर्मेशन है। 
शेष का विलोम है विशेष। आम खाने के बाद गुठली आपने नहीं खाया वह शेष है जो गूदा आपने खाया वह विशेष है। 

सब कुछ करते हुए भी व्यक्ति  अकर्म  में रह सकता है   ?

जीव अनेक कर्म करता है यदि कर्मों के फल में उसकी स्पृहा न  रहे तो वह सब कुछ करते हुए भी कुछ नहीं करता। उसे अपना उद्देश्य ज्ञात हो जाता है। भगवान् अर्जुन को यही समझाते हैं :"मैं सब कुछ करते हुए भी सब कर्मों से अलिप्त रहता हूँ  क्योंकि इनमें मेरी स्पृहा नहीं रहती।

जो अनहद नाद के नशे में डूब गया जो परमात्मा के नशे में रहकर सब कर्म करता है उसे कर्म फिर बांधता नहीं है। फल की स्पृहा रखते हुए जो कर्म किया जाता है वह  कर्म बांधता है। 

राजा जनक एक साथ दो तलवार चलाते हैं एक ज्ञान की एक कर्म की। गृहस्थ में रहते हुए सब कुछ करते हैं लेकिन लक्ष्य उनका परमात्मा है। इसलिए उनका (ग्राहस्थ्य) गार्हस्थ्य ( गृहस्थय )कर्म उन्हें बांधता नहीं  है। 

हमारे मन के उद्देश्य से कर्म का सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही पक्ष उजागर होतें हैं।वेषधारी साधू ,लोगों से बहुत प्यार से मिल रहा है लेकिन उनको ठग रहा है उनके साथ बरजोरी कर रहा है। तो उसका प्यार से मिलना फल नहीं देगा। उसके मीठे ठगाऊ बोल फल नहीं देंगे उसकी ठगी फल देगी। क्योंकि वह ठगी ही उसका उद्देश्य है।

इसलिए भगवान् अर्जुन से कहते हैं तू मुझे स्मरण करता हुआ कर्म कर तुझे कोई पाप नहीं लगेगा।  

जिस दिन कर्म और अकर्म का भेद समझ आ जाएगा। मनुष्य का विवेक जागृत होगा उसी दिन भक्ति होगी।    

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें