गुरुवार, 4 अगस्त 2016

उसतति निंदा दोऊ तिआगै खोजै पदु निरबाना। जन नानक इहु खेलु कठनु है किनहूं गुरमुखि जाना




साधो मन का मानु तिआगउ ,

काम क्रोधु संगति दुरजन की ता ते अहिनिसि भागउ।

सुखु दुखु दोनो सम करि जानै अउरु मानु अपमाना।

हरख सोग ते रहै अतीता तिनि जगि ततु पछाना।

उसतति निंदा दोऊ तिआगै खोजै पदु निरबाना।

जन नानक इहु खेलु कठनु है किनहूं गुरमुखि जाना।

भावार्थ :-हे संतजनों !(अपने )मन का अहंकार छोड़ दो। काम और क्रोध कुसंगति के तुल्य ही है ,इससे (भी )दिन रात (हर समय )दूर रहो। जो मनुष्य सुख -दुःख दोनों को एक जैसा जानता है और आदर और अनादर दोनों को एक जैसा जानता , जो ख़ुशी और ग़मी (दुखमय स्थिति )दोनों से निर्लिप्त (अलिप्त )रहता है ,सुख और दुःख दोनों ही जिसे छू नहीं पाते ,उसने जगत में जीवन का रहस्य समझ लिया है। (हे सन्त जनो !इस मनुष्य ने वास्तविकता प्राप्त कर ली है ,जो ) न किसी की खुशामद करता है न निंदा। (जहां कोई वासना , इच्छा किसी भी प्रकार की स्पर्श नहीं कर सकती )वही मुक्ति का पद खोज पाता है। (पर )हे नानक !यह (जीवन )खेल कठिन है। कोई विरला मनुष्य गुरु की शरण लेकर इसे समझता है।